हलधर नाग के लोक साहित्य पर विमर्श

Published On 25-03-2022









( पांडिचेरी विश्वविद्यालय की पहल )













संपादक

डॉ जयशंकर बाबू
दिनेश कुमार माली




अनुक्रमणिका
(i) ‘हलधर नाग का काव्य-संसार’ के अनुवादक की कलम से...
(ii) संपादक की ओर से
हलधर के व्यक्तित्व पर आलेख
1. कालिया से पद्मश्री हलधर तक - डॉ॰ लक्ष्मीनारायण पाणिग्रही
2. युग-पुरूष पद्मश्री हलधर नाग- अनिल कुमार दास
3. कवि हलधर नाग- भारतीय साहित्य का एक विस्मय स्वर- अशोक पूजाहारी
हलधर के कृतित्व पर आलेख
4. हलधर का काव्य-चातुर्य- डॉ. द्वारिकानाथ नायक
5. ‘रसिया कवि’ पर पाठकीय प्रतिक्रिया- डॉ. लक्ष्मी नारायण पाणिग्रही
6. हलधर नाग के ‘अछिया’(अछूत) महाकाव्य की पड़ताल- सुरभि गडनायक
7. जन्मजात कवि- डॉ॰मुरारी लाल शर्मा
8. लोक कवि-रत्न श्री हलधर नाग: असाधारण मेधा-शक्तिपुंज - शर्मिष्ठा साहू
9. हलधर नाग के काव्य के परिप्रेक्ष्य में लोक-साहित्य विमर्श - डॉ. सुधीर सक्सेना
10. हलधर नाग : काव्य-सीमाओं से परे - दिनेश कुमार माली
11. हलधर नाग के काव्य में प्रकृति एवं स्व- डॉ. मैथिली प्र. राव
12. कवि हलधर नाग की कविताओं में लोक संस्कृति और लोक चेतना- डॉ.एस्.प्रीतिलता
13. हलधर नाग व गांधीवाद - कमल कान्त वत्स
14. विलुप्त होती भाषाओं के लोक साहित्य का संरक्षण एवं संबलपुरी कोसली भाषा में हरधर नाग का योगदान- डॉ. भूषण पुआला
अँग्रेजी में आलेख
15. Haldhar Nag : A poet of the people- Prof॰ Shantanu Sar
16. Brand Ambassador of western Odisha : Padmashree HALADHAR NAG- Sushanta Kumar Mishra
17. Philosophy and human values in poet Haldhar Nag’s literary works- Dr Sujit Kumar Pruseth
18. From Peanuts to Padma: Haldhar Nag’s Odyssey through Poetry-Dr.Chittaranjan Misra
19. Variety in Haldhar’s Poetry - Surendra Nath
































‘हलधर नाग का काव्य-संसार’ के अनुवादक की कलम से...


पांडिचेरी विश्वविद्यालय द्वारा दिनाँक 06/02/2021 तथा 07/02/2021 को हलधर नाग के काव्य-संसार के परिप्रेक्ष्य में लोकसाहित्य पर विमर्श विषय पर आधारित दो दिवसीय राष्ट्रीय वर्चुअल संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसका उद्घाटन पांडिचेरी विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति आचार्य गुरमीत सिंह जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण देने के बाद इस अवसर पर अपने कर-कमलो द्वारा मेरी अनूदित पुस्तक “हलधर नाग का काव्य-संसार” के विमोचन किया।
इस अवसर कवि हलधर नाग ने अपने महाकाव्य ‘अछिया (हिन्दी में अछूत’) का सस्वर गायन किया, जिसका मैंने सारानुवाद प्रस्तुत किया था । देश के कोने-कोने से जुड़े साहित्यकार और आलोचकों के हलधर नाग के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अपने आलेखों के माध्यम से विस्तार से प्रकाश डाला, जिसके मुख्य-बिन्दु यहाँ पर पाठकों की जानकारी के लिए दिए जा रहे हैं।
1.डॉ. चितरंजन मिश्राः-
उद्घाटन सत्र के प्रथम वक्ता के तौर पर भुवनेश्वर की बीजेबी कॉलेज के सेवा निवृत अंग्रेजी प्रोफेसर डॉ. चितरंजन मिश्रा ने अपने आलेख ‘फ्रॉम पोयट्री टू पद्म : हलधर नाग ‘द ओडेसी थ्रू पोयट्री’ के वाचन द्वारा हलधर नाग की कविताओं पर दृष्टिपात किया। उनके अनुसार हलधर की कविताएँ स्कॉटिश कवि रार्बट बर्न्स द्वारा लोक-शैली में लिखी गई कविताओं की याद दिलाती है। हलधर नाग की तरह बर्न्स ने भी अपने जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखे और नाग की तरह उनकी भी स्कूली शिक्षा कम थी। औपचारिक शिक्षा के अभाव में उन्हें व्यंग्य की दृष्टि से ‘स्वर्ग से उतरा किसान’ कहा जाता था। ठीक इसी तरह हलधर नाग की लोगों के कवि के रूप में उभरे हैं, मगर लोगों के दिलों पर राज करने वाले।
डॉ. मिश्रा ने उनकी कविताओं में प्राकृतिक उपादानों का अन्वेषण करने का प्रयास किया है। उनकी कविता ‘ढोडो बरगाछ’ (ओल्ड बनियान ट्री) में जहाँ मई महीने की तपती धूप में राहगीरों को छाया, पक्षियों को पके फलों का आस्वादन आदि के माध्यम से ग्राम्य जीवन और प्रकृति में संतुलन दर्शाया है वहीं उनकी दीर्घ कविता ‘बच्छर’ (द ईयर) में ऋतु-चक्रों का वर्णन कर कवि ने पर्यावरण के प्रति जागरूकता के भाव प्रदर्शित किए हैं।
प्रकृति के तत्वों पर डॉ. मिश्रा की खोज यहाँ समाप्त नहीं हो जाती है वरन् प्रकृति से किए गए बिम्बों में उन्हें भारतीय संस्कृति की पारदर्शी झलक साफ नजर आती है।
‘रिवर घेंसाली’ ‘द कुक्कू’ और ‘बुलबुल’ कविताओं की अंतर्वस्तु केवल नदी, पक्षी और जानवर ही नहीं है वरन् नदी का समुद्र में मिल जाने का अर्थ जीवन-यात्रा की समाप्ति, कोयल की तरह नव विवाहिता दुल्हन का क्रंदन करते हुए जाना आदि की समतुल्यता दर्शाती है। उसकी कालजयी कृति ‘अछिया’ में महात्मा गांधी द्वारा अस्पृश्यता के खिलाफ किए गए आंदोलन की रणनीति नजर आती है, जबकि ‘महासती उर्मिला’ में उन्होंने उर्मिला को सती की तुलना में ज्यादा महानता का दर्जा दिया है।
हलधर नाग अपने साक्षात्कार में यह स्वीकार करते हैं कि लेखन की चाहे कोई भी विद्या क्यों न हो, इतिहास, मिथक, सामाजिक मुद्दे का कोई भी दुखद अनुभव- कविता के माध्यम से तो हमेशा जीवन के अनंछुए पहलुओं को तलाशने के साथ-साथ पर उन पर नवीन प्रयोग करना चाहते है ताकि उनकी कविताएं श्रोताओं और पाठकों की विचारधाराओं में कुछ नूतनता प्रदान कर सके।
डॉ. मिश्रा उसमें लिखते हैं कि यह महज एक संयोग है कि कवि गंगाधर मेहर और हलधर नाग दोनों ओड़िशा के पश्चिम क्षेत्र से संबंध रखते हैं। गंगाधर मेहेर का पुश्तैनी घर बरपाली हलधर नाग के गांव घेन्स से महज कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर है। दोनों ने अपनी कविताओं में रामायण का सहारा लिया। रामायण के नारी पात्रों में सीता को आधार बनाकर गंगाधर ने ‘तपस्विनी’ लिखी तो उर्मिला पर हलधर नाग ने ‘महासती उर्मिला’ की रचना की। गंगाधर मेहर से उनकी तुलना किए जाने पर हलधर नाग कहते हैं, - ”कवि से ज्यादा गंगाधर मेहर ओड़िसा साहित्य के संस्थान थे। लोग मुझे दूसरा गंगाधर मेहर कहते हैं यह तुलना मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं हलधर नाग के रूप में जीना और मरना पसंद करता हूँ। यह मेरी इच्छा भी है कि लोग मुझे मरने के बाद हलधर नाग के नाम से ही याद करें।“
हलधर नाग की कविताओं में ”वसुधैव कुटुम्बकं“ की भावना प्रस्फुटित होती है। इस तरह डॉ. चितरंजन मिश्रा ने अपने उद्घाटन भाषण में कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रमुख पहलुओं को स्पर्श किया।
2.डॉ. सुधीर सक्सेनाः-
दूसरे वक्ता हिन्दी साहित्य कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है और छत्तीसगढ़ में आजादी की लड़ाई में आदिवासियों की भूमिका पर महत्वपूर्ण शोध करने वाले डॉ. सुधीर सक्सेना संप्रति राष्ट्रीय पत्रिका ‘दुनिया इन दिनों’ के प्रधान संपादक है। उन्होंने अपना आलेख ‘हलधर नाग के काव्य के परिप्रेक्ष्य में लोक साहित्य विमर्श’ प्रस्तुत किया। इस आलेख में उन्होंने हलधर नाग द्वारा अपनी अल्प ज्ञात संबलपुरी कौसली भाषा में की गई काव्य-रचना को श्रेष्ठ माना है। यही ही नहीं, वे हलधर के काव्य को ओड़िशा के लोक-साहित्य का पर्याय मानते हैं। वे उनकी कविताओं की तुलना रूसी कवि कायसिन कुलियेन से भी करते हैं। उनके शब्दों में कविता आदमी होने की तमीज है। वह सर्वाधिक परिष्कृत और कलात्मक मित कथन है, जिसमें ‘मंत्र’ होने का सामर्थ्य है। डॉ. सुधीर सक्सेना के शब्दों में “हलधर नाग की कविताओं में कौंध है, आलाप है, आत्मालाप है, प्रलाप है, संलाप है, जिरह है, आर्तनाद है, प्रार्थना, यकीन, आश्वस्ति है। हलधर की कविताएं लोक से उपजी है और लोक में मान्यता पाती है। कविता रची जाती है और रचित को पुर्नरचित भी करती है। वह काल के अनुरूप प्रसंगों और चरित्रों की व्याख्या भी करती है।”
उनकी कविताओं की अन्तर्वस्तु पर वे लिखते हैं,
“जब हलधर नाग उर्मिला या शबरी को काव्य की नायिका बनाते है तो विपन्न उपेक्षित और दलित के नायकत्व की अवधारणा सार्थक सिद्ध होती है। संबलपुरी कोसली का सारस्वत प्रवाह उनके कंठ से फूटकर हलधर धारा बन जाता है। लोक साहित्य में सिद्धि ही हलधर को लीजेंडरी व्यक्तित्व बनाती है।”
3 .डॉ. लक्ष्मी नारायण पाणिग्रहीः-
आल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन केन्द्र, कौशलांचल टी वी, सोशियल मीडिया पर अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले घेंस कॉलेज के सेवानिवृत्त ओड़िया भाषा के रीडर डॉ. लक्ष्मी नारायण पाणिग्रही आलेख ‘कालिया से पद्मश्री हलधर तक’ में हलधर की साहित्यिक यात्राओं के विभिन्न पड़ावों का प्रेरणादायी वर्णन किया गया है।
इस आलेख के अनुसार हलधर के पूर्वज घेंस गांव के नहीं थे, वहाँ से 40 किमी दूर एक आइसोलेटेड गांव का बेदपाली के निवासी थे। देवानंद, सदानंद, शकुंतला, श्रीमत, लादूराम, आद्यूनाथ आदि उनके पूर्व पुरूष थे। उनके पूर्वजो का उपनाम ‘करसल’ था, मगर जब वे अपना पुश्तैनी गांव छोड़कर घेंस आ गए तो उनका उपनाम ‘नाग’ हो गया।
भजो और गुरबारी की छठवीं संतान थे कालिया अर्थात हलधर नाग, जिस तरह शेक्सपीयर और कालीदास का जन्म साधारण परिवार में हुआ, ठीक उसी तरह इस युग के किंवदती कवि का जन्म भी अतिसाधारण परिवार मे हुआ। फिलहाल उनके परिवार में उनकी पत्नी मालती और पुत्री नंदनी है, जिसका पास के किसी गांव में शादी कर दी गई है। सन् 1989 में जब वे घेंस गांव की साहित्यिक संस्था ‘अभिमन्यु साहित्य संसद’ द्वारा आयोजित प्रोग्राम में लोक गीत गा रहे थे तो उनसे कविता/कहानी लिखने का आग्रह किया गया। बस, यही वह जगह है जहाँ कालिया का हलधर नाग में रूपांतरण होना शुरू हुआ। डॉ. लक्ष्मी नारायण पाणिग्रही के अनुसार अगर वे कविताएं नहीं लिखकर कहानियाँ लिखते तो भी ऊँचे दर्जे के कहानीकार के रूप में अवश्य प्रसिद्धि पाते। समाप्त में व्याप्त अंधविश्वास को दूर करने की सामाजिक प्रतिबद्धता पर लिखी उनकी दो कहानियाँ ‘टनेही’ (जादू-टोना) और ‘घिनुअ पंछेई’ (पंचायत की खरीद-फरोख्त) बहुचर्चित रही है।
कुछ समीक्षक उनकी पहली कविता ‘ढोडो बरगाछ’ (पुराना बरगद) को मानते हैं, जबकि उनकी पहली कविता ‘लुलु पुजारी का कालिया’ या ‘काठगोड’ थी, जो तब तक पांडुलिपि अवस्था में ही उपलब्ध थी। जब उनकी रचनाएं संबलपुर की पत्रिका ‘आर्ट एंड आर्टिस्ट’ में प्रकाशित हुई और उन्हें पत्रिका द्वारा उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में सम्मानित किया गया तो फिर उन्होंने इस क्षेत्र में पीछे मुड़कर नहीं देखा और देखते-देखते हलधर नाग पश्चिम ओड़िशा की लोक-संस्कृति, लोक गीत, लोक-नृत्य आदि की हृदयस्थली और पर्याय बन चुके थे।
अगर आप हलधर साहित्य को सूक्ष्मता से ध्यानपूर्वक पढते हैं तो आपको पश्चिम ओड़िशा के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और अस्मिता का जितना परिचय मिलता है, उतनी सटीक जानकारी आपको किसी इतिहासज्ञ, भूगोल-वेत्ता, गवेषक के आलेखों से भी प्राप्त नहीं हो सकती।
सन् 1997 में उन्हें कटक के लोक कवि की उपाधि दी गई, जो एक तरफ सम्मान सूचक थी तो दूसरी तरफ कुछ अंश में अवज्ञा सूचक भी। अतः संबलपुरी साहित्य नाटक अकादमी ने हलधर को लोक कविरत्न की उपाधि से नवजा जोकि लोगों की लोगों के लिए कविता लिखने वाले हलधर नाग की ख्याति काफी बढ़ चुकी थी। लोक कवि से पहले उन्हें बरगढ के डालव गांव में कौशल कोइली की उपाधि मिल चुकी थी। इस तरह कालिया से हलधर हलधर से कौशल कोइली से लोक कवि, फिर लोक कवि से लोक कवि रत्न, फिर ओड़िशा साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिर पद्मश्री, फिर डाक्टरेट और अंत में लाइफ एचीवमेंट पुरस्कार- इस तरह कालिया से हलधर नाग बनने की यात्रा बहुत लंबी है।
उनकी कविताओं में परंपरा और आधुनिकता का अदभुत मिश्रण देखने को मिलता है। अभिमन्यु साहित्य संसद द्वारा सन् 2004 में प्रकाशित ‘अछिया’ (अछूत) महाकाव्य की आवृत्ति जब उन्होंने कटक के किसी साहित्यिक सम्मेलन में की जिसमें मुख्य अतिथि मनोरमा महापात्रा थी वह सुनकर न केवल हतप्रभ रह गई वरन् रोने लगी। उन्होंने कहा कि संबलपुर के हीराकुंड बाँध से न केवल हमारे लिए यहाँ पानी आता है, वरन् वहाँ से बहकर काव्य की धारा भी आती है।
हलधर नाग केवल दीर्घ कविताओं या महाकाव्यों की रचना में ही निपुण नहीं है, तेरह-चौदह शब्दों वाली छोटी कविताओं के द्वारा भी सारगर्भित संदेश देने में वे सिद्धहस्त हैं। उदाहरण के तौर पर ‘अमृत झरु.........कवि कलम गारु’ (पंचामृत) कविता और ‘अग्नि’ कविता यद्यपि छोटी है, मगर उसमें भी विश्व साहित्य की झलक देखी जा सकती है। हजारों-हजारों बत्तियाँ जल रही है, मगर सभी में जलने वाली अग्नि तो एक ही है। उन्होंने अपने कवि गुरू तुलसीदास पर महाकाव्य ‘रसिया कवि’ लिखा है जिसके शुरूआती आठ पद अत्यंत ही प्रासंगिक हैं। डॉ. लक्ष्मी नारायण पाणिग्रही ने अलग से ‘रसिया कवि’ पर पाठकीय प्रतिक्रिया शीर्षक वाला एक आलोचकीय आलेख लिखा है, जो इस संकलन में शामिल है। इस आलेख में उन्होंने तुलसी दास की जीवनी के साथ-साथ कवि और कविता क्या होती है? विषय पर आलोचकीय दृष्टि से गहन प्रकाश डाला है।
प्रथम पद में कवि की परिभाषा दी गई है, कवि एक चमगादड़ की तरह होता है, जो अलग-अलग पेड़ों से जो कुछ खाता है उसका ही उदर्गीण (वमन) करता है। इसी तरह आठवें पद में जिस तरह दही को बिलोकर घी अलग किया जाता है, वैसे ही असत्य को मथकर सत्य निकालना ही कविता का मुख्य उद्देश्य है। इस तरह डॉ. लक्ष्मी नारायण पाणिग्रही का यह आलेख उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालता है।

4.डॉ. द्वारिका प्रसाद नायकः-
अनेक साहित्यिक सम्मानों से सम्मानित डॉ. द्वारिका प्रसाद नायक ओड़िया भाषा के प्रमुख नाटककार हैं। इसके अतिरिक्त, हलधर नाग ग्रंथावली के संपादन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका भी रही है। संबलपुरी पत्रिका ‘सप्तऋषि’ में प्रकाशित अपने आलेख ‘हलधर का काव्य-चार्तुय’ में उनके महाकाव्यों ‘महासती उर्मिला’, ‘अछिया’, ‘रसिया कवि’, ‘बच्छर’ आदि पर अपनी आलोचकीय दृष्टि डाली है। ‘महासती उर्मिला’ महाकाव्य में उर्मिला को सीता से महान सती बनाने का साहस व पारदर्शिता ‘अछिया’ महाकाव्य में शबरी द्वारा राम के पाँव चाटने का दृश्य जैसे गाय अपने बछड़े को चाटती है - मौलिकता का परिचय देती है। इसी तरह ‘रसिया कवि’ में गोस्वामी तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली की बातों से प्रभावित होकर रामरित्र मानस की रचना करते हैं। इस महाकाव्य में कवि की चिंताधारा, कल्पना विलासिता और सृजनशीलता देखते ही बनती है।
‘बच्छर’ काव्य में वर्षा, शरत हेमंत, शीत, बसंत और गर्मी की ऋतु का वर्णन है। इस तरह एक काल्पनिक कथा वस्तु को आधार बनाकर ऋतुओं का मानवीकरण करना हलधर की काव्य-चार्तुय का प्रमाण है। डॉ. द्वारिका प्रसाद नायक के शब्दों में, “कवि हलधर की कविता में विशेषता है किंवदंती और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों की कथावस्तु के साथ-साथ अपनी कल्पना-शक्ति का पुट शामिल करना है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण दिया जा सकता है ‘अछिया’ काव्य। मिथकीय,ऐतिहासिक विषय-वस्तु पर कवि हलधर का लेखन अद्भुत है। ओड़िया साहित्य अब उत्तर आधुनिक युग में प्रवेश करने के समय कवि हलधर संबलपुरी भाषा में काव्यों की रचना कर उन्हें पाठकों को परोसकर लोककवि-रत्न की मान्यता पाने के साथ-साथ साहित्य-रस-प्रदान करने वाले कवि के रूप में सम्मानित और सवंर्धित हुए है, सही में जितनी आश्चर्य की बात है, उतनी ही प्रसन्नता की भी।“

5. डॉ. सुजीत कुमार प्रूसेठ :-
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एम. ए., एम. फिल. और पी. एचडी. करने वाले डॉ. सुजीत कुमार प्रूसेठ संप्रति इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, नई दिल्ली तथा नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, बैंगलोर में बतौर संकाय के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त, वे आई आई एम, इंदौर के विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं।
श्री प्रूसेठ ने अपने आलेख ‘फिलासॅफी एंड हयूमेन वैल्यूज इन पोएट हलधर नाग’ज लिटरेरी वर्क्स’ में मानवीय मूल्यों और भारतीय दर्शन का अन्वेषण करते हैं। हलधर नाग की कविताओं में सामाजिक विद्रूपताओं के साथ-साथ मिथकीय पात्रों के चित्रण के माध्यम से धर्म, रीति-रिवाज और परंपराओं में सामाजिक शोषण और भेदभाव की नीति को बखूबी वर्णन है।
उनकी कविता ‘ढोडो बरगाछ’ मनुष्य के जन्म से लेकर मरण तक की सारी गतिविधियों का मूक-साक्षी बने बरगद का पेड़ जीवन की क्षण-भंगुरता का संदेश देती है तो ‘महासती उर्मिला’ में कवि की नई कल्पना (पुनर्कल्पना) उजागर होती है।
यद्यपि हलधर नाग की भाषा अत्यंत ही सरल है मगर यह भाषा भारतीय दर्शन से ओत-प्रोत है। जतीन्द्र कुमार नायक के शब्दों में,“हलधर नाग की कविताओं में पाठक नई संवेदना पाते हैं और यही वजह है कि वे पाठकों के साथ दिल की गहराई से जुड़ते जाते हैं।”
इस आलेख में उनकी दूसरी विशेषताओं पर भी लेखक ने प्रकाश डाला है कि हलधर नाग लंकेश्वरी की भूमिका अदा करते हैं और अपनी आशु कविताओं की सांगीतिक प्रस्तुति के कारण दर्शकों का मनमोह लेते हैं। दूसरे शब्दों में, उनकी काव्य-प्रतिभा और सर्जनशीलता उत्कृष्ट है।
6. प्रोफेसर शांतनु सरः-
अनेक साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित प्रोफेसर शांतनु सर अंगुल के गवर्नमेंट ऑटोनोमस कॉलेज के सेवा-निवृत्त प्रिंसीपल और मधुसूदन ट्रस्ट फंड के गोल्ड मेडल विनर भी।संवाद साहित्य घर अंगुल के अध्यक्ष और जिला साहित्य संसद के उपाध्यक्ष हैं। ओड़िया पत्र-पत्रिकाओं में आपके आलेख बहुचर्चित रहे हैं।
अपने आलेख ‘हलधर नाग : ए पोएट ऑफ पीपल’ में उनकी तुलना गंगाधर मेहेर से करते हैं। उनके अनुसार स्वभाव कवि गंगाधर मेहेर संस्कृतनिष्ठ ओड़िया भाषा में लिखते थे, जबकि हलधर शुद्ध कोशली में लिखते हैं। रामायण, महाभारत और कालिदास के लेखन से अच्छी तरह परिचित थे, मगर हलधर नाग के लिए यह नामुमकिन था। जिस तरह टी.एस. इलियर अपनी बहुचर्चित कविता ‘वैस्टलैंड’ में पाश्चात्य मिथकीय पात्रों का प्रयोग करते हैं ठीक वैसे ही हलधर अपने महाकाव्य ‘प्रेम पहचान’ में पौर्वात्य पौराणिक मिथकीय पात्रों का। उनके अनुसार हिन्दी कवि मैथिलीशरण गुप्त ने 1933 में रवीन्द्र नाथ टैगोर के कहने पर रामायण के अवहेलित पात्र उर्मिला को साकेत में महिमा-मंडित अवश्य किया था, मगर हलधर नाग ने इस सदी में अपनी अनोखी एवं तार्किक काव्य-प्रतिभा के कारण उर्मिला को सीता से भी श्रेष्ठ बताया।
वर्डस वर्थ द्वारा लिरिकल बैलेड की भूमिका में लिखी हुई उक्ति ‘Style is the Man’ हलधर नाग की काव्य-रचना पर पूर्णतया लागू होती है।उनके काव्य में स्वत:स्फूर्त प्रवाह है, एक आदमी दूसरे आदमी से बातें कर रहा हो। प्रोफेसर शांतनु सर के गहन अध्ययन के अनुसार हलधर नाग की तुलना चिली के सन् 1971 में नोबल पुरस्कार विजेता कवि पाब्लो नेरूदा से की जा सकती है। समकालीन कवि भी हलधर नाग की प्रशंसा करते नहीं थकते हैं। हिन्दी फिल्मों के विख्यात गीतकार ‘गुलजार’ अपने अद्यतन कविता-संग्रह ‘ए पोएम ए डे’ में उनके सम्मानार्थ उनकी दो कविताओं ‘पंचामृत’ और ‘चिट्ठी देऊछे रे हलधर’ को प्रारंभिक पन्नों में संकलित किया है। एक जगह इस आलेख में शांतनु सर ने उनकी तुलना विश्व विख्यात कवि व्हाइटमेन से भी की हैं।
लोक संस्कृति के प्रमुख तत्व धूमरा और दाल खाई उनकी कविताओं में समाई हुई है। ‘ढोडो बरगाछ’में समय की निरंतरता है तो ‘चैतर सकाल’ में ध्वनि का माधुर्य। ‘अछिया’ महाकाव्य में अस्पृश्यता के खिलाफ आवाज है तो ‘महासती उर्मिला’ में रामायण के अवहेलित उपेक्षित पात्र उर्मिला रामायण के प्रमुख पात्र सीता से भी श्रेष्ठ बताने का दुस्साहस हलधर नाग जैसे बिरले कवि ही कर सकते है। ‘श्री समलेई’महाकाव्य में इतिहास मिथकीय पात्रों और लोक कथाओं का अदभुत सम्मिश्रण है। तुलसीदास की जीवनी पर आधारित काव्य ‘रसिया कवि’और स्वतंत्रता सेनानी जैसे ऐतिहासिक पात्र पर लिखना उनका काव्य ‘वीर सुंदर साय’ इतिहास में उनकी गहरी रूचि होने के साथ-साथ देश-भक्ति का भी प्रमाण देती है।
7.अशोक पूजाहारीः-
अशोक पूजाहारी हलधर नाग के बहुत ही नजदीकी माने जाते हैं। आज देश-विदेश में हलधर नाग की काव्य-प्रतिभा निखर कर सामने आई है, उसके पीछे डॉ. द्वारिका प्रसाद नायक, श्री लक्ष्मी नारायण पाणिग्रही और अशोक पूजाहारी के नाम उल्लेखनीय है, इसमें किसी भी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है।
‘अभिमन्यु साहित्य संसद’ के संस्थापक सदस्य, शहीद कुंजल सिंह क्लब के अध्यक्ष, दुलीविहा संस्कृति परिषद के संस्थापक एवं अनेक साहित्यिक संस्थानों से संबंध रखने वाले अशोक पूजाहारी हलधर नाग के गाँव के मूल निवासी हैं और संप्रति पहाड़श्रीगिडा के आंचलिक कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस के लेक्चरर हैं।
उन्होंने अपने आलेख “कवि हलधर नागः भारतीय साहित्य का एक विस्मय स्वर” में उनके प्रारंभिक जीवन के संघर्ष, पारिवारिक-सामाजिक वातावरण एवं पौराणिक कथाओं का मौलिक सृजन पर प्रभाव एवं उनकी काव्य-रचना को बोल-चाल की शुद्ध संबलपुरी भाषा में प्रस्तुत करने पर अपने सारगर्भित विचार व्यक्त किए हैं। कवि खुद अच्छे नर्तक भी हैं, दंड नृत्य और कृष्ण गुरू जैसे नृत्य करते हैं। उनका साहित्य भाषा, भाव, छंद और रस प्रधान हैं।
‘चएतर सकाल’ में भकड चाएँ, ढडन-ढडन, घिडघिडान, भडगो आदि ध्वन्यात्मक शब्द हिन्दी के विख्यात उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु के कालजयी उपन्यास ‘मैला आंचल’ की मुझे याद दिलाते हैं तो कालिदास की कालजयी कृति ‘ऋतुसंहार’ की तरह हलधर नाग अपने काव्य ‘बच्छर’ में ऋतुओं से वैचित्र्य और वैभव का अतिनिपुणता से वर्णन करने के साथ-साथ स्थानीय अंचल के रीति-रिवाज,परंपरा-संस्कृति, लोक-कला एवं लोकाचार का दर्शन उनके इस काव्य की पृष्ठभूमि बनी है।
पुराणों और उपनिषदों का अध्ययन नहीं करने के बाद भी महात्माओं के वचनामृत से प्रभावित होकर उन्होंने ‘महासती उर्मिला, ‘तारा मंदोदरी, ‘अछिया, ‘वीर सुंदर साय, ‘रसिया कवि तुलसीदास, ‘प्रेम पहचान’ जैसी उच्चकोटि की अनेक काव्य-कृतियों की रचना की है। जब कोई चरित्र उनके हृदय को आंदोलित करता है तो कोई अदृश्य शक्ति उनके भीतर प्रवेश कर उस चरित्र पर आधारित काव्य-रचना के लिए प्रेरित करती है।
उनकी अनोखी स्मरण शक्ति उन वैदिक ऋषियों की याद दिलाती है, जो कभी श्रुति परंपरा के आधार पर वेदों को मुह जबानी याद रखा करते थे। उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में अशोक पूजाहारी जी कहते है “अति साधारण जीवन है हलधर नाग का। हलवाई की दुकान पर बासी पखाल खाते मिल जाएंगे तो कभी रथ-यात्रा के दिन अपनी आंतरिक खुशी के लिए ‘रामचना’ बनाकर बेचते नजर आएंगे तो कभी अतिथियों के स्वागत सत्कार के लिए मुर्गा बनाने के लिए मसाला पीसते नजर आएंगें। आज उनके साहित्यिक योगदान के लिए राज्य के मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और यहां तक कि बड़े-बड़े साहित्यकार उनसे मिलने की इच्छा रखते हैं, आखिरकर हलधर नाग संबलपुरी कौसली भाषा के उतुंग शिखर हैं, अपनी उत्कृष्ट काव्य- प्रतिभा के कारण भारतीय साहित्य जगत में विस्मित करने वाली अनोखी शख्सियत हैं-हलधर नाग।”
8.सुरेन्द्र नाथः-
विख्यात साहित्यकार सुरेन्द्रनाथ ने हलधर नाग के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके समूचे कृतित्व को अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने के लिए प्रोजेक्ट काव्यांजलि शुरू किया और उनकी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया,जिसके चार संग्रह ‘काव्यांजलि’ के नाम से प्रकाशित हो चुके है।
इस अवसर पर साहित्यकार सुरेन्द्र नाथ हलधर नाग की कविताओं पर आधारित आलेख ‘वेराइटी इन हलधर पोइट्री’ में काव्य-लक्षणों जैसे अलंकार उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि का अन्वेषण करते हैं। उनका यह शोध तभी संभव हो सका, जब वे अनुवाद प्रक्रिया के दौरान सूक्ष्म साहित्यिक बारीकियों से गुजरे और उन्हें अपने इस आलेख में लाने का प्रयास किया।
जहाँ हलधर नाग की कविता ‘चैत की सुबह’ में ध्वन्यात्मकता (Onomatopoeia) देखती ही बनती है वहीं उनकी दूसरी कविता ‘घेंसाली नदी’ में नदी के मानवीकरण की प्रस्तुति मिलती है।
कविता का सरलार्थ इस तरह हैः-
“जिस तरह तुम ऊँची-नीची भूमि पर बहती हो,वैसे ही मैं भी सुख-दुख के उतार-चढ़ाव पार करता हूँ। तुम अपनी यात्रा समुद्र में मिलकर समाप्त करती हो और मैं अपनी यात्रा मृत्यु को गले लगाकर।”
इसके अतिरिक्त, सुरेन्द्र नाथ उनकी कविताओं में छंद (सोनेट) भी खोजते हैं और हलधर नाग की कविताओं के सोनेट की तुलना जॉन मिल्टन, थॉमस व्याट, जॉन डॉन, सुरे से करते हैं। चौदह पंक्तियों वाले पैट्राकियन सोनेट (ABBAABBBCDCDD), फिर शेक्सपियरियन सोनेट (ABAB-CDCD-EFEF-GG) की तर्ज पर हलधर नाग की कविता ‘अति’ (Too much) में भारतीय सोनेट (AABB-CCCC-CCCC-DD)मिलते हैं।
यही नहीं, सुरेन्द्र नाथ उनकी कविताओं में तेरहवीं सदी के प्रसिद्ध परसियन कवि रूमी की कविताओं की झलक देखते हैं। रूमी की कविता ‘लाइट’ और हलधर नाग की कविता ‘अग्नि’ में जहाँ रूमी विभिन्न लैंपों में एक रोशनी देखते है, वही हलधर अलग-अलग जलती सलिताओं में एक अग्नि देखते हैं। हलधर की कविताओं की एक और विशेषता है कि हलधर अपनी कविताओं के प्रवाह को अचानक एक बिंदु पर लाकर चरम तक पहुँचा देते है, जिसे सुरेन्द्र नाथ ‘हलधर ट्विस्ट’ कहना ज्यादा पसंद करते हैं।
9.सुशांत कुमार मिश्रः-
सुशांत कुमार मिश्र ख्याति लब्ध शिक्षाविद, लेखक, स्तंभकार, सामाजिक कार्यकर्ता, उद्घोषक एवं संगठनकर्ता हैं। संप्रति संबलपुर विश्वविद्यालय के सीनेट सदस्य और बी. एम. कॉलेज में अंग्रेजी के व्याख्याता भी है।
अपने आलेख ”ब्रांड एंबेसेडर ऑफ वेस्टर्न ओडिशा पदमश्री हलधर नाग“ में हलधर नाग को पश्चिमी ओड़िशा के ब्रांड एंबेसेडर का दर्जा देते हैं। इस आलेख में हलधर नाग को लोक उपाधियों जैसे कौशल कोइली, जादव कुल गौरव, कौशल रत्न, जादव ज्योति आदि का जिक्र करने के साथ-साथ उन्हें प. बंगाल, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, संबलपुर आदि के विश्वविद्यालयों द्वारा अपनी कविताओं की प्रस्तुति हेतु आमंत्रित करने पर गौरव की अनुभूति का उल्लेख किया है। उन्होंने हलधर नाग की पूर्व उपाधियों की तुलना में लोक कवि रत्न की उपाधि को श्रेष्ठ बताया है, सही मायने में हलधर नाग के कई अनपढ़ काव्य-प्रेमियों को प्रभावित किया है। इस वजह से ओडिशा के लोगों ने उनके सम्मान में लोक कवि हलधर सांस्कृतिक परिषद, लोक कवि हलधर वन विद्यालय और हलधर मंडप जैसे संस्थानों की स्थापना की है। यहाँ तक कि उनके जीवन पर बीबीसी ने भी एक डाक्यूमेंटरी फिल्म बनाई है। सुशांत कुमार मिश्र उनकी कविताओं की थीम प्रकृति, समाज, मिथक और धर्म के इर्द-गिर्द पाते हैं।उनके अनुसार वे अंधेरे से किसी वस्तु को उठाकर कविता बनाने के लिए लाते हैं और उस वस्तु के अविश्लेषित और अनन्वेषित क्षेत्र को फोकस करते हैं। हलधर नाग की इस काव्य-प्रतिभा ने पश्चिम ओड़िशा की भाषा को नई पहचान प्रदान की है।

10॰ सुरभि गडनायक
सुप्रसिद्ध ओडिया-हिन्दी अनुवादिका हलधर नाग के ‘अछिया’ (अछूत) काव्य में महाकाव्य की कसौटियों की पड़ताल करती है। अपने आलेख “हलधर नाग के ‘अछिया’(अछूत) महाकाव्य की पड़ताल” में वह दलील देती हैं कि यह काव्य उत्तम काव्यों की श्रेणी में आता है क्योंकि शबरी की गुरू-वचनों के प्रति निष्ठा और राम-दर्शन के लिए जो ललक दर्शाई गई है, वह मनुष्य जीवन के चार पुरूषार्थों में निहित है। उत्तम काव्य का मुख्य प्रयोजन यह भी है। इस काव्य का प्रमुख प्रयोजन समाज से छुआछूत को हटाना तथा महिलाओं में शिक्षा के प्रति रूझान पैदा करना है। कहीं-कहीं तो कवि ने महिला अधिकारों की बात भी छेड़ी हैं, जैसे

गुरू ने कहा था छप्पन कोटि में
मानव-जीवन ही सार
मिलने-जुलने का फिर
नहीं मेरा अधिकार

आचार्य रुद्रट के ‘काव्यालंकार’ का हवाला देते सुरभि गडनायक कहती है कि किसी भी उच्च कोटि के कवि के द्वारा काव्य का जो प्रयोजन होता है, उसमें हलधर नाग पूर्णतया खरे उतरते हैं।वह मानती है कि हलधर नाग पर सरस्वती की कृपा ही है जो हर किसी को नहीं मिलती है। सरस, सरल और सर्वजन ग्राहय काव्य की रचना अत्यंत दुर्लभ कार्य है। अग्नि पुराण में आता है,

नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।

महाकाव्यों कीसमस्त कसौटियों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गहन विर्मश करने के बाद आलोचिका सुरभि गडनायक अपना मत रखती है कि चौतीस-पैतीस पृष्ठों तथा 209 पद्यांशों वाली हलधर नाग की ‘अछिया’ (अछूत) शीर्षक वाली दीर्घ कविता को खंड/प्रबंध काव्य तो क्या, महाकाव्य की श्रेणी में रखना पूरी तरह से सुसंगत एवं उचित है।

11.डॉ. मुरारीलाल शर्माः-
स्ंबलपुर विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त हिन्दी आचार्य डॉ. मुरारीलाल शर्मा अपने आलेख ‘जन्मजात कवि’ में लोक कवि रत्न हलधर को जीवित किंवदती मानते हैं और उनकी कविताओं में मौलिकता, नवीनता, सामाजिक संदेश, प्रकृति प्रेम, धर्म, अध्याय मिथकीय पात्रों का आधुनिकीकरण के साथ-साथ सामाजिक शोषण और प्रताड़ना के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाला मानते हैं। हलधर नाग की सारी कविताएं सोद्देश्यपूर्वक लिखी हुई हैं। ‘हमारे गांव का श्मशान’ ‘पशु और मनुष्य, ‘स्वच्छ भारत’ आदि जहाँ सामाजिक कविताएँ हैं वहीं ‘सोच लो’, ‘लालटेन’, ‘लुलु पुजारी का कालिया’, ‘छंदाचरण अवतार’ आदि आध्यात्मिक पृष्ठभूमि वाली कविताएं है। इसी तरह ‘कुंजलधपारा’, ‘छोटे भाई का साहस’, ‘मिट्टी का आदर’ ऐतिहासिक महत्व की कविताएं है। भले ही हलधर नाग का महाकाव्य ‘अछिया’ (अछूत) त्रेता कालीन शबरी के मिथक पर आधारित है, मगर आज भी उनके इस महाकाव्य में घोर जातिवाद, छुआछूत पर कवि ने तीक्ष्ण प्रहार किया है, जबकि ‘श्री समलेई’ महाकाव्य में संबलपुर की अधिष्ठात्री देवी माँ समलेई की राजा बलराम देव द्वारा स्थापित करने से लेकर उनके नामकरण और मूर्ति भंजक क्रूर मुस्लिम शासक काला पहाड़ के संबलपुर पर आक्रमण के समय देवी द्वारा उसके विनाश की गाथा में प्रकृति के वर्णन के साथ-साथ तत्कालीन धार्मिक उठापटक की बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुति हुई है।

12.शर्मिष्ठा साहूः-

प्रसिद्ध ओडिशा एवं संबलपुरी कवयित्री शर्मिष्ठा साहू उनकी कविताओं में ग्राम्य परिवेश को काव्यानंद का प्रमुख घटक मानती है। गांव की मिट्टी से गहराई से जुड़े होने के कारण ने किसी भी सहृदय मनुष्य के अंतरात्मा से सहजता मे प्रवेश कर जाते है। कवि हलधर की विशेष प्रतिभा उनकी असाधारण मेधा शक्ति है, उन्हें आज तक लिखी अपनी सारी कविताएँ कंठस्थ है, उनके अपने सभी दीर्घ महाकाव्य भी। शर्मिष्ठा साहू ने अपने आलेख ‘ लोक कवि-रत्न श्री हलधर नाग: असाधारण मेधा-शक्तिपुंज’ में छोटी मगर सारगर्भित दार्शनिक कविताओं का उल्लेख किया है, वे हैँ ‘लालटेन’,’अग्नि’,’गर्मी’ और ‘बारिश’ हैं। शर्मिष्ठा साहू के शब्दों में, “हलधर नाग जी के कविताओं में हम जितना प्रवेश करेंगे, उतना ही सुखद अनुभव हमें मिलेगा ।वे केवल मिथिकीय कविताएंनहीं लिखते, बल्कि छोटी-छोटी कविताओं में भी आधुनिक मनुष्य जीवन के सारे सुख-दुःख बहुत ही सरस और जीवंत शैली में प्रस्तुत करते हैँ। उनकी कविताओं में भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि से ओत-प्रोत विषय-वस्तु देखने को मिलती है, जो न केवल भारतीय चेतना का प्रतीक है, बल्कि विश्व साहित्य में भी अपनी एक अलग पहचान दर्ज करवाती है।”

13.अनिल दासः-
हलधर नाग से मेरा पहली बार परिचय कराने वाले प्रतिभावान ओड़िशा एवं संबलपुरी कवि तथा संबलपुरी साहित्यिक पत्रिका ‘उदिआँ’ के यशस्वी संपादक अनिल दास अपने आलेख ‘युग-पुरूष पद्मश्री हलधर नाग’ में उनके बाल्य जीवन, कलाकार हलधर, कवि हलधर, उनकी कविताओं से अलौकिक दिव्यता की अनुभूति, कवि धर्म के नीरव प्रचारक हलधर, कविता को आजीविका का माध्यम बनाने वाले दुः साहसी कवि हलधर और माटी के प्रेमी हलधर नाग आदि शीर्षकों में विभक्त किया है। इस आलेख के माध्यम से उनके जीवन के अनछुए पहलुओं को स्पर्श किया जा सकता है। अनिल दास ने अपनी संपादित सम्बलपुरी साहित्यिक पत्रिका “उदियाँ” में हलधर नाग के साक्षात्कार का हवाला देते हुए लिखा है, “आंतरिक उद्यम निरंतर जारी रखने से एक चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन सकता है और एक कप प्लेट धोने वाला साधारण आदमी पद्मश्री प्राप्त कर सकता है।”
उनकी दृष्टि में कवि हलधर नाग सारस्वत वाणी को जीवन में प्रमाणित करने वाला एक संतपुरूष, अपनी जीवित अवस्था में, अपने जयंती समारोह मे शरीक होकर आयोजकों का मनोबल बढ़ाने वाले युग-पुरूष है और व्यक्तिगत स्तर से ऊपर उठकर सामग्रिक स्तर को प्रतिबिंबित करने का सामर्थ्य रखने वाली अम्लान ज्योति, संकीर्णता से बहुत दूर, व्यापक चिंतन-मनन और सार्वभौमिक-चेतना का एक अटूट आधार है ।

14.डॉ. भूषण पुआलाः-
राजगांगपुर, सुंदरगढ (ओड़िशा) के सरबती देवी महिला महाविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. भूषण पुआला अपने आलेख ‘विलुप्त होती भाषाओं के लोक साहित्य का संरक्षण’ में भूमंडलीकरण के दौर में कई भाषाओं और बोलियों का विलुप्ति के कगार पर खड़े होने पर दुख जताया है। लोक साहित्य ही लोक संस्कृति का दर्पण है, जिसमें सामूहिकता, एकता, संहिता एवं सह-अस्तित्व का दर्शन प्रतिफलित होता है। अगर लोक भाषाएं विलुप्त हो गई तो उसकी संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान और उनका इतिहास हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगा। अतः हलधर नाग के संबलपुरी साहित्य का संरक्षण अत्यंत ही जरूरी है।

15.कमल कांत वत्सः-
पंजाब के शोधार्थी कमल कांत वत्स अपने आलेख ‘हलधर नाग व गांधीवाद’ में हलधर नाग की तुलना गांधीजी से की है, जिस तरह गांधी जी ने अपना सारा जीवन अस्पृश्यता को मिटाने तथा सामाजिक समरसता को पैदा करने में लगा दिया, ठीक वैसे ही साहित्य के माध्यम से हलधर नाग के ‘अछूत’ महाकाव्य में गांधीवादी विचारधारा की झलक साफ देखी जा सकती है। परिधान में धोती, बनियान और नंगे पांव रहने वाले हलधर नाग में गांधीजी के सिद्धांत ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की प्रतिमूर्ति आसानी से देखी जा सकती है। अतः हलधर नाग इस युग में नवयुवकों के लिए आदर्श की जीवित मिशाल है।

16.डॉ. एस॰प्रीतिलताः-
लेडी डोक कॉलेज, मदुरै की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. एस. प्रीतिलता अपने आलेख ‘कवि हलधर नाग की कविताओं और गीतों में लोक संस्कृति और लोक-चेतना’ का दर्शन करती है। उनकी कविताओं में ‘ढोडो बरगद’, ‘चैत की सुबह’, श्री समलेई’, ‘संचार धुन में गीत’, ‘कहानी खत्म’, ‘नुआखाई’, ‘रंग लगे बूढ़े का अंतिम संस्कार’, ‘छोटे भाई का साहस’ आदि में संबलपुरी भाषा, वेशभूषा, जीवन, मिट्टी से लगाव और लोक संस्कृति की तलाश करती है तो ‘असत नरक’, ‘अछूत’, ‘चेतावनी’, ‘लालटेन’, ‘स्वच्छ भारत’, ‘भ्रम बाजार’, ‘जरा सोचो’, ‘हमारे गांव का श्मशान घाट’, ‘एक मुट्ठी चावल के लिए’ आदि कविताओं में लोक चेतना की यर्थाथता का अन्वेष्ण करती है।

17.हेमंत कुमार पटेलः-
दर्लिपाली, सुंदरगढ (ओड़िशा) के डी.एन. उच्च माध्यमिक विद्यालय के ओड़िया भाषा एवं साहित्य विभाग में कार्यरत अध्यापक हेमंत कुमार पटेल अपने आलेख ‘लोकप्रियता के शिखर कवि हलधर’ में उन्हें लोकप्रिय लोक कवि मानते हैं। वे उनकी लोकप्रियता के पीछे प्रमुख निम्न कारणों को मानते हैः-
1. उन्हें अपनी कविताएं कंठस्थ हैं।
2. लोगों की भाषा में बोलते हैं।
3. लोक साहित्य की प्रचलित धारा को अपने साहित्य का अंग मानते हैं।
4. उनकी भाषा शैली और प्रस्तुतिकरण करने का ढंग उन्हें सहजता से लोगों के दिलो दिमाग पर उतार देता है।


18.डॉ. पी.सी. कोकिलाः-
चेन्नई की प्रेसीडेंसी कॉलेज की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. पी.सी. कोकिला हलधर नाग की तुलना हिन्दी के लोक कवि नागार्जुन से करती है। यद्यपि नागार्जुन का जन्म सन् 1911 में बिहार के मधुबनी जिले में स्थित ख्वाजा सराई में हुआ था, जबकि श्री हलधर नाग का जन्म सन् 1950 में ओड़िशा के बरगढ़ जिले में हुआ, 39 वर्षां के अंतराल के बावजूद भी दोनों कवियों के व्यक्तित्व में काफी समानता है। दोनों के काव्यों में किसी भी विशिष्ट विचारधारा या दर्शन के प्रति झुकाव दिखाई नहीं देता है। दोनों की अभिव्यक्ति जीवनानुभवों पर आधारित है और यही वजह है, उनका काव्य पाठकों के मन को रसाप्लावित कर देता है। अपने आलेख में वह भारत भूषण अग्रवाल के कथन का उदाहरण भी देती है - ”वास्तव में सृजन प्रक्रिया एक प्रच्छन्न प्रक्रिया है। लेखक जितना ही उसके प्रति अचेत और अनभिज्ञ रहता है, उतना ही शुभ है। जीवन को देखने, समझने और फिर उसे चित्रित करने में उसकी दृष्टि यदि संपूर्ण समर्पण में है, तभी उसकी रचना गहरी और सच्ची होती है। उसमें उसकी मान्यताएं स्वयं एक सामंजस्य और संगति पा लेती है। कठिनाई तब उपस्थित होती है जब लेखक अपनी किसी मान्यता के आग्रह के कारण अपने सृजन को उससे प्रभावित करने की चेष्टा करता है। उससे वह अपने सृजन के प्रति अन्याय ही नहीं करता, वरन् अपनी मान्यताओं को व्यर्थ करता है। कदाचित इसलिए हमारे आचार्यों ने साहित्य का एक मात्र लक्ष्य उद्देश्य और प्रयोजन रस माना है। अपने जीवन के अनुभवों का रस हम अधिकाधिक मात्रा में अपने पाठकों तक पहुँचा सके तो हमारा सर्जन कर्म सार्थक है। मान्यताएं अपनी चिंता आप कर लेंगी। इसके विपरीत यदि हम अपनी रचना को इस या उस मान्यता के प्रमाण या प्रकार बनाने की ओर प्रवृत्त होंगे तो उसका रस घट जाएगा और उसी अनुपात में वह साहित्य की कसौटी पर असफल हो जाएगा।“
डॉ. पी.सी. कोकिला हलधर नाग और नागार्जुन काव्यों में भारत के ग्राम्य जीवन, वहाँ की प्रकृति और ग्रामीण बोलियों की विविध प्रवृतियों में समानता देखती है। कोकिला जी का यह तुलनात्मक अध्ययन साहित्यिक दृष्टिकोण से पूरी तरह सटीक और सही प्रतीत होता है।

19.डॉ. आरती पाठकः-
प. रवि शंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ) की साहित्य और भाषा विज्ञान की सहायक प्राध्यापक डॉ. आरती पाठक अपने आलेख ‘लोक साहित्य के संरक्षण’ में डिजिटल प्रादयौगिकी की भूमिका पर अपने विचार रखती है। इस तकनीकी युग में अल्प ज्ञात भाषाओं को लुप्त होने से बचाने के लिए डिजिटल तकनीक के प्रयोग पर बलदेती है। हलधर साहित्य पर आधारित शोधपरक आलेखां को फेसबुक, ब्लॉग, पोर्टल, वेबसाइट, गूगल, डिजिटल लाइब्रेरी, ट्वीटर, व्हाट्सअप, यू टयूब, इंस्टाग्राम इत्यादि माध्यम से जन-जन तक पहुँचकर उसे संरक्षित और सवंर्धित किया जा सकता है। इस दिशा में यूनेस्को विश्वस्तर पर लोक भाषाओं, उनकी संस्कृति और उनके साहित्य के डिजिटल संरक्षण हेतु विश्व भर में अनेक परियोजनाएं चला रहा है। अगर हलधर साहित्य को भी यूनेस्को की किसी परियोजना के तहत संरक्षित किया जाए तो संबलपुरी कौसली साहित्य का प्रचुर मात्रा में नई पीढ़ी के लिए धरोहर के रूप में सहेजा जा सकता है। वह अपने दूसरे आलेख ‘हलधरनाग के काव्य में लोक’ में उनकी कविताओं में लोक तत्व और दर्शन के समन्वय को देखने का प्रयास करती है। उदाहरण के तौर पर ‘झूठ से नरक’ कविता में मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु नरक का भय, ‘एक मुट्ठी चावल के लिए’ कविता में भूख का वर्णन, ‘मिट्टी का आदर’ कविता में विस्थापितो के लिए मिट्टी की महत्ता, ‘कुंजलपारा’ कविता में उदप्त मानवीय संबंधों और ‘हमारे गाँव का श्मशान घाट’ में अटूट सत्य मृत्यु आदि के द्वारा लोक तत्वों को उजागर किया है और साथ ही साथ भारतीय दर्शन के साथ समन्वय भी।

20.डॉ. सुनीता प्रेमयादवः-
हिंदी भाषा में अपने योगदान के लिए अनेक राष्ट्रीय और अंतर राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत औरंगाबाद (महाराष्ट्र) की रहने वाली डॉ. सुनीता प्रेमयादव प्रसिद्ध हिंदी शिक्षिका है।
अपने आलेख ‘हलधर काव्य में प्रकृति प्रेम’ में हलधर की कविताओं में प्रकृति का अनुसंधान करती है। डॉ. सुनीता यादव का मानना है कि उनकी लगभग हर कविता में पर्यावरण/प्रकृति की सुंदर झलक देखने को मिलती है। सच में, हलधर नाग न केवल प्राकृतिक सुषमा का वर्णन भी कूट-कूटकर भरा हुआ है,वरन उनकी कविताओं में प्रकृति के लगभग प्रत्येक उपादान जैसे ऋतुएं (फागुन, चैत, वैशाख), सुबह, शाम, रात, मिट्टी, नदी, फल फूल, पशु-पक्षी, सूरज, धूप, बाढ़ आदि सहजता से देखे जा सकते हैं।
‘चैत की सुबह’ कविता से मुर्गां की कुकडू़ कू, सारस की कटर काएं, बैलों की घंटी, मंदिरों की शंख ध्वनि, कबूतर की गूटरगूं, दुहती गाय, गोबर से लिखी हुई दीवारें, खनखनाती खांसी के साथ भजन, प्रभाती ताल-आंगन, उगता सूरज, भदभदाते हंस, चहकती गौरेया, कांव-कांव करता कौआ आदि का खूबसूरत वर्णन प्रकृति के प्रति उनकी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति प्रदर्शित करती है।
उसी तरह उनकी कविता ‘गर्मी’ में बदलते मौसम का वर्णन है। कुछ पंक्तियां पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैः-
चैत खत्म, वैशाख शुरू/तपने लगा सूरज/नदी नाले सूखे खड-खड/दूब लता गए मुरझा/भूमि दर्दरित, सूरज गर्मी से बहने लगी हवा ‘लू’/ जंगल में लगी आग/ किसे क्या कहूँ/
इससे मिलती-जुलती अनुभूति उनकी कविता ‘बारिश’ में भी मिलती है।
हवा के झोंकों की सरसराहट/चारों तरफ धूल के गुबार/ छतों की किनार से गिरता पानी/ बरसता मूसलधार।
कवि हलधर अपनी कविता ‘मिट्टी की महिमा’ संचारधुन में गाते है-
इस मिट्टी के पानी पवन ने गढ़ा है मेरा जीवन/ इस मिट्टी के पानी पवन में सागवान के सुंदर झार, इतने सुंदर पहाड़, झर झर झरते झरण/ इस मिट्टी के पानी पवन/
‘माँ समलेई’ कविता में भी आशामयी सुबह का वर्णन आत हैः-
उसने देखा सुबह का तारा,
खो रहा था धुधलका भीतर
धीरे-धीरे मिट रहा था तिमिर
रोशन हो रहे थे जंगल झार।
रक्ताभ सूरज देवता उदय हुए पूर्व दिग
किरणों से चमकते ऊँचे-ऊँचे कोण, सरगी के तुंग।

इस प्रकार सुनीता यादव अत्यंत ही बारीकी से हलधर साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण के तत्वों का सफलतापूर्वक अन्वेषण करती है।

21.डॉ. मैथिली प्रसाद रावः-
बैंगलुरू के जैन विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की प्रोफेसर डॉ. मैथिली प्रसाद राव ने अपने आलेख ‘हलधर नाग के काव्य में प्रकृति एवं स्व’ में कवि हलधर नाग द्वारा प्राकृतिक तत्वों के प्रति धन्यवाद और समर्पण-भाव दर्शाया है। उनके दिव्य सौंदर्य को सरल, लयात्मक भाषा में चित्रित किया है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक युग की अंधाधुंध दौड़ से उन पर होने वाले खतरे और हानि को भी व्यक्त किया गया है।
‘श्री समलेई’ महाकाव्य में कवि केंदु, हरड, आंवला, साल के पत्ते, टहनियों के दातुन आदि वन संपदा को वहाँ के लोगों के जीवन का मुख्य आधार बनाती है।
कवि ने द्वितीय सर्ग में उलट बांसी शैली का प्रयोग किया है। बाघ के आगे हिरण का नाचना, बिल्ली के आगे चूहों का नाचना, मछली बगुले को भगाए या खरगोश को देखकर कुत्तों का भागना आदि अभिव्यक्तियाँ प्रकृति के रहस्यमयी अनुभूति का संदेश देती है।
‘श्री समलेई’ कविता में प्रो. राव बाहरी और भीतरी दुनिया की हलचल को प्रस्तुत करती है। आध्यात्मिक और दार्शनिक अनुभूतियों के लिए इस संसार रूपी ताल में मगरमच्छ और सांप जैसी घातक इंद्रियों से लड़ना पड़ता है। द्वितीय सर्ग के अंत में,
उसने देखा सुबह का तारा
खो रहा था धुंधलका भीतर
धीरे-धीरे मिट रहा था तिमिर
रोशन हो रहे थे जंगल झार।

प्रातः कालीन सूर्य की किरणे जहाँ एक तरफ प्राकृतिक अंधकार मिटाती हैं और सब-कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है वहीं पर दूसरी ओर राजा के मन का अंधकार भी मिटता चला जाता है और वह ज्ञान से प्रकाशित हो जाता है।
इसी तरह ‘हमारे गांव का श्मशान घाट’ कविता में ग्रामीण एवं लोक जीवन से जुड़े तत्व भी हैं। ‘एक मुट्ठी चावल के लिए’ कविता में इन्द्रावती बांध के टूटने से परिवार वालों के बह जाने के कारण 90 वर्षीया बुढ़िया को जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है। ‘चैत की सुबह’ कविता में प्रकृति के सौंदर्य के साथ-साथ काव्यात्मकता, लयातमक्त अनुप्रास से प्रकृति के जीवित बिम्ब हमारे सक्षम प्रस्तुत होते हैं। ‘गर्मी’ कविता में प्रकृति के विपरीत स्वरूप का वर्णन ‘बारिश’ कविता में कालाहांडी मेघों की गर्जन, कींटों की चित्कार, झींगुरों की झिंकारी, मेढकों की हुलहुली आदि वाक्यांशो के द्वारा वर्षा ऋतु के संगीतमय वातावरण का लयात्मक प्रस्तुति उल्लेखनीय बन पड़ी है। ‘रंग लगे बूढ़े का अंतिम संस्कार’ कविता जीवन की विडम्बनाओं को अभिव्यक्त करती मानव के गिरगिटिया स्वभाव को प्रस्तुत करती है। ‘पशु और मनुष्य’ कविता में संवेदनहीन होते मनुष्यता का चित्रण है। ‘चेतावनी’ कविता में विदेशी कंपनियों के कारण हो रही किसानों की दुर्दशा का वर्णन है तो ‘स्वच्छ भारत’ कविता में प्रदूषण करने वाली परिस्थितयों का ब्यौरा। ‘संचार धुन में गीत’ राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत गीत है तो ‘मिट्टी का आदर’ में जन्म स्थान की मिट्टी को असली धन बताया गया है। ‘तितली’ कविता में जिस तरह छोटा-सा विषैला कीड़ा परिवर्तित होकर सुंदर तितली बन जाता है, वैसे ही ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य सबके आकर्षण का केन्द्र बनता है।‘लालटेन’ एक मिथकीय पात्र पर आधारित कविता है। जिस प्रकार ताप अधिक होने पर लालटेन टूट जाती है, वैसे ही क्रोध और अहंकार जैसे दुर्गुणों के कारण मनुष्य का भी दुर्योधन की तरह नाश हो जाता है। डॉ. राव के शब्दों में, “हलधर नाग ने एक प्रतिभागी और पर्यवेक्षक दोनों के रूप में प्रकृति की भूमिका को शामिल किया है।”

22.डॉ. के. एस. करुणालक्ष्मीः-
कर्नाटक में मैसूर के पास हुणसूर के श्री डी. देवराज अरसु सरकारी महाविद्यालय की सहायक प्राध्यापिका डॉ. करूणा लक्ष्मी के. एस. ने अपने आलेख “श्री हलधर नाग का महाकाव्य ‘श्री समलेई” में इस महाकाव्य की विशेषताएं प्रकट की है। रोचक कथानक, आलौकिक घटनाएं, प्रकृति का साहचर्य, किसी शक्ति पर अगाध विश्वास, उसकी आसफलता और उस शक्ति के प्रति निष्ठा इस महाकाव्य मेंं प्रमुख रूप से दर्शाई गई है।
‘श्री समलेई’ महाकाव्य में पहले रंगी और उसके पति का प्रणय, दोनों की अनुरक्ति, यौवन उद्धाम चंचलता, समाज की रूढ़ियों को तोड़कर प्रकृति और पुरूष की तरह एकाकार होकर उनके घर बसाने की कहानी गूंथी गई है। इसके अतिरिक्त ‘श्री समलेई’ में मंगलाचरण, पूर्व कवियों का स्मरण, धीरोदात्त नायक, भक्ति रस का उर्ध्वीकरण, आदर्श चरित्र व्यापक धरातल पर मनोभावों का चित्रण, तीज-त्यौहारों का वर्णन,अदभुत अलौकिक घटनाओं का समावेश इसे महाकाव्य की श्रेणी में रखता है। कवि का विनीत स्वभाव पाठकों के समक्ष निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत होता हैः-
“शक्ति नहीं लेखन की मुझमें
करने को महिमा बखान।
जल्दी-जल्दी सुना देता हूँ पद में
आप ही हो वाग्देवी सर्वान।।”
हुमा साम्राज्य के धीरोदत्त राजा की वीरता का वर्णन भी उनकी कलम की गार से प्रकट हुआ हैः-
“तलवार कटार, युद्ध विद्या
सभी में वह धुरंधर
घर से बाहर निकलते समय
राजा के कंधों पर
सदा तना रहता धनु-सर।”
हलधर के विचार केवल पारंपरिक ही है, ऐसी बात नहीं है, उनके विचारों में आधुनिकता का पुट भी आसानी से देखा जा सकता है। ‘श्री समलेई’ महाकाव्य का प्रमुख पात्र छालू अपनी रीढ़ की हड्डी टूटने पर अपनी पत्नी रंगी को दूसरी शादी करने की सलाह देता है। कवि की पंक्तियों में
“रंगी, सुन मेरी एक बात
दूसरे आदमी का हाथ पकड.
बसा अपना नया निकेत”
रंगी भी सती औरत की तरह एक निष्ठ भाव से अपने पति की सेवा-सुश्रुषा करती है। उसके बिना वह अपने आप को अधूरी पाती है।
“खिलाना, पिलाना, नहलाना, मलना
मल-मूत्र धोना, दवाई देना या पिलाना हो जल
माँ सम वह करती सारे जतन
मानो वह हो उसका बाल गोपाल।”
यह सत्य है कि कवि हलधर नाग ने काव्य-सिद्धांत नहीं पढ़े है, मगर उनका ‘श्री समलेई’ महाकाव्य की सारी कसौटियों पर खरा उतर रहा है। इस महाकाव्य में उन्होंने ओड़िशा के महत्वपूर्ण कवि गंगाधर को याद किया है और साथ ही साथ महाकाव्य लेखन की परिपाटी का पूर्ण रूप से पालन भी।
हलधर नाग के इस महाकाव्य में वन में चट्टानों से टकराती स्वच्छंद गति से बहती हुई निर्झरणी की सहजता है वन प्रदेश के एकांत में अपने आप विकसित हुए फूलों का अकलंक सौंदर्य है, वनवासी युवती की सहजगति है।
डॉ. करूणा लक्ष्मी के शब्दों में,
“कविता हलधर नाग के अवचेतन मन में समा गई है, कविता उनके जीवन का अंग बनी हुई है, कविता उनकी सांसों में बसी हुई है। वांग्देवी की कृपा दृष्टि उनके काव्य-प्रतिभा में सहजता से मुखरित होती है।”

अंत में, सारे आलोचकीय आलेखों के निष्कर्ष के तौर मेरे कवि मित्र अनिल दास की पंक्तियों को दोहराना चाहूँगा कि सारस्वत साधना में रत हलधर नाग कोई सामान्य पुरुष नहीं है, बल्कि युग-स्रष्टा है। उनकी चेतना सार्वभौमिक है। ऐसी पुण्यात्मा बार-बार भारत की धरती पर अवतरित होती रहें, उनके पावन स्पर्श से पूत-पवित्र होते रहें, इस धरा-पृष्ठ के मिट्टी, पानी-पवन सुवासित होते रहें।

हिन्दी जगत में इस कृति का भरपूर स्वागत होगा। इसी कामना के साथ ...

दिनेश कुमार माली
तालचेर, ओड़िशा
















कालिया से पद्मश्री हलधर तक
डॉ॰ लक्ष्मीनारायण पाणिग्रही
बाटुआ वास,घेंस, बरगद
अनुवाद :- सुदामा बारीक


कालिया से हलधर,उसके बाद कोशल कुइलि, फिर लोक कवि रत्न हलधर नाग का जीवन अनेकों उतार-चढ़ाव और संघर्षों की लंबी दास्तान है। उन्होंने अब तक जीवन के सत्तर बसंत पार कर लिए हैं।

पश्चिमी ओडिशा के साहित्य-संस्कृति-इतिहास के अधिकेन्द्र बरगढ़ के घेंस गाँव की मिट्टी से 31 मार्च 1950 को ‘कोहम’ की पुकार सबसे पहले सुनाई दी,भज-गुरूवारी के नवजात शिशु से, जहां ढाट-बाट का नामो-निशान नहीं था। वह उनकी अन्तिम संतान थी। देवानन्द, सदानन्द, शकुन्तला, श्रीमत, लादुराम उनसे पहले नाग परिवार में किलकारी मार चुके थे। उनसे भी ज्यादा ऐसी कस्तूरी की खुशबू चारों तरफ फैलेगी, उन्हें पता नहीं था। उनके माता-पिता खुशी से फूले नहीं समाए होंगे।वास्तव में कोई भी प्रतिभा चुपके से बिना किसी आडंबर से धरती पर अवतरित होती है। आधुनिक समाज इस तथ्य को बिलकुल नहीं समझ पाएगा,परन्तु अनादि काल से यह सिलसिला जारी है। कौन जानता है शेक्सपियर - कालिदास जैसे महान स्रष्टाओ के बचपन के संघर्षों की कहानी के बारे में ?
उन्हीं की तरह कालिया उर्फ हलधर नाग- लोक कवि रत्न हलधर का आविर्भाव हुआ। बचपन में ही उनके माँ-बाप गुजर गए और वे बेसहारा हो गए। तीसरी कक्षा में ही उनके विद्यार्थी जीवन का अन्त हो गया। परिवार के बाकी सारे भाई-बहन सब अपनी-अपनी रोजी-रोटी की तलाश कर रहे थे तो उन्हें कालिया की कहाँ याद आती ? इस वजह से एक छोटे-से मासूम बच्चे को खुद अपना पेट भरने के लिए होटल में जूठी प्लेट धोने का काम करने में मजबूर होना पड़ा, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उस समय में भी वे ‘कोहम’ ध्वनि को नहीं भूले थे और अपनी खानदान के बारे में यज्ञ नाग से पूछने लगे। उन्होंने हलधर नाग को उसकी खानदान के बारे में बताया,“गाईसिलेट पंचायत के बएदपाली गाँव में माल और गेली करसेल रहते थे। उनकी कोख से भज, राज और गली पैदा हुए थे। मैंने तेरे बड़े दादाजी के साथ मेरी इकलौती नातिन गुलाबती की शादी करवायीं और मैंने उन्हें घेंस में रखा। उस दिन से देवानन्द करसेल- देवानन्द नाग हो गया। तू तो उस समय पैदा ही नहीं हुआ था। उस समय बएदपाली में अकाल पड़ा। चेचक ने पूरे गाँव को अपने चपेट में ले लिया। स्थिति बहुत गंभीर हो गयी। घर-घर हाहाकार मच गया। चारों ओर मातम ही मातम। उस विपत्ति से बचने के लिए तेरे पिताजी रातों-रात तेरी इस बुआ जी के घर घेंस पैदल चले गए। उस घने अन्धेरी रात में भज की आवाज सुन कर मैं आश्चर्य चकित हो गया। सभी को मैंने घेंस में संभाल कर रखा। उसके बाद मैंने अपने ‘नाग’ उपनाम तुम्हारे परिवार को दिया। तुम सब मेरे सगे-संबंधी बन गये। मेरे घर में ही तू पैदा हुआ है। अभाव में भी मैंने तुझे भाव से पाया है।”
इन सारी बातों से “मैं कौन हूँ? -का उत्तर कवि को कितना मिला होगा,पता नहीं। अगर जीवन बचाने का डर उन्हें होता तो फिर वे उसके उत्तर की तलाश क्यों करते? बचपन से जवानी तक वे अपने आपको पहचानने की चिन्ता से मुक्त नहीं हो पाये। राख के अन्दर भभक रही चिनगारी को खंगलाने की कोशिश उन्होंने की है। इसे ही हम आत्म-मुक्ति कह सकते हैं। नयी-नयी उन्मेषशालिनी प्रज्ञा की करामत है! जवान कालिया ने मुक्ति का स्वाद चखा। सरस्वती, लक्ष्मी जी की सौतन हो सकती है, क्योंकि सरस्वती की आराधना से तो केवल एक कलाकार को हल्का बांझ यश से ज्यादा कुछ नहीं मिलता है, फिर भी कालिया कृष्ण-गुरू लोकगीत पर खजनी के सुर में तल्लीन होकर नाचने लगे। “केन्ता बाना नाई आए बार” पुकारते हुए कृष्ण गुरू को अपने हृदय से एकाकार होकर प्रार्थना करने लगे। दिव्य-प्रतिभा की अनुकंपा वहीं से झलकने लगी। अब तक कस्तूरी हिरण की नाभि में थी। लोक-कला की नींव धीरे-धीरे मजबूत होने लगी। लोक-नृत्य दण्ड नाच के ढोल की थाप पर कवि बरबस उस ओर आकर्षित होने लगे। मन ही मन सोच रहे थे कि राधा-कृष्ण-चन्द्रसेना की बातें या कथोपकथन कैसा होना चाहिए, ताकि दर्शको को कर्ण-प्रिय लगे। ढोल की थाप और उच्चारण पर उन्होंने ध्यान देना शुरू किया। गाने का मुखड़ा या भाव-भंगिमा की स्पष्ट अभिव्यक्ति हेतु उन्होंने कम मेहनत नहीं की। उसके बाद गाँव-गाँव में डडुँआ गुरू (दण्डनृत्य के गुरू) रूप में अपनी छाप छोड़ी। विद्यालय के छात्रावास में विद्यार्थियों को खाना परोसने के बाद वे दूसरे गाँवों की ओर निकल पड़ते थे,ताकि ये साबित हो कि दण्ड भाण्ड नहीं है, बल्कि लोक-कला का नया चिन्तन है। दण्ड के एक चरित्र करते हुए वे वाण्डि की साड़ी का आधा पल्लू, टेढा केश-विन्यास जैसे वेशभूषा के बीच तरह-तरह के कटाक्ष करते हुए नये-नये अभिनय दिखाने लगे। जंगलों से लकड़ियाँ संग्रह करते समय, मजदूरी करते समय, होटल में प्लैट धोते हुए तथा स्कूल के होस्टल में बच्चों को भात-दाल खिलाते समय, फिर रागचना बनाकर ढढो बरगछ (बूढे बरगद) के नीचे अपना पसरा फैलाकर छोटे बच्चों की भीड़ जुटाने में उनकी अद्भुत प्रतिभा सदैव उनके साथ छाया बनकर रही।
कुछ दिनों बाद कवि के घर में शादी की शहनाई गूंजी। ढोल बजने लगे, कुण्डा-खाई के पास पतरापाली के मामा हजारू नाग की बेटी पार्वती के साथ उनकी शादी हो गई। अठारह साल का धांगड़ा कालिया अब पत्नी की सेवा में लग गया। बाल-बच्चे नहीं हुए थे, पार्वती बीमार रहने लगी। अपनी बीमारी से परेशान होकर पार्वती खुद अपने मायके चली गई। उसके बाद कालिया के जीवन में एक नया अध्याय शुरू हुआ। धूसर बाहल गाँव के लालबिहारी पोढ की मझली बेटी मालती के साथ उनकी शादी हो गई। आनंद से लगभग चार दशक पार हो चुके है।उनकी इकलौती बेटी नन्दिनी की शादी हुए लंबा अर्सा हो चुका है।
हलधर नाग लोक-संस्कृति की खान हैं। सम्बलपुरी लोक संस्कृति डालखाई, माएलाजड, नमोगुरू, संप्रदा के साथ दण्ड-नृत्य के गीतों को संग्रह करके जितना आत्मसात किया है, उससे ज्यादा उसका विस्तार भी किया हैं।इन सभी की सृजन-प्रक्रिया से गुजरने के कारण साहित्य के क्षेत्र में आज उनकी अलग पहचान बनी हुई हैं, फिर भी अभी तक वे लोक संस्कृति से जुड़े हुए हैं। अशोक पुजाहारी के साथ ‘दुलाबिहा संस्कृति परिषद’ की स्थापना कर आज उसकी तरफ से दुला बिहा, बिंझाल बिहा जैसे प्राचीन कलाओं को भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में प्रदर्शन कर रहे हैं। गाने की नाचने की और कंठस्थ करने की वैयक्तिक कला का उनके पास अकूत संपत्ति है।अभी भी वे अपनी अभिनय कला का प्रदर्शन करते हैं। घेंस में दशहरा के अवसर पर होने वाली रामलीला में उनके लंकेश्वरी रूप को जिसने भी अपनी आँखों से देखा है, वह ही केवल उनकी कला-चातुर्य का आसानी से अंदाज लगा सकते है।
कालिया से हलधर नाग जैसे गगनचुंबी इमारत बनाने की नींव उन्होंने उच्च-विद्यालय के छात्रावास में डालीं। विद्यार्थियों को साहित्य प्रवेश पुस्तिका को जब शिक्षक पढाते थे,तब कवि एकाग्र मन से सुनते थे और मन ही मन सोचते थे, मेरी भाषा में भी इस प्रकार की कविताएं लिखी जाती तो कितना अच्छा लगता! बीज अंकुरित होने के लिए वातावरण अनुकूल बन रहा था।
उस समय उनकी भेंट शशि भूषण मिश्र शर्मा के साथ हुई। शर्माजी में प्रतिभा पहचानने की शक्ति थी। सम्बलपुरी कविता की ओर उन्हें आकृष्ट करने हेऊ शर्माजी ने धुबकुड, गुनिआ गित, माँ कह गुटे कथानी जैसे कई लेख पढ़ने को दिए। कवि की नजर स्वत: ही कपिल महापात्र, धनेश्वर महापात्र, खगेश्वर सेठ, हेमचन्द्र आचार्य जैसे विद्वान कवियों के सम्बलपुरी शब्द–भंडार की तरफ पड़ी। काव्य कल्पना को संवारने और अपनी अनुभूनियों को सशक्त करने हेतु यह अवसर उनके लिए बहुत ही स्वर्णिम साबित हुआ।
सन् 1990 में घेंस में अभिमन्यु साहित्य संसद की स्थापना हुई। डॉ. सुभाष मेहेर, उस समय कॉलेज में पढ़ने वाले अशोक पूजाहारी और मोहन साहु जैसे कई संस्कृति प्रेमी व्यक्तियों ने कालिया बाबू को कवि के रूप में साहित्य संसद के पाठोत्सव कार्यक्रम में शरीक होकर कविता पढ़ने के लिए मौका दिया।तब तक कवि ने घेंस प्राथमिक स्कूल के सामने एक चने की दुकान खोल दी थी।उस समय मैं और लेखक आमने-सामने रहा करते थे। आज भी वह दृश्य मेरी आँखों के सामने तरोताजा हो जाता है। कवि शून्य की तरफ ताकते हुए किस कल्पना-लोक की सैर कर रहे थे, उनके सामने खड़े लोग भी नहीं समझ पा रहे थे। कालिया बाबू को उस समय साहित्य का गहरा नशा चढ़ गया था और वह नशा उनके मन से अभी तक नहीं उतरा। वीणा वादिनी माता सरस्वती के आह्लाद का नशा। उस अनुभूति से अनगिनत ‘ढढो बरगछ’ नि:सृत हुए है और अभी तक हो रहे हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहेगा।कालिया नाम अब से धीरे-धीरे विलुप्त होते हुए हलधर,कवि हलधर, कोशल कुइलि और लोक कवि रत्न हलधर में परिवर्तित होता जा रहा है। उस दिन का अंकुरित वह बीज आज ‘ढढो बरगछ’ (बूढा वट वृक्ष) जैसे विशाल द्रूम बन गया है।
हलधर के कवित्व और व्यक्तित्व में कोई अन्तर नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे दोनों एक-दूसरे के संपूरक हो। लेखकीय अमानीसत्ता को बढाने के लिए उनका कवित्व उन्हें प्रोत्साहित कर रहा है। ठीक उसी तरह उनका प्रखर अनुभूत व्यक्तित्व, सात्विक सौन्दर्य से ओत-प्रोत कवित्व की कला में निखार ला रहा है। कवि बहुत ही सरल, निष्कपट तथा मिलनसार हैं। “अएसो पूला बऐंशी, बलित, एड़े सुन्दर बाजि जानसी, “राधा रमन के भी मुहि नेसी”हलधर भी कैसे नहीं मोह सकते हैं कोशल प्रेमियों को। “मुडके पगड़ी गोडके जूता, इमाने सबु खाली छुआ भुत्ती”-की तरफ कवि की नजर नहीं है। बिलकुल उन्मुक्त और उदार दिल वाले है कवि। केवल कविता की आहट से हलचल मच रही है। दो सौ से ज्यादा अनुष्ठानों ने आज तक उन्हें सम्मानित किया हैं। सैकड़ो गाँवों को कवि ने साहित्य-रस से प्लावित कर दिया है। आज सम्पूर्ण कोशल तो क्या अखिल भारत के साहित्य-संस्कृति-अनुरागी कवि हलधर से अपरिचित नहीं है। कवि ने इन बीस सालों में असंख्य सम्मान पाए। उस समय किसे पता था, एक लावारिस कालिया की चमक के बारे में।
एक जमाना था अभिमन्यु साहित्य संसद के कुछ साहित्य-प्रेमी लोग उन्हें बहला-फुसला कर कुइलि, टंढेई, छिनुआ पंचेत आदि कहानी-कविता लिखवाते थे और प्रकाशनार्थ उन्हें सम्बलपुर की ”आर्ट एण्ड आर्टिस्ट” पत्रिका को भेज देते थे। तत्कालीन संपादक संजय सुपकार, प्रहल्लाद दास धन्यवाद के पात्र है, जिन्होंने कवि को देखे बिना उनकी काव्य-प्रतिभा को सबसे पहले मान्यता देने का गौरव प्राप्त किया। सन् 1991 में उनके द्वारा दिया गया श्रेष्ठ कवि का सम्मान आज इतिहास बन गया है। समालोचक सत्य प्रकाश साहू ने ”कोशली भाषा साहित्य संस्कृति” पुस्तक में बड़े सुन्दर ढंग से इस बात का जिक्र किया है। भाषा-शैली में कवि को दिव्य-आशीर्वाद मिला है, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है,जिससे वे इस दिशा में आगे बढ़े और उनकी लेखनी ने कितनों को प्रभावित किया, अगर उसकी सूची बनाई जाए तो बहुत लंबी होगी। आज उनके सम्मानों की, मानपत्रों की गिनती नहीं की जा सकती। कोशल की मिट्टी उठकर से कटक के ‘प्रयोग’ सम्वर्धना सभा से होते हुए आज समस्त भारत की विभिन्न सभाओं में वे बहुत सम्मान पा चुके हैं। ऐसा सम्बलपुरी कोशली साहित्य के सृजक, संगठक, पृष्ठपोषक कोई नहीं होगा, जिसने कवि हलधर के साथ संपर्क नहीं साधा हो। लोक कवि रत्न आज खुद एक अनुष्ठान बन कर अपने मण्डप के नीचे सबको अपनी ओर खींच लाने में कामयाब हो पाये है। “हलधरीय हलफनामा” में नाटय- हीरा मंगलु विश्वाल सहर्ष घोषणा करते है कि मैं कवि हलधर को पाकर अत्यंत आनंदित हूँ, जैसे मानो मुझे सचमुच कोई अकूत खजाना मिल गया हो। आज तक लेखक की नजर में आए हलधरीय साहित्य के बारे में करीब 40 समालोचनाएँ भी निकल चुकी हैं। उन सभी को संकलन कर पुस्तक का रूप अगर दिया जाता तो गवेषकों को बहुत ही मददगार साबित होती।
हलधर साहित्य में गतिशील काव्यिक प्रतिभा ज्यादा देखने को मिलती है। कविता का मूल्य भी कम नहीं है। 1990 से 2005 पन्द्रह वर्षों की दीर्घ अवधि में उनकी हलधरीय शैली परिपुष्ट हुई है। धर्म, दर्शन और संस्कृति की स्थापना करने हेतु उन्होंने सम्बलपुरी शब्दों और भावों के माध्यम से सौन्दर्य का चित्रांकन किया है। अब तक उनके ग्यारह काव्य और सुरूत भाव दो कविता-संकलन प्रकाशित हुए हैं। 1992 में लिखा हुआ ”करमसानी” उनका पहला काव्य था, जो सन 2004 में प्रकाशित हुआ है। उसके बाद अछिआ(1993), सुरूत (1994), बछर (1996), महासती उर्मिला (1997), तारा-मन्दोदरी (1999), रसिया कवि (2000), शिरी समलेई (2000), भाव (2002), वीर सुन्दर साए (2003) आदि काव्य प्रकाशित हुए हैं। सन् 2000 में प्रकाशित हुए ग्रन्थावली भाग-1 में छः काव्य देखने को मिलते हैं। सुरूत, करमसानी और शिरी समलेई 2004 में फिर एक बार प्रकाशित हुए हैं। 2003 से 2008 के दौरान ‘तपचारी और गोआल तीर्थ’ प्रकाशित हुए हैं। प्रेम पहचान, ऋषि कवि गंगाधर, सन्त कवि भीम भोई, लक्ष्मी पुराण जैसी काव्य कृतियाँ पूरी हो चुकी हैं और कुछ होने की कगार पर हैं।ये सब अभी तक अप्रकाशित हैं। इसके बाद धन, स्वाधीन, इमाटिर पानी पबनें, इटा फेब्ता करमा क, महान, पहेला हेइया साफ, महिमा बाना, आमर भाषा थी नीति चलु, उषो टिके दिअ, तमे शिख सम्बलपुरी, टिकरपडा र बेसुएन जैसी अनेक कविताएं अलग-अलग पत्रिकाओं में देखने को मिलती हैं।
सामग्रिक रूप से आज तक ये हलधर का शब्द-साम्राज्य है। दरअसल, कहने का आशय यह है कि, कवि प्रतिभा का चरम विकास 2003 के अन्दर हुआ है। केवल लेखावली की गिनती की दृष्टि से नहीं बल्कि गुणात्मक वैभव के बल पर समय की सारस्वत सृष्टि ही कवि-पुरूष को काव्य-शिखर पर पहुँचा दिया है। हमारे विचार से पिछले छः साल की सृजन-कर्म में उतना विकास नहीं हो पाया, जितनी उनसे उम्मीद थी। ऐसा लगता है जैसे तेज रफ्तार आगे बढने वाली प्रतिभा फिलहाल थम गयी है। इस तथ्य को साबित करने के लिए हमें तुलनात्मक विश्लेषण करना पड़ेगा। जहाँ कवि ने राम-साहित्य आधारित काव्य लिखना शुरू किया, वहीं से काल्पनिक “बछर”, ऐतिहासिक “सुन्दर साए” आदि के अन्दर काव्य शोभा विधान के कौशल को मौका व्यर्थ न गँवा कर चित्र-कल्प,चित्र-विधान से लेकर शिल्प-संगठन तकविशाल जगत का निर्माण किया है। उन जैसे महान कवि से वर्णनाधर्मी कविताओं का सृजन देखकर निराशा होने लगती है। पहले हेइया साफ या इ माटिर पानी पबने जैसी सफल कविताएँ भी है। परन्तु हमने पहले जिस कवि को देखा है और भविष्य में जिस मुकाम पर देखना चाहते हैं-यही सोचकर हमें थोड़ा-सा दुख लगता है। इसके लिए बहुत सारी चीजें जिम्मेदार है। एक अलग ढंग से समालोचना या समीक्षा होनी चाहिए। किसी साहित्य के विकास में ये सारी चीजें बहुत जरूरी हैं- मन के अन्दर स्वतः ही तरह-तरह के सवाल पैदा होते है।
पहले की तुलना में अब उनकी कविताओं में कोसली संस्कृति की झलक ज्यादा दिखाई देती है। अब संबलपुरी लोक-कथा, रहन-सहन, चाल-चलन, रंग-ढंग, सुर-ताल, गीत-नाच आदि कवि हलधर की कविताओं की अंतर्वस्तु बन रही हैं।हलधर साहित्य में इस भाव-भावना का उत्तरण होता देखा जा रहा है, परन्तु जनता की माँग के अनुसार काव्य-रचना के लिए कवि जिस प्रकार तत्परता दिखा रहे हैं, इस वजह से उनके पथ-च्युत होने की संभावना है।
हलधर की काव्य कविता को पढने के लिए दिन ही दिन उत्साह बढता जा रहा है। असाधारण स्मरण शक्ति और अनन्य काव्य-पाठ की कला के कारण नाग कवि सारी रात श्रोताओं को नागधुनी के पास नाग की तरह खेल रहे हैं। बच्चों से बूढ़े तक, मास से क्लास तक, सब उस ध्वनि की लहर से मतवाले हो जाते हैं। मनुष्य की रसास्वादन शक्ति को बढ़ाने, सौंदर्य सचेतन इलाकों में पहुँचाने, मानवीय दृष्टि फैलाने और मिट्टी की गरमी को तपाने में हलधरीय काव्य-पाठ जितना सफल सिद्ध हुआ है, वह कल्पनातीत है। हलधर कवि को जानने सुनने वाले श्रोतागण अगर उस स्तर पर उनकी कविताओं के भाव-बोध को समझ पाते तो वे सब उनके चहते पाठक बन जाते और वस्तु केन्द्रिक जीवन जीने का असहय समय कितना सुखमय है,समझ पाते और साहित्य भी अक्षुण्ण रह पाता। पता नहीं,वह समय कब आएगा ? मगर आशा है,जरूर वह दिन आएगा।
इस आलेख में उनके काव्य-मूल्यांकन करने की चेष्टा नहीं की गयी है। कवि में काव्य-धर्मी प्रतिभा निखरने के कारण आज अनगिनत कविताएँ लिख चुके हैं, यह सत्य है कि इस वजह उन्हें कवि-पुरूष का दूसरा दर्जा मिल गया है। इस तरह उतार--चढाव से गुजराती हुई उनकी काव्य-कविताएं भविष्य में फिर से अपनी सौन्दर्यारोहण प्रक्रिया से हमें आश्चर्य-चकित करेगी, यही हमारी आशा है। सूरज उगने, फूल खिलने, झरने बहने में जो स्वाभाविक परिवेश गतिशील होता है, उसके लिए किसे प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है!वह स्वाधीन रूप से विकसित होता है। ठीक उसी तरह समय की प्रतीक्षा कर सारे दुःख, दर्द, उलझन के सांसारिक जीवन- जंजाल में पिसते हुए भी कवि के अक्षर मन ही मन सुसज्जित हों। हम उनके सामग्रिक सृजन-प्रक्रिया में से एक अक्षत पूर्ण शिल्प की कामना करेंगे।



























युग-पुरूष पद्मश्री हलधर नाग
अनिल कुमार दास
रेमजा, पॉवर स्टेशन
ब्रजराजनगर, उड़ीसा
पिन न.-768216
मोबाईल न.- 9337666978

माँ के मुख से नि:सृत ममता की भाषा, वातसल्य की भाषा, आदेश और उपदेश की भाषा होती है मातृ-भाषा। मातृ-भाषा के माध्यम से ही मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को समझने का अवसर प्राप्त करता है। वह मातृ-भाषा ही है, जिसके माध्यम से मनुष्य स्वाध्याय के लिये प्रेरित होता है, स्वयं को समाज मे स्थापित करने में सक्षम होता है। मातृ-भाषा सीखने के लिये, आत्मसात करने के लिये किसी भी किताब की जरूरत नहीं पडती। वह तो स्वतः ही हर सांस में, हर धड़कन में, मस्तिष्क के हर विचार में, हर चिंतन में विद्यमान रहती है। इसलिए यह सर्वमान्य रहा है कि आन्तरिक भावों को प्रकट करने का, स्वयं को अभिव्यक्त करने का सर्वौत्कृष्ट माध्यम है तो वह है मातृ-भाषा।
भाषा, शैली, हाव-भाव एवं वैचारिक विविधता ही भारतीय साहित्य की महानता है। भारतीय साहित्य को समृद्ध करने में जो दो समान्तराल साहित्यों का विशेष अवदान रहा हैं, पहला शिष्ट-साहित्य और दूसरा लोक-साहित्य। व्याकरण-सम्मत कुछ सुनियोजित विचारों को अभिव्यक्त करता है शिष्ट-साहित्य, जबकि लोक-साहित्य प्रतिबंधों से दूर, उन्मुक्त, संपूर्ण बंधन मुक्त एक चिर स्रोता की तरह बहता जाता है। आम जनता के चिंतन-मनन,चिंता-चेतना, व्यथा-आनंद का त्वरित प्रवाह है लोक-साहित्य। शिष्ट-साहित्य में जहाँ रटी-रटाई किताबी भाषा का व्यवहार होता है, वहाँ लोक-साहित्य में लोक मुख की कथित भाषा का ही उपयोग होता है, इसलिए लोक-साहित्य को लौकिक-साहित्य या जन-गन का साहित्य भी कहा जाता है। यह सत्य है कि राजानुग्रह, आदर-सम्मान की दृष्टि से शिष्ट-साहित्य हमेशा आगे रहा है। फिर भी, जनमत को पल्लवित करने में, विराट सामाजिक परिवर्तन को दिशा देने में लोक-साहित्य ही सबसे ज्यादा प्रभावी रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं है। हर युग में तुलसी, कबीर, हरिदास, रविदास, तुकाराम जैसे महापुरूषों का धरावतरण हुआ है और उनके द्वारा रचित लोक-साहित्य के माध्यम से एक व्यापक जन-जागरण के साथ-साथ एक नूतन सामाजिक व्यवस्था का भी गठन हुआ है। संत-परंपरा वाले इन महापुरूषो के वर्ग में अद्वितीय लोक-कवि श्री हलधर नाग जी के कृतित्व-व्यक्तित्व को एक विलक्षण प्रतिभा के रूप में स्थापित कर एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। हलधर नाग जी के जीवन पर प्रकाश डालने से पहले श्री दिनेश कुमार माली अनूदित मेरे कविता-संग्रह “सत्य और स्वप्न” की एक छोटी-सी कविता को प्रस्तुत करना समीचीन होगी।
कविता................... “मौका”
आकाश में उड़ने से क्या फायदा?
तितली से लेकर चील-कौए
पतंग से लेकर हवाई जहाज
ऐसे कि कचरा और पालीथीन के टुकड़े
सभी उड़ते हैं आकाश में
कुछ क्षण, कुछ पल की उड़ान
उसके बाद फिर मिट्टी
जहाँ से शुरू वहीं पर खत्म।

असीम आकाश को समेटने का शौक है
अतल सागर के तह तक
छूने की भूख है
अधर में खेलने का साहस है
जीवन को तलाशने का जोश है
तो, घूम आओ एक बार महाकाश
जहाँ सौंप देने पर अपने आप को
तय हो जाता है अलग कक्ष और अक्ष
मान सकते हो यदि सारे नीति-नियम
सितारों की तरह तुम भी
चिर दैदीप्यमान हो जाने की
पूरी सम्भावना है
भरपूर मौका है।

आकाश में उड़ने का शौकीन नहीं मगर महाकाश में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले अन्यतम कवि है हलधर नाग। महात्मा गांधी जी के कथनानुसार दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं:-
1॰Literate Educated:- ये लोग पढ़े-लिखे होने के साथ-साथ ज्ञानी भी होते हैं।
2.Literate Uneducated:- इस प्रकार के लोग पढ़े-लिखे शिक्षित तो होते है, परन्तु सामान्य मानवीय ज्ञान के अभाव के कारण से स्वयं संपूर्ण नहीं होते है।
3॰Illiterate Educated:- इस वर्ग के लोगों के पास शिक्षा का प्रमाण-पत्र या डिग्रियाँ तो नहीं होती हैं। फिर भी मानवीय गुणों से संपन्न, ज्ञान की गरिमा से ओत-प्रोत ये लोग समाज में एक आदर्श स्थान के अधिकारी होते हैं।
महात्मा गांधी जी के वर्गीकरण में Illiterate Educated वर्ग में आते हैं, कवि हलधर नाग।
यह सत्य है कि विश्व में पिछड़ा हुआ देश है भारत। भारत का पिछड़ा राज्य ओड़िशा और ओड़िशा का पिछड़ा हिस्सा है पश्चिम ओड़िशा। भले ही,यह आर्थिक रूप से, राजनैतिक दृष्टिकोण से, पिछड़ा हुआ है, परन्तु सांस्कृतिक एवं कलात्मक दृष्टि से अत्यंत ही संपन्न एवं परिपूर्ण है। पश्चिम ओड़िशा में सरकारी शिक्षा की भाषा है ओड़िया, किन्तु इस अंचल में प्रचलित सर्वग्रहणीय एवं सर्वादृत भाषा अगर है तो वह है- सम्बलपुरी/कोसली। इस अंचल के शिक्षित-अशिक्षित, बुद्धिजीवी– श्रमजीवी, दलित-कुलीन प्रत्येक वर्ग के लोग इस सम्बलपुरी/कोसली भाषा को अपनी मातृ-भाषा का दर्जा देते हुए इस भाषा के माध्यम से ही अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान कर रोजमर्रा के जीवन जीते है। सम्बलपुरी/कोसली भाषा साहित्य का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। पुरातन काल में कहानी, बखानी, छठा, हलांया गीत आदि भिन्न-भिन्न धाराएं मौखिक रूप में ही प्रचलित थी। यह मौखिक साहित्य ही उस समय मुख्य मनोरंजन के साथ-साथ समाज को संस्कारित करने का प्रभावी साधन था। सन 1891 में “सम्बलपुर हितैषीनी” नामक पत्रिका में प्रकाशित कवि मधुसूदन रचित “कहगो दुती मुईं कन्ता करसी गो”कविता को ही सम्बलपुरी/कोसली भाषा की पहली साहित्यिक कविता मानी जाती है। कवि मधुसूदन के बाद सत्यनारायण बोहिदार, खगेश्वर सेठ,हेम चन्द्र आचार्य, नागफुड़ी पंडा, मुरारी मिश्रा, कपिल महापात्र, नीलमाधव पाणिग्रही, मंगलचरण विश्वाल, मित्रभानु गोंतियां, विनोद पसायत, जयदेव डनसेवा, प्रफुल्ल त्रिपाठी, पूर्णचंद्र साहू आदि अनेक कवि-लेखकों ने इस भाषा में साधनारत रहते हुए अनगिनत साहित्यिक कृतियों की रचना की है। उनका यह उत्कृष्ट साहित्यिक अवदान यहाँ के लोगों के लिए प्रातः स्मरणीय है और कवि हलधर नाग का बहुचर्चित साहित्य एवं स्वतंत्र व्यक्तित्व उल्लेखनीय एवं अनुकरणीय है। हलधर नाग जी का साधारण जीवन-यापन, सरल-ईमानदार व्यक्तित्व, उच्च-कोटि साहित्य निर्माण की अनवरत धारा एवं उससे भी बढ़कर उनकी आकर्षक कविता-प्रस्तुतीकरण की शैली के कारण यहाँ का जन-मानस उन्हें अतीन्द्रिय प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का धनी मानता है।

हलधर नाग जी का बाल्य जीवन
ओड़िशा के बरगढ जिले के घेंस गाँव में सन् 1950 मार्च 31 तारीख को हलधर नाग जी का जन्म हुआ था। घेंस गाँव का एक स्वर्णिम अतीत रहा है। इसी गाँव का जमींदार माधो सिंह और उनके चार बेटे हटे, कुंजल, एैरी, बैयरी सिंह ने वीर सुरेन्द्र साय के सशस्त्र स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेते हुए बलिदान दिया था। सम्बलपुरी साहित्यिक पत्रिका “उदियाँ”के दसवें अंक में प्रकाशित हलधर नाग के एक साक्षात्कार के अनुसार माँ-बाप एवं अन्य चार भाईयों के साथ घेंस के एक झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाके में व्यतीत हो रहा था हलधर नाग जी का बाल्य-जीवन। पाँच भाईयों में से हलधर थे सबसे छोटे। घर वाले उन्हें प्यार से “कालिया” कहकर पुकारते थे। उम्र बढ़ने के साथ-साथ खाने-पीने का अभाव भी बढ़ता जा रहा था। दो बड़े भाई अपनी शादी कर घर जवाई बन कर अन्यत्र चले गए। एक भाई बीड़ी श्रमिक और दूसरा भाई आर्थिक अभाव के कारण बंधुआ मजदूर के रूप में घर से बाहर निकल गया और अब घर में रह गए, माँ-बाप और छोटा-सा हलधर।
बालक हलधर की उम्र जब दस साल हो रही थी, तभी उनके पिताजी का देहांत हो गया। बड़ी मुश्किल से माँ ने दूसरों के घरों में मजदूरी कर बालक हलधर का पालन-पोषण किया। मजदूरी के बदले में उनकी माँ को मिलता था एक ताँबी चावल और एक कटोरी पखाल। बस, उतनी कमाई के सहारे जैसे-तैसे दिन गुजार रहे थे, वे दोनों माँ और बेटा। अचानक एक दिन उनकी माँ का भी देहांत हो गया। यह कष्ट असह्य था बालक हलधर के लिए। कुछ दिनों तक भूखे-प्यासे घर में पड़े रहे। फिर गाँव के कुछ दयालु लोग उनकी सहायता के लिए आगे आए। भेड़-बकरियों का देख-भाल करना, गौ-शाला साफ करना आदि छोटे-मोटे काम के बदले में उन्हें दोनों वक्त की रोटी मिल जाती थी, किन्तु इस प्रकार की व्यवस्था स्थायी समाधान नही थी, इसलिए एक स्थायी काम की खोज में बालक हलधर भूखे-प्यासे इधर-उधर घूमने लगे। एक दिन भूख उन्हें बर्दाश्त नहीं हो पाई। गाँव के एक छोटे-से होटल के बाहर फेंके हुए बासी, गीले जूठन को लेकर खाने लगे। इस प्रकार का दुःखद दृश्य देखकर दुकानदार के मन में दया जागृत हो गई। उस दुकानदार ने बालक हलधर को अपनी दुकान में कप-प्लेट धोने के काम पर रख लिया। इस तरह कुछ दिन गुजर जाने के बाद गाँव के तत्कालीन सरपंच ने उन्हें गाँव के स्कूल में झाड़ू लगाने, बगीचे की देख-भाल करने, छात्रावास के बच्चों के लिए खाना बनाने आदि के काम पर रख लिया। बस, यहाँ से शुरू होता है उनका नया जीवन। प्रतिभाशाली विद्यार्थियों, समर्पित शिक्षक-शिक्षिकाओं, स्कूल में आगंतुक विशिष्ट व्यक्तियों के संपर्क में आकर हलधर नाग का व्यक्तित्व में काफी बदलाव आने लगा।
कलाकार हलधर
यह सत्य है कि अकाल-ग्रस्त घेंस इलाके के लोग उस समय अत्यंत अभाव और अव्यवस्था के बीच जीवन व्यतीत जीने के लिए बाध्य थे। फिर भी, संस्कृति-परंपरा को लेकर वे लोग थे अत्यंत सचेत। उस समय गाँव-गाँव में दण्ड-नृत्य, संचार, पाला, नौटंकी आदि मनोरंजन धर्मी कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता था। बचपन से ही नाच-गीत के प्रति आकर्षित हो गए, हलधर नाग। इसलिए दण्ड-नृत्य दल (जो की एक आध्यात्मिक अनुष्ठान होता है।) में वे शामिल हो गए। धीरे-धीरे एक सम्मानित दण्ड नृत्य-गुरू से उनका परिचय हो गया और तेरह गाँवों में अलग-अलग दण्ड नृत्य दल बनाने में वे सफल हो गए। दण्ड-नृत्य, नौटंकी आदि में गाए जाने वाले सारे गीत उन्हें कंठस्थ रहते थे। वह सारे गीतों को अति मधुर स्वर में प्रस्तुत करके दर्शकों का मन मोह लेते थे। हलधर नाग जो गीत गाते थे। उनमें से ज्यादातर गीत मौखिक रूप में उनके द्वारा रचित होते थे। इस कारण से कई गवेषक हलधर नाग को लोक-कवि से ज्यादा एक लोक-कलाकार कहकर संबोधित करना ज्यादा पसंद करते हैं।
कवि हलधर
स्कूल में काम करते समय बातों-बातों में छंद जोड़कर अनेक उच्च-कोटि की पंक्तियों को गाकर बच्चों का मनोरंजन करते थे हलधर। उनके अंदर छुपी हुई अद्वितीय मेधा शक्ति, प्रचंड काव्यिक प्रतिभा को पहचान कर डॉ. लक्ष्मी नारायण पाणिग्रही, डॉ. सुभाष मेहेर, अशोक पूजाहारी जैसे कुछ सज्जनों ने उन्हें कवि के रूप में प्रस्तुत करने का पूरा प्रयास किया। घेंस गाँव की “अभिमन्यु साहित्य संसद”द्वारा आयोजित वार्षिकोत्सव में हलधर नाग ने अपना पहला कविता पाठ किया था। उनकी पहली कविता उतनी प्रभावशाली रही कि उस दिन से ही वे एक कवि के रूप में विख्यात हो गए। सम्बलपुर के जाने-माने कलाकार व साहित्यिक डॉ. दवारिका नाथ नायक जी ने उन्हें सम्बलपुर बुलाया और वहाँ बड़े-बड़े विद्वानों के सामने कविता प्रस्तुत कर बहु-प्रशंसित और सम्मानित हुए। सम्बलपुर की “आर्ट एण्ड आर्टिस्ट” संस्था के मुख-पत्र में हलधर नाग की पहली कविता “ढोडो बरगछ (The Old Banyan Tree)” प्रकाशित हुई। हालांकि, कुछ शोधार्थी अभिमन्यु साहित्य संसद,घेंस के मुख-पत्र में प्रकाशित कविता “काठ गोड़ (The Wooden Leg)” को हलधर नाग जी की पहली प्रकाशित कविता मानते हैं।
यह था शुरुआती दौर- हलधर नाग के काव्यिक-महायात्रा का, फिर उनकी कलम से उतरते चले गए- अछिया, महासति उर्मिला, तारा मंदोदरी, शिरी समलेई, रसिया कवि, वीर सुरेन्द्र साय, पंजाब बाग, अग्नि, बछर, पुषपुनी, गुरू मोर पड़काचेरे, ऑमर गॉर मशान पदा, कान्जे बाहरू थिला घरू आदि असंख्य काव्य-कविताएं।
कवि धर्म का नीरव प्रचारक हलधर नाग
कथनी और करनी में तालमेल बैठाते हुए समाज-हित के लिए जीवन समर्पित करना ही एक संत कवि का असली धर्म होता है। इस दिशा में हलधर नाग के व्यक्तित्व को अनुकरणीय उदाहरण मान सकते है। न कुछ पाने का लालच-लोभ, न अभाव को लेकर कुछ क्षोभ। पुरस्कार, सम्मान आदि के प्रति न मोह-माया, न प्राप्ति-अप्राप्ति को लेकर कोई प्रतिक्रिया। अटल, निडर एक नीरव साधक बनकर भाषा, संस्कृति, साहित्य के प्रति समर्पित एक जीवंत किंवदंती है कवि हलधर। न शारीरिक क्लेश उनके सृजन का गतिरोध कर सकता है, न ही सांसारिक जंजाल उनके साहित्यिक कर्म में बाधा बन सकता है। सरल, निराडंबर जीवन-शैली की एक सुन्दर प्रति छबि। मान-अभिमानरहित, अनासक्त एक सफल कवि हलधर।

माटी प्रेमी हलधर
सम्बलपुरी साहित्यिक पत्रिका “उदियाँ” में साक्षात्कार देते हुए एक बार हलधर नाग ने निर्विकार भाव से कहा था, “आंतरिक उद्यम निरंतर जारी रखने से एक चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन सकता है और एक कप प्लेट धोने वाला साधारण आदमी पद्मश्री प्राप्त कर सकता है।”
इस निर्विकार भाव के कारण “कालिया” से “हलधर”और फिर हलधर से लोक कवि-रत्न और फिर लोक कविरत्न से पद्मश्री हलधर नाग। भूमि से लेकर ब्रह्मांड तक प्रसारित होने की अदम्य इच्छा, स्व से विश्व तक सबको अपना लेने के लिए प्रयत्नशील हलधर नाग आज साधारण से असाधारण बनने के पर्याय में उत्तीर्ण हो गए है। कीचड़ में से शतदल की तरह खिलने की मंशा रखने वाले हलधर नाग आज नगण्य से अग्रगण्य बन गए है। उपेक्षित से अपेक्षित, सामान्य से असामान्य स्तर उर्तीण करने के बाद भी हलधर नाग में अपनी माटी के प्रति बहुत लगाव है। किसी भी हालात में अपनी मातृभूमि को छोड़कर कहीं जाने के लिए राजी नहीं है। आज भी अपने घेंस गाँव में परिवार सहित रहते हैं, कवि हलधर नाग। परिवार अर्थात् पति-पत्नी और उनकी बेटी। शादी-शुदा बेटी अपने घर- संसार में खुश है। अबघर में है केवल पति-पत्नी। सरकार की तरफ से एक एकड़ जमीन एवं एक प्रधानमंत्री आवास मिला हुआ है। कलाकार भत्ता प्रतिमाह हजार रूपया मिलता है, उसे “हलधर वन विद्यालय”को दान दे देते हैं। थोड़ी-बहुत खेती से आय एवं साहित्य प्रेमियों की तरफ से जो कुछ मिल जाता है, उसमें खुशी-खुशी गुजारा कर लेते हैं पति-पत्नी। आज-कल एक डॉक्टर दंपति ने उनके घर के पास “हलधर म्यूजियम” का निर्माण करवा दिया है। प्रतिदिन अनेक साहित्य प्रेमी इस किंवदंती महापुरूष के दर्शन करने और उनके साथ कुछ समय गुजारने के हिसाब से पहुँच जाते हैं। वे कभी किसी को निराश नहीं करते, सबके साथ समय बिताते हैं, हँस-हँसकर बाते करते है।
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोए
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होए।
(संत कबीर का दोहा)
अंत में, यह कहना उचित होगा कि उपरोक्त सारस्वत वाणी को जीवन में प्रमाणित करने वाला एक संतपुरूष, अपनी जीवित अवस्था में, अपने जयंती समारोह मे शरीक होकर आयोजकों का मनोबल बढ़ाने वाले युग-पुरूष है कवि हलधर नाग। व्यक्तिगत स्तर से ऊपर उठकर सामग्रिक स्तर को प्रतिबिंबित करने का सामर्थ्य रखने वाली अम्लान ज्योति, संकीर्णता से बहुत दूर, व्यापक चिंतन-मनन और सार्वभौमिक-चेतना का एक अटूट आधार है पद्मश्री हलधर नाग। ऐसी पुण्यात्मा बार-बार इस धरा पर अवतरित होती रहें, उनके पावन स्पर्श से पूत-पवित्र होते रहें, इस धरा-पृष्ठ के मिट्टी, पानी-पवन।
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कवि हलधर नाग- भारतीय साहित्य का एक विस्मय स्वर
मूल संबलपुरी: अशोक पूजाहारी
अनुवाद :- सुदामा बारीक


कवि हलधर नाग का जन्मजात परिवेश तथा समय ने उनकी चिन्ताधारा और चेतना को पूर्ण रूप से त प्रभावित किया है। एक आदिवासी छोटे से कस्बे में सामाजिक कार्यक्रमों में कौवर में पानी देने वाले एक यादव परिवार में उनका जन्म सन 1950 में हुआ। बचपन से ही वे अपने माता-पिता को खो चुके थे। दो समय के भोजन व तन ढँकने के लिए एक वस्त्र पाने के लिए उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। बचपन से ही मूल आवश्यकता के लिए इस प्रकार समस्या उन्हें चोरी-चकोरी जैसी गलत दिशा की ओर भी ढकेल सकती थी, किन्तु हलधर जैसी पुण्य आत्माओं के लिए ह परिवेश एक दिव्य वरदान साबित हुआ। गरीबी, अभाव जैसी दुरावस्था उनके जीवन को सकारात्मक दिशा की ओर ले गई । उन्होंने अपने भीतर की अन्तर्निहित शक्तियों को सृजनशीलता का रूप दिया। हिन्दू- दर्शन के अनुसार प्रत्येक प्राणी को अपने प्रारब्ध कर्म के अनुसार फल भोगना पड़ता है।
कवि हलधर नाग के जीवन को नजदीक से अनुभव करने का सौभाग्य मिलने के कारण मैं यह कह सकता हूँ कि पूर्व जन्म के सदकर्मों का प्रतिफल उन्हें इस जन्म में प्राप्त हुआ है। विरासत में उन्हें कविता नहीं मिली। उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण ने उनके मौलिक सृजन को प्रभावित किया है। उनकी लेखनी में गवेषकों द्वारा खोजी गयी साहित्यिक विशेषताओं के प्रति सचेत हो कर उन्होंने नहीं लिखा है। आसपास के वातावरण, व्यक्ति, संस्कृति, परंपरा के साथ बचपन से अनुभूत और पुराणों से सुनी कथाओं व चरित्रों का प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। जिस किसी पृष्ठभूमि को आधार बनाकर हलधर ने जो कुछ लिखा है तो उस पर उनके वर्षां के अनुभव का दर्शन होता है। विशुद्ध सम्बलपुरी शब्दों का संयोजन कर उन्होंने अपना भाव प्रस्तुत किया है। शब्दों को सजाने में कभी उन्हें कठिनाई नहीं हुई है। भावनाओं के अनुरूप शब्द अपने आप कविता में सज जाते है।
बचपन से ही अपने क्षेत्र के लोक जीवन की धारा से कवि हलधर ओत-प्रोत है। दंड नृत्य, कृष्ण गुरू जैसे लोकनृत्य में स्वयं नृत्य कर अन्य कलाकारों को उन कलाओं की शिक्षा दी है और लेखनी भी चलायी है। पश्चिमी ओडिशा के लोक संस्कृतियों की विविधता की झलकें उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। एक पौराणिक कथा से मिलती-जुलती उनकी काल्पनिक काव्य रचना में ये देखा जा सकता है -
कत्रिआ बन्द्रीआ टाड बाहासुता
लाखचुरी सुना गुना
अठि अंग साजो पिन्धेई ने मान
रजा के काएंटा उना।
उनका साहित्य समग्र रूप से भाषा-प्रधान, भाव-प्रधान,छन्द-प्रधान और रस-प्रधान है। ‘चएतर सकाल’ कविता में भकड़ चाएँ, ढडन ढडन, घिड-घिडानु, भडगों जैसे ध्वन्यात्मक शब्द समूह को अति सुन्दर तरीके से देखने को मिलते है। इस कविता में प्रायः प्रत्येक पद में लोक संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। जैसे एक स्थान पर –

गजगजउछे सुधर्मा सभा से दिन सरग पुरे
उर्वशी, रंभा, मेनका नाचले रसरकेलिर सुरेँ।
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मेछा मलकेई गोडके हलेई जगति उपरें बसि
डालखाई पारे नाचत बएलें मूलकि मूलकि हँसि।

लौकिक हो या स्थानीय हो, भारत की महान संस्कृति में पतिव्रता होना नारी का आभूषण है। कोई पुरूष अगर किसी नारी का अंग स्पर्श करें तो वह सबसे अपनी हो जाती है। अति चमत्कारिक तरीके से कवि ने अपनी खुद की शैली में वर्णन किया है -
“माहेजी जाएत माटिर पातुल, छि नेले हेलु छिआ
छिई टूईं मते अएँठा कलान, तोर भेनेइ समिआ।”

‘बछर’ काव्य में ऋतुओं के वैचित्र्य और वैभव का चित्रण कवि हलधर नाग की एक अनन्य काव्य कुशलता का प्रमाण देता है। स्थानीय अंचल के रीति-रिवाज, परंपरा, संस्कृति, लोककला एवं लोकाचार का दर्शन उनकी कविताओं की अंतर्वस्तु किया है।
कवि हलधर ने वह पुराण उपनिषदोंका अध्ययन नहीं किया है अपितु विभिन्न ज्ञानी, महात्माओं, विद्वानों, गवेषकों के मुख से निकले अमृत वचनों का अनुसरण कर स्वयं के ज्ञान से निर्माण कर सकते हैं ‘महासती उर्मिला’, ‘तारा मन्दोदरी’, ‘अछिआ’, ‘वीर सुन्दर साए’, ‘रसिआ कवि तुलसी दास’, ‘प्रेम पहचान’ जैसे उच्च कोटि के काव्य-कृतियाँ।
किसी प्रसंग या चरित्र जब उनके हृदय को आन्दोलित करता है तब सचमुच जैसे उनका तृतीय नेत्र खुल जाता है। लगता है मानो कोई अदृश्य शक्ति उनके अन्दर समाहित हो जाती है और उनकी लेखनी को अदभुत तरीके से क्रियान्वित कर देती है। उस अदभुत शक्ति को वे कभी समलेई, कभी सरस्वती तथा कभी ज्योति के रूप में अनुभव कर कलम चलाते हैं। उनकी अनोखी स्मरण शक्ति है। जीवन भर लिखी हर कविता उनको कंठस्थ है।
कवि हलधर की एक और विशेषता है कि वे कविता के अंतिम स्वरूप के लिए रफ कार्य नहीं करते हैं, उनके मन से ही संशोधित होकर कविताएँ अन्तिम रूप लेती हैं।
अतिसाधारण और सरल ग्राम्य जीवन में रहने वाले उनके व्यक्तित्व को देखकरवहाँ के लोग उन्हें कालिआ नाम से जानते हैं,जो एक लूँगी और एक गमछा लपेटकर हलवाई की दुकान से वड़ा या पकौड़ी खरीदकर मुर्रा या बासी पखाल के साथ खाते हुए मिलेंगे घेंस बस स्टेण्ड के मछली बाजार में । यह हि नहीं, अपने आगंतुक अतिथियों के लिए मुर्गा पकाकर खिलाने के लिए मसाला पिसते मिल जाएंगें, या फिर साल में एक बार रथ यात्रा के समय अपने अपनी संतुष्टि के लिए ‘रागचना’ बनाकर बेचने मिल पाएंगें। इस कालिया नाम से विख्यात लोक कविरत्न पदमश्री डॉ. हलधर नाग से मिलने के लिए भारत के मान्यवर प्रधानमंत्री उत्सुकता व्यक्त करते हैं। जिन्हें राज्य के मान्यवर मुख्यमंत्री अपने आसन के निकट ससम्मान बिठाते हैं, जिन्हें देश के सर्वोच्च साहित्य संस्था उनकी भाषा के उत्तुंग सारस्वत प्रतिनिधि के रूप में भाषा सम्मान से विभूषित करते हैं जिनसे प्रतिक भारतीय साहित्य के लोकप्रिय कवि, शायर तथा फिल्म जगत के सर्वश्रेष्ठ दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित ‘गुलजार’ मुलाकात करना चाहते हैं।
अन्ततः उनके व्यक्तित्व एवं कवित्व के सम्बन्ध में सम्यक रूप से इतना कहा जा सकता है कि वे सम्बलपुरी कौशली भाषा के स्वाभिमान व अस्मिता के उत्तुंग शिखर हैं। एक आकर्षणीय काव्य-प्रतिभा और भारतीय साहित्य जगत के आश्चर्य हैं।


































हलधर का काव्य-चातुर्य
डॉ. द्वारिकानाथ नायक
धनुपालि,सम्बलपुर

संबलपुरी काव्य-रचना के क्षेत्र में पद्मश्री हलधर नाग का नाम अग्र-पंक्ति में सम्मान से लिया जाता है। ओड़िया साहित्य में आधुनिक युग की काव्य-धारा का अनुसरण करते हुए उन्होंने अपने अधिकांश काव्यों की रचना की है, अगर थोड़ा-बहुत अंतर है तो पद-संरचना से संबन्धित। काव्य के विभिन्न सर्गों में उल्लेखित पदों का शब्द-संयोजन प्रायः समान है, मगर गेयता उनका सबसे बड़ा लक्षण है। विषय वस्तु के संदर्भ में गंगाधरीय स्वकीयता तथा प्राच्य-प्राण हलधर के काव्य के मूल उपादान है। फिर भी, कई जगहों पर कथा-वस्तु की काल्पनिकता और जीवनी-धर्मिता हलधर के विषय-वस्तु के चयन को सबसे पृथक कर देती है। अब तक जिस काव्य-चातुरिक पारदर्शिता से कवि हलधर नाग ने अपनी रचनाएँ लिखी हैं, उनमें शब्द-संयोजन,उपमा का प्रयोग, स्वाभाविक वाक्य-विन्यास, भाषा-शैली, पात्र-वर्णन में सूक्ष्मातिसूक्ष्म निरीक्षण और प्रकृति-वर्णन में कुशलता को मुख्य आधार भाव से ग्रहण किए जा सकते हैं। हलधर रचित अछिया (अछूत), तारा-मंदोदरी, महासत्ती उर्मिला आदि रामायण वर्णित विभिन्न उप-प्रसंग तथा चरित्रायन पर आधारित काव्यों के साथ-साथ प्रेम-पहचान (कृष्ण चरित्र), रसिया कवि (तुलसी दास की जीवनी), वीर सुरेन्द्र साय की जीवनी, श्री समलेई और बच्छर काव्य, किंवदंती तथा पश्चिम ओड़िशा की सांस्कृतिक परंपरा पर आधारित महत्वपूर्ण काव्य है। पुराणों की कथा वस्तु के साथ अपनी कल्पना शक्ति का अपूर्व समन्वय कर ‘बच्छर’काव्य की रचना हुई है।
इसलिए विषय-वस्तु के चयन में स्वकीय प्रतिभा का ज्वलंत उदाहरण है बच्छर, काव्य एवं लोकमुख में प्रचलित लोक-कथा तथा किंवदंती के आधार पर ‘श्री समलेई’ और ‘रसिया कवि’ जैसे दो काव्यों की रचना उन्होंने की है। इसी तरह जीवन चरित्र मूलक भाव से संत कवि ऋषि कवि गंगाधर, वीर सुरेन्द्र साय आदि काव्यों की रचना की है। ‘अछिया’ काव्य में रामायण के ‘शबरी’’ प्रसंग का उल्लेख है। एक महाकाव्य मे एक छोटा और गौण चरित्र को लेकर पूर्णांग काव्य की रचना करना एवं उसके माध्यम से सांप्रतिक समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के उद्देश्य से चरित्र की व्याख्या कर वास्तव में कवि हलधर ने, न केवल अपने कवित्व का परिचय कराया है, बल्कि बहुत श्रेष्ठ प्रतिभाशाली कवियों में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में सफल हुए हैं – इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। ‘प्रेम पहचान’ काव्य में श्री कृष्ण के चरित्र के बहुमुखी आयामों पर दृष्टिपात किया है। इसमें यह दर्शाया गया है कि किस तरह कृष्ण विभिन्न प्रेमों के रूपों द्वारा आकर्षित हुए हैं एवं ईश्वर रूप को उपलब्ध हुए हैं। इसलिए विषय-वस्तु या कथानक के चयन में कवि हलधर अपनी चयन शक्ति का सदुपयोग करते हैं - यह कहने में कोई गलती नहीं है। उनकी सबसे बड़ी प्रतिभाशाली बात है, सम्बलपुरी शब्दों का भरपूर कलात्मक प्रयोग। यही गुण कवि हलधर की काव्य - रचना का मुख्य आयुध है, जिस वजह से उनकी रचनाऐं सुपाठ्य और सुश्राव्य है। अर्थ-बोधक शब्दों या अनेकार्थी पदों के प्रयोग ने कवि की रचनाओं को न केवल लोकप्रिय बनाया है, बल्कि उन्हें सर्वगुण संपन्न भी कर दिया है।
कवि हलधर ने तुलसी दास के लेखकीय आर्दश को स्वीकार करने से पूर्व उन्हें गुरू के रूप में स्वीकार किया है ।उनके द्वारा रचित ‘अछिया’ और ‘रसिया कवि’ दोनों काव्यों में प्रारम्भ में इसके बारे में सूचना दी है।

“ जुहार-जुहार, गुरू महाप्रभु
कवि, ओ तुलसीदास!
तुम्हारे लेखन के किस कोने से
करू मैं लिखने की आश।

स्वर्ग से झरा दो पद-छंद
जैसे झरते पेड़ो से फूल
संबलपुरी में गूँथ दूँगा
तुम्हारे फूलों की माल। (अछिया)

ठीक उसी तरह ‘रसिया कवि’ काव्य के प्रारम्भ में काव्य-गुरू तुलसी दास का स्मरण कर उनकी जीवनी पर काव्य लिखने का श्री गणेश किया है।
“गुरू गोस्वामी तुलसीदास हे!
गुरू, आप हो ज्ञान दाता
‘अछिया’ काव्य लिखने से पहले
गुरू भाव से जोड़ा नाता।

सूखी भक्ति से बनाया गुरू
बिना दिए धन संपत्ति
गौ-घृत गौ पर लेप
कर रहा हूँ गुरू-दक्षिणा समर्पित। (रसिया कवि)


ऐसे ही ‘बच्छर’ और ‘श्री समलेई’ - दोनों काव्यों के प्रारंभ में माँ समलेश्वरी का स्मरण कर अपनी काव्य-रचना शुरू की है।
स्वीकार करो मेरी प्रार्थना शक्तिरूपा
माँ समलेई सरस्वती,
अशुद्ध मेरा मन-मस्तिष्क
भ्रमित हो रहा अति (बच्छर)

ठीक उसी तरह ‘श्री समलेई’ काव्य में मूल से ही कवि माँ समलेश्वरी की वंदना कर उनका आशीर्वाद माँगते है।
“जुहार-जुहार, हे श्री समलेई
संबलपुर वासिनी
जुहार-जुहार, हे श्री समलेई
कमल-फूल आसिनी।
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शक्ति नहीं लेखन की मुझमें
करने की महिमा-बखान
जल्दी-जल्दी सुना देता हूँ पद में
आप ही हो वाग्देवी सर्वान।
(श्री समलेई)

मूल रामायण में वर्णित उर्मिला चरित्र का अध्ययन करने पर पता चलता है कि यह चरित्र वास्तव में एक अवहेलित चरित्र है। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के त्यागपूर्ण जीवन पर अधिकांश रामायण नीरव है। राम, लक्ष्मण, सीता के चौदह वर्ष वनवास भोगने के साथ-साथ उर्मिला ने राजवाटी में एकाकी रहकर पवित्र मन से चौदह वर्ष गुजारे थे। इस वजह से सही अर्थों में ‘तपस्विनी’ तो वह कहलानी चाहिए। उनके सतीपन के महत्व को पाठकों के समक्ष लाने के उद्देश्य से कवि हलधर नाग ने ‘महासती उर्मिला’ काव्य की रचना की। काव्य की शुरूआत में ही उर्मिला के चरित्र को विशिष्टता प्रदान करते हुए कवि कहते हैं :-

“अति उपेक्षित थी वह सती
सात-कांड रामायण
कवि की नजरों में उसमें है
सीता से भी ज्यादा सतीपन।

सीता, अनुसया, अहल्या, द्रोपदी
तारा, कुंती, मंदोदरी
वृंदावती, सुलोचना, सावित्री
कोई नहीं उसके बराबरी।
(महासती उर्मिला)

अपने पति भगवान राम के साथ सीता वनवास गई थी। अकेले-अकेले राजवाटी में रहते समय उर्मिला की स्मृति में न केवल लक्ष्मण आते हैं, वरन् प्रभु श्री राम और सीता समान भाव से उसके मानस-पटल पर अपने आप चले आते हैं। हर पल राम, लक्ष्मण और सीता की छबियाँ उसके मन में इस तरह छा गई हैं, जो हलधर के चित्रांकन-चातुर्य से और भी स्पष्ट हो जाती है।
उर्मिला जब अपनी देवरानी और जेठानी के साथ सरयू नदी में स्नान करने जाती है, उस समय आकाश में बादल छाए हुए होते हैं। आकाश में तैर रहे तीन बादलों की छाया नदी के स्फटिक पानी में दिखाई देने लगती हैं। यह देखकर उसे राम, लक्ष्मण और सीता के जीवंत तस्वीरें उसकी आँखों के सामने उभर आती है। नहाते समय में नदी के दूसरे किनारे से तीन ताड़ के पेड़ पानी में तैरते हुए आते हैं, उसे देखकर उर्मिला को राम, लक्ष्मण और सीता के बालों का भ्रम होने लगता है। ऐसे दृश्यों का कलात्मक वर्णन से ‘महासती उर्मिला’ के प्रत्येक पद सुसज्जित हैं, जो पाठकों को आकर्षित करने के लिए बाध्य करती है। हलधर नाग की भाषा में,
“उर्मिला, मांडवी, श्रुतिकीर्ति
देवरानी जेठानी तीनों जन
सरयू नदी पर एक साथ
स्नान कर रही थी एक दिन।

सावन महीने में बरस रही थी
रिमझिम बारिश
बड़े-बड़े बादल तीन
तैर रहे थे आकाश।

मन में करने लगी उर्मिला
अपने अतीत पर विचार
कैसे दिख रही थी वन जाते
राम-लखन-सीता की कतार।

नदी में देख रही थी धीरे-धीरे
बह रहे थे तीन ताल
राम-लखन-सीता जैसे
सिरों के काले-काले बाल। (महासती उर्मिला)

इस प्रकार के प्रतिबिंबों की सृष्टि करना कवि का कलात्मक प्रयास है। ऐसे प्रयासों में कवि हलधर नाग की पारदर्शिता उनके द्वारा रचित प्रत्येक काव्य में साफ झलकती है। ‘अछिया’ काव्य में शबरी उसके पास प्रभु श्री राम आएंगें- सोचकर उनके स्वागत-सत्कार के लिए दिन-रात एक कर देती है। मुनि आश्रम को छोड़कर सबसे पहले शबरी के भाव-शक्ति से आकर्षित होकर राम महाप्रभु उसकी तरफ भाई लक्ष्मण के साथ चले जाते हैं। चित्रकूट की सीमा स्पर्श करते ही प्रभु श्री राम और लक्ष्मण उस अंचल के प्रत्येक बालू के कणों में ‘श्री राम, श्री राम’ की ध्वनि सुनते हैं। जंगल के भीतर सारे पेड़ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, देखने पर ऐसा लगता है जैसे ‘राम-राम’ लिखा हुआ हो। यह काल्पनिक दृश्य हलधर की रचना में जीवंत हो उठा हैः-

“चित्रकूट की सीमा जैसे ही
पार किए लक्ष्मण-राम
कतारबद्ध हो कंकड़-पत्थर
कहते ‘राम-राम’।
पगडंडी के दोनों तरफ लिखा हुआ
बालू पर राम-राम
लताओं के झुरमुट भी ऐसे
जैसे लिखा हो राम-नाम। (अछिया)

प्रभु श्रीराम के दर्शन मिलते ही शबरी उनके पाँव गिरी। प्रभु ने पीठ थप-थपाकर उसे सांत्वना दी। श्री राम का स्पर्श पाते ही मानो पत्थर भी जीवित हो उठे हो। सूखे पेड़ों में अंकुर फूटने लगें। मन में अनदेखे प्रभु के रूप की कल्पना का जैसा चित्रण हुआ है, व्याकुलता के साथ उस रूप को आँखों के सामने देखकर वह भाव-विह्वल होकर भगवान के चरणों में पड़कर उनके पाँव चाटने लगी। यह दृश्य कवि हलधर की कलम से चमत्कृत भाव से वर्णित है। राम के पाँव चाटने का दृश्य को कवि नवजात बछड़े को जिस तरह गाय चाटती है, उससे तुलना की है। गाय माता ही जानती है कि नवजात बछड़े को चाटने में कितना स्वाद मिलता है, ठीक उसी तरह भाव-भक्ति से विह्वल होकर शबरी श्री राम के चरण-युगल को अपनी जीभ से चाटने लगी थी। हलधर की सृजनशील कल्पना से निःसृत यह चमत्कारिक दृश्य उनके शब्दों में,
“अपने मन में बसे राम को
अपलक निहारती हर पल
तुरंत राम के चरणों में गिर
लगी चाटने जिव्हा से पादतल।
जैसे गाय चाटती है
अपना वत्स
वही जानती है
नवजात शरीर का उत्स।

गोस्वामी तुलसी दास अपनी पत्नी रत्नावली की डाँट-फटकार से प्रभावित होकर राम-चरित मानस लिखने का संकल्प किया। कवि के चिंतन में कल्पना-शक्ति तथा सृजनशीलता किस तरह आती है - यहाँ कवि हलधर ने सुंदर पदों की रचना कर महत वाणी को लिखा है। चमगादड़ जिस तरह विभिन्न पेड़ों के फलों को अपने आहार के रूप में ग्रहण करती है और विभिन्न पेड़ो की खोखल में उच्छिष्ट के रूप में परित्याग करती है, और वहीं से बरगद और पीपल जैसे वृक्षों की उत्पत्ति होती है, परवर्ती काल में वे पेड़ महाद्रूम का रूप ले लेते हैं। कवि के शब्दों में,
“कवि जानता है या चमगादड़
खाते बारह मास फल
खाकर करते वमन
जिससें पनपता बर-पीपल।
कवि का मन पवन समान
एक पल भी नहीं स्थिर
निमिष में घूमता चौदह भवन
यमलोक से भी नहीं डर।
नींद में भी चेतना से
मृत्यु को देखता पास
अपनी आत्मा में लीन
नहीं रखता किसी से आस।”
(रसिया कवि)

गंगाधर की तरह हलधर के काव्यों में प्रकृति के कथा-विन्यास की गति समानरूप से चलती है। घेंस जैसे एक ग्रामीण परिवेश में जन्म लेकर प्रकृति की गोद में जीवन बिताने वाले कवि हलधर नाग अपनी मिट्टी की खुशबू को पूरे विश्व में फैला दिया है। अछिया, महासती उर्मिला, बच्छर, श्री समलेई, रसिया कवि आदि उनके सशक्त काव्यों के कोने-कोने में प्रकृति रानी के विभिन्न वैभवों का बहुत सुंदर तथा स्वाभाविक ढंग से चित्रण हुआ। ‘बच्छर’ काव्य में संपूर्ण भाव से छह ऋतुओं का वर्णन मुखरित हुआ है। चंद्रमा के साथ पृथ्वी का संबंध भाई-बहिन की तरह है। फिर हलधर नाग ने धरती माता के साथ समय का संबंध अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर युवक-युवती के रूप में मानवीकरण किया है। कवि की भाषा में,
“समय के साथ धरती माता का अटूट संबंध है, इसलिए मैंने जुड़वाँ बच्चे बनाकर और दोनों में कैसा साम्य होगा,समय से किस तरह छह ऋतुएं बनी - इसी कथानक को आधार बनाकर मैंने ‘बच्छर’काव्य लिखा है।”
यह है कवि का अपना वक्तव्य, जिसके आधार पर ‘बच्छर’ काव्य की सृष्टि हुई है। ‘समय’ पृथ्वी माता के साथ किस तरह छह रूपों में प्रेमासक्त हुआ है, यही ऋतुओं का वर्णन मिलता है इस काव्य में। कवि की कल्पना और किंवदंती में अपूर्व सम्मेलन देखने को मिल रहा है इस रचना में। इसमें वर्णित प्रकृति का छप्पा-छप्पा पश्चिम ओडिशा के भौगोलिक तथा पारिवेशिक स्थिति का अविरल चित्र पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है।
समय को धरती माता के साथ विवाह नहीं होने के कारण इंद्रराजा ने अपने वज्राघात से समय के छह टुकड़े कर दिए। ‘समय’के ये छह खंडो को रूप ही छह ऋतुओं के रूप में विवेचित हुए और ये छह ऋतुएं अपने-अपने समय में धरती के साथ किस तरह रतिक्रीडा में लिप्त होते है- यही ‘बच्छर’ काव्य की विषय-वस्तु है। ये छह ऋतुएं हैं:- वर्षा, शरत, हेमंत, शीत, बसंत और ग्रीष्म। इस तरह एक काल्पनिक कथा-वस्तु को आधार बनाकर छह ऋतुओं को कवि हलधर ने इस काव्य में स्थापित किया है। बारिश आ रही है, आकाश में बादल गर्जन के रूप में हुलहुली बाजा बजाकर वातावरण को कंपायमान कर रहे हैं,उस वाद्य की ताल पर विशाल उपत्यका में मयूर पूँछ हिला-हिलाकर नृत्य कर रहें है, कोयल उसके साथ ताल मिलाकर गीत गाती है, वर्षा का स्वागत करने के लिए गिरगिट बांस के शिखर पर चढकर बाट जोह रहा है, बगुले दल बनाकर आकाश में उड़ने के लिए तैयार है, जो आधे रास्ते तक बारिश को खींचकर लाने के लिए टांगी(1) पक्षी के साथ उड़ जाते हैं, मेंढक रानी हुलहुली देती है, इस तरह सौ से भी अधिक प्रतिबिम्बों से भरा हुआ यह काव्य है। वर्षा होने के साथ-साथ पृथ्वी किस तरह समय के खंडो का स्वागत करने के लिए अपने आप को सुसज्जित करती है, उसका वर्णन कवि की भाषा में,
“धरती के आँगन में जलती
जुगनू की झिकमिक जागर
बालों को अपने फूलों से सजाती
कदंब, चंपा, टगर।
जुई का गजरा मालती की केर
बेनी पर खिलते हमेशा
तरह-तरह की खुशबू बिखेरती
उसके फूलों की वेषभूषा ।
खजूर, बेर, जामुन, बर फल
डुमेर, कुसुम, ताल
वर्षा आकर इतना खिलाती
पिचक जाते गाल। (बच्छर)

वर्षा ऋतु में धरती जिस तरह हरी भरी हो जाती है,ठीक उसी तरह विभिन्न प्रकार के फूल फलों की खुशबू उसके परिवेश में फैलने लगती है।
‘रसिया कवि’ काव्य में कवि हलधर नाग आठवें सर्ग में गोदावरी नदी कूल की प्रकृति का वर्णन अभूत पूर्व किया है, जिस प्रकृति को देखकर तुलसी दास राम चरित मानस की रचना करने के लिए प्रेरित होते हैं। कवि के शब्दों में,
“मकर सक्रांति के दिन गए
कवि चित्रकूट
देख गोदावरी की नैसर्गिक छवि
मन हुआ हर्षित।
ऊँचे-नीचे, नीचे-ऊँचे जंगल झार
फलफूलों से लदे
अनेक पेड़ों की डालियों पर
लटक रहे थे मधु-छत्ते।
वृक्ष लताएं सभी गूँथे एक दूसरे से
डंगर चित्रकूट
कंधे सटाकर आलिंगबद्ध
रह रहे एक जूट।

कवि हलधर की कविता में विशेषता है किंवदंती और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों की कथावस्तु के साथ-साथ अपनी कल्पना-शक्ति का पुट शामिल करना है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण दिया जा सकता है ‘अछिया’ काव्य को लेकर। इस काव्य के अंतिम भाग में शबरी प्रभु श्री राम को उसकी इकट्ठी की गई बेरियों को खुद चखकर खिलाने के बाद मन के पश्चाताप का वर्णन किया गया है। उसका अभियोग रहता है कि ईश्वर ने उसे मनुष्य की ऐसी योनि में जन्म दिया है, जिसे मनुष्य समाज धिक्कारता है। कुत्ते से भी नीचे योनि का जन्म दिया है। लोग दूर से उससे बात करते हैं। गुरू के कथनानुसार छप्पन कोटि योनियों में मनुष्य जीवन ही श्रेष्ठ है। फिर शबरी का दूसरे लोगों के साथ मिलने-जुलने का अधिकार क्यों नहीं है? वह प्रभु राम से यह जानना चाहती है कि उसे ऐसी हीन जन्म क्यों मिला? इस तरह अछूत जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं है। यह घटना मूल रामायण में नहीं है, बल्कि इसे कहा जाएगा कवि की अपनी कल्पना का पुट। शबरी के अभियोग में रामचन्द्र जी प्रत्युत्तर में कहते हैं - आज उन्होंने भी खुद शबरी की जूठी बेरी आनंद पूर्वक खाई है। फिर वह खुद भी अछूत हो गए इसका मतलब? समसामयिक समाज में जाति-भेद का समूल उन्मूलन करने के लिए और यह स्थापित करने के लिए कि सभी मनुष्य समान हैं।
इस दिशा में जागरूकता पैदा करने के लिए कवि हलधर की यह रचना युगांतकारी और क्रांतिकारी है। अत्यंत सुंदर साधारण शब्दों में संयोजन करते हुए कवि कहते हैं :-
“अगर दुनिया कहती है तुम हो
अछूत शबरी
फिर क्यों खिलाई मुझे
अपनी झूठी बेरी।
तुम्हारे चाटने से
क्या राम नहीं हुए अपवित्र
फिर भी तुम कहती हो, अछूत शबरी
है शबरी अछूत।
अछूत शबरी का खाना खाकर
हुए अछूत राम
नाम पड़ा उस दिन से
पतित पावन राम।”
(अछिया)

श्री समलेई काव्य में काला पहाड़ के आक्रमण के साथ-साथ माँ समलेश्वरी के आर्विभाव प्रसंग को किंवदंती और इतिहास की जुगलबंदी के रूप में पेश किया है। ‘वीर सुरेन्द्र साय’ काव्य में भारत के भविष्य को लेकर सपने देखने वाले सुरेन्द्र साय सपने में स्वाधीनता संग्रामियों के रूपों का आकलन करते हैं। ऐसी विषय-वस्तु को चमत्कारिता के लिए कवि हलधर की कवि-चातुर्य कोलोकप्रियता हासिल है। ओड़िया साहित्य अब उत्तर आधुनिक युग में प्रवेश करने के समय कवि हलधर संबलपुरी भाषा में काव्यों की रचना कर उन्हें पाठकों को परोसकर लोककवि-रत्न की मान्यता पाने के साथ-साथ साहित्य-रस-प्रदान करने वाले कवि के रूप में सम्मानित और सवंर्धित हुए है, सही में जितनी आश्चर्य की बात है, उतनी ही प्रसन्नता की भी।

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‘रसिया कवि’ पर पाठकीय प्रतिक्रिया
डॉ. लक्ष्मी नारायण पाणिग्रही
सेवानिवृत्त व्याख्याता,
ओड़िया विभाग, घेंस महाविद्यालय
सम्बलपुर

संबलपुरी कविता के इतिहास में लोक कवि हलधर नाग का नाम विस्मय के साथ लिया जाता है। विगत बीस सालों में उनकी काव्यिक प्रतिभा में काफी निखार आया है। सूरूत, अछिया, बच्छर, महासती उर्मिला, श्री समलेई, तारा-मंदोदरी और रसिया कवि आदि अनके काव्यों की उन्होंने रचना की। यह कविता उनके आत्मा से निकली है। यही नहीं, जो कोई उन्हें जहाँ पर भी जिस कविता का पाठ करने के लिए अनुरोध करते हैं, वे उन्हें मुँह-जबानी सुना देते हैं। इस प्रकार बहुचर्चित प्रतिभाशाली कवि की ‘रसिया कवि’को आधार बनाकर साहित्यिक आलोचना सहजता से की जा सकती है। इस प्रसंग के माध्यम से ‘रसिया कवि’ के सामग्रिक समीक्षा के अंतर्गत हलधरी नटसत्ता के विचरण को ठहराने का उद्यम किया जा सकता है।
(1)
हलधर नाग के सभी काव्यों में अंतर्वस्तु का अनोखा शब्द-संयोजन देखने को मिलता है। उनकी कल्पना से उभरे अनेक कथानक उच्च श्रेणी की उदात्तता के अंतर्गत आते हैं। तुलसीदास की निजी जीवनी को लेकर दस सर्गों में ‘रसिया कवि’ कविता लिखी गई है। ओड़िया साहित्य में इसे चरित्र-मूलक काव्य कहा जा सकता है। इसमें कवि ने तुलसी दास के जीवन के ऐतिहासिक इतिवृत्त की रचना करने की अपेक्षा उनके महाकाव्य ‘राम चरित मानस’ को पढ़कर तथा उस पर आधारितप्रवचनों को सुनकर उसमें कल्पना के रंग पोतकर काव्यिक मूल्य-बोध को बढ़ाने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है। संबलपुरी भाषा में जीवनी-काव्य के हिसाब से हलधर-कवि-मानस का यह नूतन प्रयोग है। हमारी कविताओं के इतिहास में यह अभिनव प्रयास है। तुलसी दास ने अपने जीवन के बारे में कहीं पर कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। इसलिए कवि हलधर नाग ने रामचरित मानस घी का तुलसीदास रूपी गाय पर लेपकर ‘रसिया कवि’ गुरू को गुरू दक्षिणा देने का प्रयास किया है।
अपने जीवन का अवतरण करने के लिए महापुरूषों की जीवनधारा को अपनाना पड़ता है – Lives of great men all remind us,we can make our live sublime
हलधर नाग ने कदाकार वृत्ति से ऊपर उठकर लोगों को ‘पंचामृत’ की नीति धारण कर कवि-कलम की गार को नए रास्ते पर चलाकर दिखा दिया है। इस हेतु जीवनी साहित्य अनुकरणीय है। महान जीवन के गुण-कर्म, चिंतन-मनन और गतिविधियों पर दृष्टिपात करना स्वाभाविक है। जो पुरुषजिस विषय में महान थे, उनके बारे में पढ़ना हमेशा आकर्षित करता है।
साहित्य में यह एक प्रभावशाली मुद्दा हैः-
Meanwhile among all nations as long as the capacity for less worship endures as long as human beings desire to draw near to other souls as long as they wish vicariously to broader experience, the narrative of another’s life at first hand by himself will remain one of the most popular literary forms.
जीवनी-साहित्य और जीवनी इतिहास में फर्क है रस, रूप, आवेदन आदि सभी की दृष्टि से। इतिहास में तथ्यों की प्रमुखता होती है और जीवनी-साहित्य में कल्पनाश्रेयी जीवन के दृष्टिकोण को ज्यादा महत्व दिया जाता है। गद्य हो या पद्य, किसी भी व्यक्ति के जीवन को सरस बनाने के लिए तथ्यों के कंकाल पर कल्पना की मीनार खड़ी कर देता है। महापुरूषों के मौलिक जीवन जीने की कला की थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है।
A good biography presents a man as he lived.
इतिहासकार जीवनी-साहित्य को personalized history कहते हैं। फिर भी हलधर नाग ने आधुनिक कवि के हिसाब से तुलसीदास जीवनी काव्य को तथ्यात्मक इतिहास की ओर नहीं ले जाना चाहा- उन्हेंउपादान भी नहीं मिला “गुरू आप हो सात समुद्र/नहीं मिलता थल-कूल/ आपने किसी पन्ने पर नहीं आका/अपना छेदमूल।”
सन,तारीख, घटनाओं की जानकारी को महत्व देने पर भी इतना सुंदर जीवनी काव्य हमें देखने को नहीं मिलता है क्योंकि
“The true conception of biography therefore, as the faithful portrait of a soul in its adventures through life is very modern.”
प्राचीन जीवनी कविताओं के बारे में,
(Early biography was mainly in the form of lives of saints and heroes. The author of such story was not trying to portray an individual, he was attempting to teach a moral lesson and to give example of goodness and bravery that people might imitate.)
कवि हलधर ने यहाँ से तुलसी दास के जीवन की कथावस्तु को आधार बनाया है। उन्होंने केवल उनकी साधुता और त्याग-निष्ठा पर ही ध्यान नहीं दिया है। आधुनिक जीवनी कविता के हिसाब ‘रसिया कवि’में चमत्कारिक प्रतिबिम्ब, कल्पना की उतुंगता, मौलिक-शैली के साथ-साथ जीवन दृष्टि से अनुप्राणित करने की शक्ति का खजाना भरा हुआ है, जो संबलपुरी साहित्य में एक अलग सुपाठ्य विभाग है। हलधर ने तुलसीदास के जन्म से लेकर राम दर्शन तक की विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाते हुए नाना प्रकार के रसों की उत्पत्ति की है। शृंगार, करूण, मधुर, वीभत्स, हास्य ....... सभी रस पश्चिम ओड़िशा के लोक जीवन-परिवेश के अनुसार चित्रित कर एक काव्यिक सौंदर्य को प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं।
पाश्चात्य साहित्य में जीवनी विभाग को बहुत पहले से ही मान्यता मिल चुकी है। प्लूटॉर्क ने पहली शताब्दी में ‘जीवन माला’ लिखी थी।
ग्रीक और राम-राज्य के साधु-महात्मा, वीर पुरूषों का त्याग और साहस के किस्सों को उनमें मुख्य रूप से पेश किया गया है। फिर भी सत्रहवीं शताब्दी में उस देश में जीवनी साहित्य फलाफूला। बसउएल, सैमुअल जानसन, लिटन स्टुआर्ट, आइंस्टीन चर्चिल, अल्बर्ट बिविरिक, इवीक्यूरी, फिलिप आदि अंग्रेज साहित्यकारों ने इस साहित्य को गद्यात्मक रूप से वर्णन कर इसे कहानी साहित्य की मर्यादा देने का भरसक प्रयास किया है। हमारे प्राचीन साहित्य में पुराणों में जीवनी साहित्य की झलक देखने को मिलती है। महाकवि बाण ने हर्षचरित लिखा है। बौद्ध जातक और शिलालेखों में भी जीवनी साहित्य के अवशेष दिखाई देते हैं। मुगल साम्राज्य में यह शैली विकसित हो गई थी। अबुल फजल की “आइने अकबरी” और “अकबर नामा” इस संदर्भ में उल्लेखनीय अदाहरण है।
ओड़िया साहित्य में दिवाकर दास का “जगन्नाथ चरितामृत” पहला जीवनी साहित्य का सचेतन उद्यम है। अष्टादश शताब्दी में रामदास ने ऐसी कविता “दर्ढयता भक्तिरसामृत” लिखी थी। पचास से ज्यादा भक्तों की कहानियों का लौकिक या आलौकिक रूप से उन्होंने वर्णन किया है। परवर्ती काल में गद्यशैली में आधुनिक जीवनी-आत्म-जीवनी बहुत लिखे गए हैं। संबलपुरी गद्य में भी इसके उदाहरण देखने को मिलते हैं।
इस युग में भी ‘रसिया कवि’जैसी सुंदर जीवनी कविता के रचनाकार हलधर नाग हमारे साहित्य को नई राह दिखाने की संकल्पना कर रहे हैं, जिसकी प्रस्तुति कैसी होगी, यह देखने का विषय है। इसी शृंखला में कवि का ऐतिहासिक काव्य “सुंदर साय” प्रकाशित हुआ है, जीवनी काव्य का एक और उपहार पाठक वृंद को मिला है।
(2)
कवि हलधर ने तुलसीदास की जीवन अवस्था पर अलग-अलग दृष्टिकोणों से “रसिया कवि” की कथावस्तु को गतिशील बनाने के साथ-साथ उसमें रस संचार करने की तरफ ध्यान दिया है। हुलसी का पुत्र तुलसी, चुनिया को माँ कहने वाला तुलसी, माँग कर खाने वाला-मार खाने वाला स्वाधीन तुलसी, राम-कथा का श्रोता तुलसी, नरहरि दास का राम बोला शिष्य तुलसी, ज्ञानदाता सनातन का शिष्य तुलसी, दूबे गाँव में खेलने वाला तुलसी, जोरू का गुलाम तुलसी, राम रसिया कवि तुलसी, भक्त तुलसी और राम-दर्शन पाने में सिद्ध तुलसी- एक व्यक्ति के कोटि-कोटि रूप। सारी अवस्थाओं का चित्रण करने वाला हलधरी प्रतिभा वहाँ एक-दूसरे में गूँथ-सी गई है। फिर भी शृंगार, मधुर और करूण रस की कथा कहने में कवि की कलम बहुत तेजी से चली है। व्यक्ति की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचने में कथा-वस्तु में मनोवैज्ञानिक ढंग से इस तरह आगे बढ़ती है कि तार्किक दृष्टि से वह पूरी तरह से आबद्ध नजर आती है।
‘रसिया कवि’ की कथावस्तु के शुरूआती आवेग को शीर्ष आवेग तक पहुँचाने के लिए कवि हलधर ने तुलसी दास को राम की तरफ मोड़ने के लिए धारावाहिक योजना का निर्माण किया है। जहाँ-जहाँ तुलसी के सामने जो-जो प्रतिबंध सामने खड़े हुए हैं, उन्हें अपने मनोबल से कवि उनकी रूप-रचना और भाव-धर्म के माध्यम से दूर करते जाते हैं। यहाँ पर तुलसी बाहरी संघर्षां से आमना-सामना करते हुए नजर आते हैं। नहीं तो, काशी के सनातन महाराज से ज्ञान-चर्चा का सुयोग पाने के बाद रामबोला तुलसी का चारित्रिक परिवर्तन शुरू होता है। वह गुरू नरहरि के पास लौटेगा या अपने माँ-बाप के पास? भक्ति से ज्ञान की ओर मुड़ रही है यह अवस्था। तुलसी का ज्ञान रामभक्ति धारा को विमुख कर देता है। चुनिया दासी का अरक्षित पुत्र के नरहरि दास के राम बोला शिष्य तक हम तुलसी को एक नजरिए से देखते हैं, मगर शेष सनातन के आश्रम वाले शिष्य तुलसी का फर्क साफ नजर आता है। दार्शनिक विचारधारा की दृष्टि से पात्र की चारित्रिक गतिशीलता को रोकने के लिए हलधर ने स्वाभाविक पदक्षेप लिया है, जो कि उन्हें दूरदर्शी कवि की श्रेणी में शामिल करता है।
नरहरि को ऐसा क्या हुआ कि रामबोला को काशी के सनातन सेवाश्रम में भेजना पड़ा? रामकथा लिखने के लिए विद्यार्जन जरूरी है अथवा रामबोला को बाहरी भौतिक जगत में भेजकर उनकी भक्ति की परीक्षा करनी थी? आनुष्ठानिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी भक्त कवि बना जा सकता है। भाव रस में घुलकर धोता है। इसका प्रमाण तो कवि हलधर खुद है।
यही वजह है कि कवि ने यहाँ भी शेष-कथा के बारे में सोचकर तुलसी को काशी के सेवाश्रम से लाकर अपनी जन्मभूमि में पहुँचा दिया है। रत्ना को पाने के लिए और वहाँ से प्रबुद्ध भक्त बनने की प्ररेणा पाने के लिए नरहरि ने रामबोला को सनातन के पास भेजना जरूरी समझा। हलधर की इस अदभुत कल्पना ने कविता में कैसा रंग लाया है, कहो तो! सोचने मात्र से आश्चर्य लगने लगता है। एक साधारण कवि के लिए कई बार संभव नहीं होता है। तुलसी के लिए कवि ने धरती से आकाश तक पूरी तरह सन्नाटा पैदा कर दिया है। पूरी तरह एकाकी होने के बावजूद उसे घुमाकर असली रसिया कवि में बदलने का यह अनुभव एकदम अभिनव है।
प्रेम जीवन जीने की राह होने के साथ-साथ जुड़े रहने का माध्यम है। तुलसी-रत्ना के दैहिक प्रेम को हलधर ने इस रूप में प्रस्तुत किया है।
तुलसी उस रूप से मुक्ति नहीं पा सके थे, जबकि शारीरिक प्रेम की बजाय देहातीत ले जाने वाली प्रेमिका रत्ना का प्रयास युगों-युगों तक नारी-प्रेम के गौरव को दर्शाता रहेगा। नारी आसक्त तुलसी को राम का प्रेमी बनाने के लिए नारी का एक इशारा ही काफी होता है। इसी में कवि ने रत्ना के प्रेम की सार्थकता देखी है। माया प्रेम के अवतरण में बाधक होती है। स्त्री के प्रति काम-वासना की तरफ ले जाना ही उसका आप्राण उधम है। इससे मुक्त होकर सही रास्ते पर जाने में कोई समय नहीं लगता है। यहाँ रत्ना को समझने और समझाने की बात कवि ने लिखी है कि सच्चा प्रेम पाने के लिए शरीर भी पहली सीढ़ी बन सकता है। देह से दहातीत की यात्रा का वर्णन कवि की प्रमुख उपलब्धि है। उस सीढ़ी से उपर उठने के लिए केवल हमारी चेतना और दृढ इच्छा शक्ति का होना निहायत जरूरी है। इस कविता में कवि ने पहले रत्ना को दिखाकर तुलसी की उस इच्छाशक्ति को डूबो दिया है। रत्ना की बात उसकी ‘जोंक के मुंह में नमक छिड़कना’कितना बड़ा सफल प्रयोग बना है। जंगली कंद-मूल खाने के लिए लालायित तुलसी को अमृत-रस चखाने के लिए पत्नी रत्ना ने गुरू की भूमिका निभाई है। अब तुलसी रत्ना के सुंदर शरीर के बारे में नहीं सोचकर “तुलसी की तुम पत्नी नहीं/तुम हो गुरू भली” सोचने लगा।
रत्ना का प्रेम सार्थक हो गया। उसे कुछ भी पाना नहीं था। अपने को खोकर स्फटिक रास्ते पर अपने पति को जाने के लिए प्रेरित करने में उसे वासना से ज्यादा आनंद की अनुभूति हुई। दैहिक प्रेम वाला तुलसी-रत्ना का संबंध हमेशा के लिए मिट गया।
“जल की तेज धार जैसे
गजर कर गिरती बाहर
सारे बंधन काट तुलसी
पहुँचा खुले अंबर।”

“घर बसा रत्ना तुलसी का
बनकर दूल्हा-दुल्हन
दोनों का मिला मन
सुख से कटने लगे दिन”

और लाल चेहरे वाले तुलसी के मन में
उदय हुआ अब ज्ञान।

रत्ना के असली देहातीत रूप को देखकर अपने भीतर थाह खोजने में वह समर्थ हो गया।
कवि हलधर नाग ने पश्चिम ओड़िशा के नदी-नाले,पेड़-पौधे,जीव-जन्तु,पक्षी-पखेरू और लोक संस्कृति का गहरा अनुधान किया है। उनकी हर कविताओं में इस तरह के दृश्यों की काव्यिक शैली के उदाहरण देखने को मिलते है। ‘रसिया कवि’ में भी बहुत सारे ऐसे बिम्ब देखने को मिलते हैं, जैसे बरसात की रात में तुलसी के रत्ना के घर जाने का दृश्य चित्रकूट की प्राकृतिक सौंदर्य। ये सारे दृश्य पाठको को विभोर कर देते हैं। कवि बसंत ऋतु पर अपनी अनुभूति भी प्रस्तुत करते हैं:-
“माघ गया, आया फागुन
लगना शुरू हुई महुआ झरी
जंगली फूलों के साथ
सुवासित होती आम मंजरी।”

इस तरह भोर का वर्णन भी हलधर की मौलिकता दर्शाती है-
“निशा, उषा रानी दोनो है सौतन
पृथु राजा है जिनके पति
चार-चार पहर की पाली
दोनों के हिस्से में आती”

यहाँ कवि ने नई कल्पना की है।‘रसिया कवि’ में प्रकृति जीवन के सत्य को ठहराकर अपने जीवन को सुधारने के लिए अनेक जगहों पर उपदेश दिया है। शरद ऋतु में पिता आत्माराम तुलसी को छोड़ने के लिए राजापुर ले जाते हैं। इस समय आकाश खिलखिलाकर हँसने लगाता है। विहंग पंख खोलकर उड़ने लगते हैं, पेड़-पौधे भी उद्वेग से हँसने लगते हैं, किआ-सीरल-काशतंडी-गुदी-कांएफूल-बेना सभी हिल-हिलकर “अच्छा हुआ,अच्छा हुआ” कहने लगते हैं।
हलधरी प्रकृति झकझोर देती है। इस तरह की कारूणिक अवस्था का वर्णन करने में कवि ने प्राकृतिक सौंदर्य का सहारा क्यों लिया? यह सवाल मन में उठना स्वाभाविक है। कविता के भीतर घुसने पर पता चलता है कि कवि हलधर तुलसी को रसिया कवि बनाने जा रहे हैं। रसिया कवि बनने के लिए तुलसी दास का यह पहला मुख्य कारण है। घर-द्वार, दुनियादारी के जंजाल से मुक्त हुए बिना वह रामबोला कवि कैसे बन जाएगा? इसलिए हलधर जब विषाद का वर्णन करते हैं तो प्रकृति हँसने लगती है। वह एक शक्तिशाली कवि ने लक्ष्मण के सिवाय कुछ भी नहीं है। तुलसी के घर छोड़ने के दृश्य देखने के लिए प्रकृति आखिर हँसती क्यों है? (हँसते-हँसते डूब गया सूरज/हँसते-हँसते उदय हुआ जहन/पुत्र तुलसी का गंतव्य जान/उत्साहित उनका अंतर्मन)
इसका उत्तर दूसरे भाग में साफ दे दिया है। राजापुर मंदिर में माँ-बाप द्वारा परिव्यक्त बेसहारा तुलसी को नए जीवन की मुबारकबाद देने के लिए- रामभक्ति में स्नान कराने के लिए ही मानो प्रकृति ने पुकारा हो! सोने के रंग जैसे सुबह के सूर्य देवता साँय-साँय करती ढिंढोरा पीटने वाले पवन देवता लहर-लहर-कहर-कहर कमल फूलों का तरंगित मन तुलसी के पास जाने के लिए छटपटा रहे हैं। टिंटिया के पंखों से झरते घौंसलें के तिनके मानो कवि तुलसी के ऊपर देवताओं द्वारा पुष्प-वर्षा के तुल्य मानते हैं। गिरगिट मानो सत् सत् सत् कहते हुए तुलसी के पास साधु महात्मा के रूप में पहुँच रहे हैं।
कठौती में गंगा लाने के लिए पहले मन को चंगा करना जरूरी हैं। तुलसी के शरीर और मन को राम रस में भिगोने के लिए प्रकृति के इस अभियान के अंतर्गत कवि हलधर व्यक्ति की भक्ति-प्रतिभा को उभारने के लिए ही पहले से ही उन्हें आशीर्वचन पाने हेतु आवश्यक समझा है। सभी तुलसी को सोते हुए उठा रहे हैं। सभी दिन बच्चों को जगाने की तुलना में यह बिल्कुल भिन्न हैं। चेतना का जगाना ही कवि की निहित योजना है। यहाँ कवि जिस तुलसी को उठाने की बात कह रहें हैं, वह मनुष्य स्वाधीन होता जा रहा है। वह अपने आप को जगाने की चेष्टा कर रहा है। चुनिया तुलसी को अपनाने वाले दृश्य को अलंकारिक रूप से प्रस्तुत किया हैः-
“चुबकीय आकर्षण से जैसे
खींचा जाता है लोहा
रोशनी देखते आकर्षित होते जैसे
पतंगा अकूहा।
भँवर मार यांत्र से जैसे
भँवर जाता लटक
वैसे ही तुलसीदास से
चुनिया दासी गई चिपक।”

इन्ही उपमाओं के द्वारा चुनिया का मातृत्व तुलसी के लिए छलक पड़ता है- कितना जीवंत चित्रण बन पड़ा है!

(3)
‘रसिया कवि ‘ की अलंकार-योजना के इस क्षेत्र में सामाजिक जीवन के सौंदर्य का आधार बनी हैं। उपमा का प्रयोग करने में हलधर बाबू की कोई सानी नहीं हैं। रूप के भीतर अरूप और अरूप के भीतर रूप दिखाने का उन्होंने प्रयास किया है। गाँव-गलियों के परिवेश से उपमाओं को छीन कर लाने के कारण उनकी कविताओं की पंक्तियाँ बहुत स्फूर्त लगती है। राम-कथा का सुयोग मिलते समय तुलसी की अवस्था कैसे होती है, देखिएः
“बैल को जैसे मिलता महुआ
भैंस को मिलती जोंक
काँख में पलती जुएं
तालाब को देखता बक।”

सरयू-घाघरा की धाराओं में जब तुलसी बहता हुआ जाता है तो कवि की धारावाहिक उपमाओं की स्वाभाविकता पर ध्यान दीजिए।

1॰तिनके की तरह बहाकर उसे
ले गया तेज जल-प्रवाह
बहता जा रहा उफनती लहरों में
सूखे पत्तों की तरह

2॰चाँद जैसे बादलों में
कहीं छिपता,कहीं दिखता
हाल वैसा तुलसी का
कहीं डूबता,कहीं तैरता।

जल के तेज प्रवाह मनुष्य को पत्ते की तरह बहा ले जाता हैं। उसी तरह चाँद बादलों में जैसे कहीं छिप जाता है तो कहीं दिखने लगता है,उसी तरह तुलसी तैरते हुए पानी पी-पीकर कहीं डुबकी मार रहा है तो कहीं बाहर निकल रहा है। तुलसी के डूबने और बाहर निकलने के दृश्य का कवि ने कितनी सुंदरता से वर्णन किया है, इसी से अनुमान किया जा सकता है। समान गुण धर्म वाली दो वस्तुओं में समानता दिखाने वाली हलधर की उपमाओं को प्रयोग पूरी तरह सफल है।
रत्ना के प्रेम को स्मरण कर तुलसी की अवस्था का चित्रांकन करते समय कवि ने विभावना अलंकार का प्रयोग किया है।
“बिन गर्मी के खौलने लगा
उसका तन
बिना किसी घाव के पूरे शरीर से
टपकने लगा खून।

बिना काटे कलेजा उसका
हो गया अंश-अंश
बिना नशा किए उसकी
स्मृति हुई भ्रंश।”

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‘विदग्ध चिंतामणि’का पद “अनल नूहल देह दहल-------” पद की तुलना में ये पंक्तियाँ कोई कम नहीं है।
तुलसी दास की अवस्था को पाठकों के सामने साफ-सुथरे रूप में प्रस्तुत करने के लिए कवि ने जिन साधारण सत्यमूलक उपमाओं का चयन किया है, वे जितनी शिक्षणीय हैं उतनी ही काव्यिक भी। उदाहरण के तौर परः-
1॰कँअली हँसे जिइवा केंता, नाई हेले गछे भीडि
2॰पाएन जेनता फूटकेई जैसी कँपतली पडिगले।
साँसारिक सत्यों के भीतर परख कर कवि ने महत्वपूर्ण पंक्तियाँ लिखी हैं। हमारे साहित्य में वे पंक्तियाँ आप्त वचन होकर अवश्य रहेंगी। ऐसी कई पंक्तियाँ हैं जैसेः-
1॰सतर सूचक देखिब जेनन बेशक सेठाने जय
मंगल सूचक देखिब बरसा, ज्ञानी सूचक लय
2॰जँचेई देलेभी मदुआके लागे अमरूत विस पिता
कँचा मूरूख के जेनता कि पिता लागे भगवत-गीता।
3॰तार सूखे हेसी बरसा पाएव नाई हुए बरसेई
4॰भाड़ जेन ठाने विछा हेऊथाए गदा सहस्र कुआ
लाख लाख चाँटी धार धरसन गुरू जेन ठाने थुआ
5॰उपर देखन चिकनचाकन भीतर खाएसि सुरि।
तुकबंदी वाले छंद कविता रचना की प्ररेणा में कई जगह आश्चर्यचकित कर देती है। कवि की प्रतिभा होने पर जगह-जगह वे शब्द खोजते हुए नजर आते हैं। कवि हलधर की ‘रसिया कवि’ में जगह-जगह यह असुविधा सामने आती है। पद से पद मिलाने के खातिर वह बाध्य होकर “जे”शब्द जगह-जगह जोड़ते हुए नजर आते हैं।
(सतगुन के जे आँ करि जे थिला दाँत, मागि खाएवाजे भीक, जानले जे रजा, पाएन जे ताल ताल, सानति देवी जे, छाने छानके जे गुरू जे बएले राम नउमी जे, आसने जे मोर ठाने, एकसकँटे जे हेले जे अजेई आत्माराम जे अंधार जे घुट घुट जुकिआ माने जे खूरेई करि जे आसरा करि जे मागि खिआके जे, खुडमुडेई जे इत्यादि)
मगर जिस प्रवाह में वे कहते जाते हैं प्रतिभा हो या प्ररेणा या आवेग बहाता चला जाता है वहाँ कवि की पंक्तियाँ रक्त-माँस को भेदती जाती है।अपने इलाके के इतिहास, पुरान, किंवदंती लोकोक्तियों को आधार बनाकर कवि ने ‘रसिया कवि’ में अनेक सुंदर उपमाऐं जोड़ी हैं। पश्चिम ओडिशा के लोक जीवन के प्रवाद-प्रवचनों को कवि ने सारस्वत मर्यादा देने के लिए महत्वपूर्ण काम किया है। इससे सौंदर्य की तरंगें उठती हैं। ऐसे कई उदाहरण है जैसेः-
1॰कुंभकरन नाक घरड़ा
2॰नंदराजा धरेँ कुसनकँर बढवार
3॰जगत र माआ दुर्गा हेइछन साहा
4॰जदु व ऊँसर कादंबरी पिआ
5॰वासुदेव लागी थिला गोपपुर
6॰पाँच मुहँ नारायण सरवजान भुशुंड
7॰ गति मुक्तिर बाट पाइथिवार बुद्ध
8॰वार स बढेइर जीवन या बिसूर पुअ बड
9॰फूई बराबर पहँरिवार
10॰गहेँरा लेखे लटकिवार
11॰दिनकेँ पतरे लेखेँ बढवार
12॰पुरखा के पिंड दिआ
13॰वेंग कहूथिला वेंगटि पूरथि
14॰जगाला गछ बूंदके छेदवार
15॰बएठारे तल अंधार
16॰मूढि असाडर गुलगुली
17॰गायर घिए के गाए दिहेँलिया
18॰अमृत खूरेई कूलिहा कंदा केमन
19॰मूरख के लागी पिता भगवत गीता
20॰कहिला कथा बुहिला पाएन
21॰मदुआ के अमरूत पिता
22॰आँखिर बालेँ मी टक नाहीं टले।
‘रसिया कवि’में मिथक हो या प्रतीक, उनका चुंबकीय प्रयोग कविता में चमत्कार पैदा करता है। संबलपुरी छंदो पर आधारित संबलपुरी कविताओं में लोक-संगीत के उपादान प्रायः मिलते हैं। विशेषण, क्रिया-विशेषण,अनुनासिक और चंद्रबिंदुओं के उच्चारण द्वारा कविता का लालित्य पैदा होता है। छांदसिक माधुर्य को बढ़ाने के लिए ध्वनि की पुनरोक्ति के साथ-साथ अनुकरण वाला पद जोड़ने की शैली कविता को विशिष्टता प्रदान करती है। लोक कवि हलधर की सारी कविताओं में उनका जितना सुंदर और सफल प्रयोग हुआ है ऐसा और किसी कवि की कविताओं में देखने को नहीं मिलता है। ‘रसिया कवि’ की रसधारा को निचोड़ने के लिए सभी पृष्ठों में थोड़ा बहुत प्रयोग देखने को मिलता है, जिसके अनेक उदाहरण हैं। जैसेः-
उच छूँच कूँच कूँच,टप टप टपके,डब डब डपके,बँक मादूर गजगज,मन बलें बलवान,रंगला बसला,नाचला डेगला,हिनती विनती,इ कान से कान,हरूँ हरदम,सूखें भूखें,उपर देखन चिकन चाकन,भडंगे भडंगो,टुरू बुरू,ठान ठिकाना,लहँरे लहरी कहँरे कहरी, रग बग,धूरर घूटूर घूट,सन नन नन सन सनालेन,मसों मसो किए मसकूछे पान,हुका पिई पिई खाँसूछन खूँऊ खूऊँ,छन छन कअँली मन,खल खल पाएन,सूने घूमे डाकले-हाकले,उधलि उधलि कएँकूल टूली,जँक टूणे नून
बाप नूहे पाप,कनिआँ-गाँ,रतना-नाँ,दुलूलुलू लूलू, दललललल, रड रड रेड ।

लोक कवि हलधर अभी तक कान की कविता लिखते आ रहें हैं। उनकी कविता कानों के भीतर घुसकर मर्म पैदा करती है और प्राण दोहन करती है। कवि की कविता की पंक्तियों में जो ध्वनिगत मूर्च्छना है, जिससे पाठक और श्रोता गोपी बनकर रह जाते है। छाँट-छाँट कर शब्दों के प्रयोग तथा समेट-समेट कर कम शब्दों के प्रयोग से कविता में रूप-लावण्य उतारने का उनका प्रयास और संवेदना का मिश्रण रहता है वे उन्हें हमारी कविता के इतिहास में अमर रखेगी।
ओड़िया भागवत की भाषा-शैली में हलधर कविता के भाषा के निरोल संबलपुरी शब्द खचाखच भरें हुए हैं। भाव और भाषा का पांडित्य दिखाने के लिए वे शब्द कहीं पर भी कृत्रिम नहीं लग रहे हैं। कविता को लेकर खेल खेलने वाले कवि नहीं हैं। उनकी कविता में बौद्धिक परीक्षा नहीं होती है। वे केवल अपने अनुभवों को घिस माँजकर गाते जाते है। इसी करण से उनको दूर से देखने वाले पाठक ‘आशुकवि’ कहने की भूल करते हैं। मगर हलधर अन्तभौतिक चिरंतन भाव की तरफ ले जाने के लिए कविता में कम आंतरिकता नहीं रखते है।
(4)
‘राम चरित मानस’ लिखने के लिए तुलसी दास ने अपने आठों अंगो को राम रस से ओत-प्रोत कर दिया था। उनके कवित्व में वहीं व्यक्तित्व उतर गया। इसी कारण उनका काव्य कालजयी है। हलधर कवि की सूचना में हम कवि और कविता को एक ही पंक्ति में जोड़ने की चेतना देख सकते हैं। समाज, जीवन और धर्म के साथ संगीत अंगीकार नहीं होता है तो उस कवि की कविता जीवित नहीं रह पाएगी। तुलसी दास और ‘राम चरित मानस’ को अभिन्न मानकर देखने की प्रक्रिया ने हलधर कवि को चेताया है। चेतना को प्रताड़ना मानकर कई बार अनेक लेखनों से सामाजिक उदाहरण मिल जाते हैं, जबकि समय अवश्य उनकी परीक्षा करेगा। कवि होने के लिए जिस साधना की आवश्यकता होती है, वह तुलसी दास के माध्यम से चरितार्थ होने के साथ-साथ कवि के लक्षणों की भी ‘रसिया कवि’ चमत्कारिक विश्लेषण हुआ है, जिससे कविता की भिन्न मर्यादा स्थापित होती है। जिसकी आलोचना से पाठक और कवि इतने उपकृत नहीं हो पाएंगे, यही सोचकर यहाँ ‘कवि अष्टक’ न देकर आठ पदों में कवि ने अपनी बात रखी हैः-
1॰कवि जानता है या चमगादड़, खाते बारह मास फल
खाकर करते वमन, जिससे पनपता बर पीपल।

2॰ कवि का मन पवन समान, एक पल भी नहीं स्थिर
निमिष में घूमता चौदह भुवन, यमलोक में भी नहीं डर।

3॰ नींद में भी चेतना से, मृत्यु को देखता पास
अपनी आत्मा में लीन, नहीं रखता किसी से आस।

4॰ लक्ष्मी के प्रति न मोह, न ही इच्छा,सुख-संपत्ति
न हीं जीभ के लोलुप, न हीं स्वादिष्ट भोजन की आसक्ति ।

5॰जिस दिन जो मिलता वह खाता, जीवन की खातिर
नही करता कभी दिखावा, लाज लज्जा त्यागकर।

6॰ गोचर-अगोचर जीव-जन्तु, पेड खूँट दीवार चबूतरा
कवि करता खुलेमन की बात, पहचान सबका चेहरा ।

7॰ कवि का मन करे तो सात समंदर, क्षण में आता तैरकर
मरूभूमि को सुवासित करता, सुगंधित फूलों को खिलाकर।

8॰ जैसे दही को बिलोने से, निथरती घी की धार
वैसे ही कवि असत से सत, बिलोता अपने कलम की गार ।

प्रायः कवियों के प्रतिभा-चक्र में आरंभ विकास और परिणति होती है। वे अपने जीवन में उन्हें अपनी काव्य-शक्ति से समायोजित करते हैं। पाठक भी इसे समझ सकते हैं। जो भी हो, हलधर का साहित्य शुरू से आज तक, एक ही धारा में चल रहा है। चेतना जैसी थी, वैसे ही है। प्रकाश क्षमता में कोई परिवर्तन नहीं है। हलधर बाबू अपने खुले जीवन-दर्शन को पश्चिम ओड़िशा के परिवेश में ठोए हुए चल रहे हैं।पुराण, इतिहास और कल्पना को छाँट-माँजकर अपने शब्द उड़ेलने में वह पारंगत हो गए हैं। यह मानने के लिए उनकी कविताओं में बड़े-बड़े तत्व या ‘इज्म’ नहीं होने पर भी हम अपने आप को देख सकते हैं। स्वभाव-सौंदर्य पर्यवेक्षण देखकर भाव-मग्न हो सकते हैं।
हलधर कवि की छोटी पूर्ति है। उनकी भाव-सौदागिरी जीवन के हाथ पहुँच की दूरी तक है इसी वजह से अच्छे तरीके से अलग-अलग ढंग से नाप तौल कर सकते हैं, उसके भीतर अपने को और अपने भीतर उसको मिलाकर एकजुट कर लिया है। यही कारण है कि उनकी रगों में, कलम की गार में कविता उतरी है।
तुलसी ने संस्कृत में रामायण होने के कारण अवधी में लिखकर अपनी मात्र भाषा के प्रति जो प्रेम दर्शाया है और रस रसिया ‘राम चरित मानस’ को युगांतकारी बना दिया है, वैसे ही हलधर के संबलपुरी भाषा प्रेम उतरी कविता ‘रसिया कवि’ हृदय के भीतर शब्द-कोष को वहन करने का आवेदन पूरी तरह फैल चुका है।
“कहेला बुलिधिँ लेखलेँ पढलेँ केनता अयन’- यह केवल तुलसी दास की जीवनी नहीं है। हलधर बाबू के पेट की कहानी है। संबलपुरी भाषा में वे इस तरफ इशारा कर रहे हैं।

संदर्भ ग्रंथः-
1 लोक कवि हलधर ग्रंथावली (प्रथम भाग)
2 इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटिनिका Vol. I 1946
3 द वर्ल्ड स ऐसेंसियल नॉलेज Vol. IV 1929
4 द अमेरिकन एजुकेटर इन साक्लोपीडिया Vol. II 1970































हलधर नाग के ‘अछिया’(अछूत) महाकाव्य की पड़ताल

सुरभि गडनायक
अनुवादिका,लिंगराज क्षेत्र
तालचेर,एमसीएल


संस्कृत भाषा में महाकाव्यों की रचना के साथ ही समीक्षकों का ध्यान काव्य-लक्षणों की तरफ गया। भामह ने ‘काव्य-अलंकार ‘ में , दण्डी ने ‘काव्यादर्श’ और ‘अग्निपुराण’ में और आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्य-दर्पण’ में महाकाव्य के लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। ‘साहित्य- दर्पण’ में प्राप्त महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं:-
1. यह सर्गों में विभक्त होता है।
2. इसका नायक देवता, कुलीन क्षत्रिय या वंशज कुलीन अनेक राजा होते हैं।
3. शृंगार वीर रस और शांत रस में से कोई एक प्रधान रस होता है और अन्य उसके सहायक।
4. इसमें सभी नाटकीय संधियाँ होती है।
5. इसका कथन ऐतिहासिक होता है या किसी सज्जन व्यक्ति से संबद्ध।
6. इसमे चतुर्वर्ग-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन होता है और उनमें से किसी एक फल प्राप्ति का वर्णन होता हैं।
7. प्रारंभ में देवादि को नमस्कार, आशीर्वाद या वस्तु निर्देश होता है।
8. प्रत्येक सर्ग में छंद वाले पद्य होते हैं, किंतु अंत में छंद परिवर्तन हो जाता है।
9. इसमें आठ से अधिक सर्ग होते हैं, जो न बहुत छोटे और न बड़े होते हैं।
10. कहीं विभिन्न छंदों वाले सर्ग भी होते हैं।
11. सर्ग के अंत में भावी कथा का संकेत होता है।
12. इसमें संध्या, सूर्य, चंद्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रात, मध्याह्न, मृगया, शैल, ऋतु, वन, सागर, युद्ध, प्रस्थान, विवाह, मंत्र, पुत्र, उदय, आदि का वर्णन होता है।
13. ग्रंथ का नाम, कवि, कथानक, नायक या प्रतिनायक के नाम पर रखा जाता है।
14. सर्गों का नाम वर्णित कथा के आधार पर होता है।

ऐसी ही कुछ परिभाषाएं पाश्चात्य विद्वानों की भी है।
फ्रेंच विद्वान लीत्सु के अनुसार - “महाकाव्य प्राचीन घटनाओं का छन्दोबद्ध रूपक है।”
लार्ड केम्पस के अनुसार - “महाकाव्य वीरतापूर्ण कार्यों का उदात्त शैली में वर्णन है।”
हॉब्स के अनुसार “कविता को ही महाकाव्य कहते हैं।”

सुप्रसिद्ध समालोचक बावरा के अनुसार “सर्व सम्मति से महाकाव्य वह कथात्मक रूप है जिसका आकार वृहद होता है, जिसमें महत्वपूर्ण एवं गरिमापूर्ण घटनाओं का वर्णन होता है और जिसमें कुछ चरित्रों का क्रियाशील जीवन कथा होती है, उसे पढ़ने के पश्चात् विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त होता है।”

आरिस्टाटिल के मतानुसार महाकाव्य का आकार इतना होना चाहिए, जो एक दिन में पढ़ा जा सके, जबकि एक विद्वान का कथन है कि महाकाव्य में केवल एक वर्ष की घटनाएं होनी चाहिए।
प्रो. डिक्सन के अनुसार ‘राष्ट्रीय कविता ही सच्चा महाकाव्य सिद्ध होती है।’

पाश्चात्य दृष्टिकोण से महाकाव्य के प्रधान दो भेद होते है - विकसित महाकाव्य और अलंकृत महाकाव्य। विकसित महाकाव्य वह है, जो अनेक शताब्दियों से अनेक हाथों से संशोधित, संपादित, परिवर्द्धित एवं संस्कृत
होता हुआ अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सका है। उसका आधार प्राचीन गाथाएं होती है। अलंकृत महाकाव्य वह है जिसमें एक ही व्यक्ति का काव्य-कौशल दर्शित है।विकसित महाकाव्यों में इलियड तथा ओडेसी और महाभारत और अलंकृत महाकाव्यों में रामायण को उद्धृत किया जा सकता है।

हलधर नाग के ‘अछूत’ महाकाव्य की पड़तालः-

1. यह सर्गों में विभक्त नहीं है। एक ही सर्ग है,मगर शुरू-शुरू कवि ने अपने गुरू तुलसीदास के प्रति धन्यवाद अवश्य ज्ञापित किया है,जो महाकाव्यों के लिए एक अनिवार्य शर्त मानी जाती है।
2. इसका नायक न तो कोई राजा है और न ही कोई क्षत्रिय कुलीन। इसका नायक तो एक नारी है, वह भी अछूत नारी। इस दृष्टि से देखा जाए तो इसे महाकाव्य नहीं मानना चाहिए, मगर समय के विकास के साथ-साथ जिस तरह कहानियों और उपन्यासों के मुख्य पात्र राजा-महाराजा या कोई धनी-कुलीन व्यक्ति से हटकर साधारण जनता का प्रतिनिधि बनना शुरू हुआ। जैसे, मुल्कराज आनंद के उपन्यास ‘अनटचेबल’ में बक्खा एक हरिजन युवक को तो प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ में साधारण किसान ‘होरी’ स्थान ले सकता है तो क्या हलधर नाग के महाकाव्य में त्रेताकालीन अछूत नारी ‘शबरी’ क्यों नहीं स्थान पा सकती है? जब प्रेमचंद और मुल्कराज आनंद की कृतियाँ कालजयी सिद्ध हो सकती है तो हलधर नाग की यह व्य-कृति भी कालजयी होने की कसौटी पर खरी उतरती है।
3. इस काव्य में न कोई शृंगार रस है, न कोई वीर रस अथवा शांत रस। इस काव्य में तो सिर्फ भक्ति-रस कह सकते हैं या फिर करूण-रस।
4. इसका कथन ऐतिहासिक नहीं है। जब रामायण के सभी पात्रों को मिथकीय गिना जाता है तो शबरी भी एक काल्पनिक मिथकीय पात्रों के श्रेणी में मानी जाएगी।
5. इस कविता में जगह-जगह पर मोक्ष प्राप्ति का वर्णन अवश्य है। चार पुरूषार्थों में से वह एक मुख्य पुरूषार्थ भी है। कवि के शब्दों में
“तुझे शबरी जीवित रहना होगा
पाने को असल धन
कहता हूँ आज इस देह में तुझे
राम देंगे दर्शन।”
शबरी बोली, “बताओ, गुरू!
कौन है वह राम?”
गुरू ने कहा, “चौदह भुजन का
कर्त्ता-धर्त्ता है राम।”
उपरोक्त पंक्तियों से यह अवश्य सिद्ध होता है जीवन का असल धन यानि असल पुरूषार्थ भगवान प्राप्ति है, जो मोक्ष का द्योतक है।

6. प्रत्येक पद छंद ताल, राग-युक्त है। पढ़ते समय ध्वनि के माधुर्य से आनंद की अनुभूति होती है।
7. प्रकृति के उपादानों का भी कई जगह वर्णन कवि ने किया है जैसेः-

(क) सुबह का तारा उदय होते ही
देने लगा बांग मुर्गा (21)

(ख) खिले जंगली फूल लगे महकने
सुगंधित हवा के झोंके (23)

(ग) रक्ताभ सूरज देवता
उदय हुआ पूर्व दिग
किरणों से चमकते ऊँचे-ऊँचे
‘कोऊ’ ‘सरगी’ के तुंग (24)

(घ) निष्कंप रात निस्तब्ध सभी
निद्रावती की कोल (12)

(ङ) काला भीत-भीत अंधकार
नहीं सूझती बांह को बांह (13)

(च) दूर-दूर पहाड़ी हवा का झोंका
खिले फूल गिरे झड़कर (74)

(छ) झिलमिलाते सितारे खिले कमलों की तरह
काले बादलों के मर्म (75)

इसी तरह हलधर नाग के इस काव्य की कई पद्यों में सुबह, रात, तारें, पहाड़ी, हवा, रक्ताभ सूरज, जंगली फूल आदि का वर्णन मिलता है, जो इस काव्य को महाकाव्य की श्रेणी में ले जाने की तरफ पहल करती है।

8. जीवन-दर्शन की कई उक्तियाँ भी हलधर नाग के इस काव्य में देखने को मिलती है। उदाहरण के तौर पर

(क) कुटुंब जंजाल जाल महाजाल
फंसा जो एक बार
निकल न पाए नरक से जीव
मर-मर गया शरीर (9)

(ख) नाग के बचपन से तोड़ दिए जाते दाँत
नाग में नहीं होता विष
भोग रहा हूँ अपनी गलती
निकालूँ किस पर रिस (83)

(ग) सत्य ईश्वर है, सत्य नारायण
सत्य ही ब्रहम सत्य ही शिव
सत्य ही लक्ष्मी, सत्य ही सरस्वती
सत्य ही मुक्त जीव (91)

(घ) अरे लक्ष्मण! तिलक-चंदन
ललाट की शोभा
गिरते पडते जाना, नाम-कीर्तन
यह तो मात्र लोक दिखावा (177)

(ङ) भीतर यदि हिंसा-अहंकार
कूर-कपट धोखा छल
भले ही, रहे आजीवन पुकार
नहीं मिलूंगा उन्हें किसी पल (178)


इस प्रकार के पद्य बनाए नहीं जा सकते है, वे भीतर की प्ररेणा से पैदा होते हैं। कविता लिखना कोई हंसी-मजाक का कार्य नहीं है,वरन यह अत्यंत गूढ़तम कार्य है। काव्य-भावों का परिस्पंदन है, ये भाव सात्विक मनोवृत्ति के प्रतीक है। हृदय में स्थित इन भावों के विभिन्न स्वरूप को ग्रहण करना ही काव्य का मूर्त रूप ले लेता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि हलधर नाग के काव्य ‘अछिया’ (अछूत) में शब्द और अर्थ का सुंदर संयोग बना है जिसे जल-तरंग न्याय कह सकते हैं अर्थात् जिस तरह जल को तरंगों से भिन्न नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार शब्द के बिना अर्थ और अर्थ के बिना शब्द की कल्पना नहीं की जा सकती है।

‘अछिया’ का काव्य-प्रयोजनः-

1. यह काव्य उत्तम काव्यों की श्रेणी में आता है क्योंकि शबरी की गुरू-वचनों के प्रति निष्ठा और राम-दर्शन के लिए जो ललक दर्शाई गई है, वह मनुष्य जीवन के चार पुरूषार्थों में निहित है। उत्तम काव्य का मुख्य प्रयोजन यह भी है।
2. इस काव्य का प्रमुख प्रयोजन समाज से छुआछूत को हटाना तथा महिलाओं में शिक्षा के प्रति रूझान पैदा करना है। कहीं-कहीं तो कवि ने महिला अधिकारों की बात भी छेड़ी हो, जैसे
गुरू ने कहा था छप्पन कोटि में
मानव-जीवन ही सार
मिलने-जुलने का फिर
नहीं मेरा अधिकार (179)






छुआछूत की घृण्य भावना को भी कवि ने सामने लाया हैः
पूरी दुनिया का अभिशाप मैं हूँ
धिक यह जीवन धिक
अछूत जन्म लेकर
मर जाना ही ठीक। (203)
कवि के काव्य-अनुवाद जब दैदीप्यमान है अर्थात् अंलकृत है। कवि की निर्मल सरस वाणी का अनुवाद जब इतना उज्ज्वल है, तो कवि की कीर्ति केवल अपने संबलपुर क्षेत्र में ही नहीं, वरन् पूरे भूमंडल पर व्याप्त होगी। आचार्य रुद्रट के ‘काव्यालंकार’ के अनुसार किसी भी उच्च कोटि के कवि के द्वारा काव्य का प्रयोजन होता है, जिसमें हलधर नाग पूर्णतया खरे उतरते हैं।
3. कवि हलधर नाग इस काव्य में शबरी को मरने से रोकते हैं अर्थात् मनुष्य जीवन की सार्थकता पर विचार करने के लिए कहते हैं जो किसी भी काव्य का बहुत बड़ा प्रयोजन होता है उदाहरण के तौर पर
”मरने की बात मत करो, शबरी
गुरू बोले, ”जिंदा रहो“
काले बादलों के नीचे बनाई हो घर
भले ही पत्थर गिरे, मगर सहो।“

इस संसार में मनुष्य जीवन दुर्लभ है। उससे भी दुर्लभ है विद्या प्राप्त करना और उससे भी दुर्लभ है कवित्व प्राप्त करना। काव्य की रचना करना अत्यंत ही दुर्लभ है, काव्य करने की शक्ति हर किसी में नहीं होता है। यह तो ईश्वर की कृपा ही है जो हर किसी को नहीं मिलती है। सरस, सरल और सर्वजन ग्राहय काव्य की रचना अत्यंत दुर्लभ कार्य है। अग्नि पुराण में आता है,

नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।

इस प्रकार महाकाव्यों की कसौटियों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गहन विर्मश करने के बाद हम आसानी से इस नतीजे पर पहुंच जाते है कि चौतीस-पैतीस पृष्ठों तथा 209 पद्यांशों वाली हलधर नाग की ‘अछूत’ शीर्षक वाली दीर्घ कविता को खंड/प्रबंध काव्य तो क्या, महाकाव्य की श्रेणी में रखना पूरी तरह से सुसंगत एवं उचित है।

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जन्मजात कवि

डॉ॰मुरारी लाल शर्मा
हिंदी प्राध्यापक (सेवानिवृत्त)
संबलपुर विश्वविद्यालय, संबलपुर (ओड़िशा)



लोक कवि रत्न हलधर नाग एक जीवित किंवदंती है, जिनकी कविताएं एक वृहत्तर समाज को जोड़ती है। उनके जीवन के संघर्ष की कहानी आधुनिक भारतीय कवियों के लिए प्रेरणा-स्रोत है। बहुत कम पढ़ा लिखा, गरीब परिवार में उत्पन्न एक लोक कवि अपनी लोकभाषा में कविताओं के बल पर एक सेलिब्रिटी तक बन सकता है। यह उदाहरण साहित्य के आलोचकों के समक्ष एक सवाल अनुत्तरित छोड़ जाता है कि क्या औपचारिक शिक्षा प्राप्त किए बिना भी कोई आदमी कवि बन सकता है ? दूसरे शब्दों में, कवित्व जन्मजात गुण होता है या जन्म के बाद कवि का निर्माण किया जा सकता है।

कविरत्न हलधर नाग की कविताओं में मौलिकता है,नवीनता है, सामाजिक संदेश है,सामाजिक शोषण एवं प्रताड़ना के खिलाफ उठती हुई आवाज है,प्रकृति प्रेम, धर्म-अध्यात्म है और मिथकीय पात्रों का आधुनिकीकारण है। संबलपुरी भाषा के बहुत सारे कवि उन्हें अपना आदर्श मानकर उनकी काव्य-शैली का अनुकरण कर रहे हैं, जिसे साहित्यिक भाषा में ‘हलधर धारा’ कहा जाता है। यहां तक कि संबलपुर विश्वविद्यालय में कई शोधार्थी उन पर पीएचडी कर रहे हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से हलधर नाग ने पश्चिम ओड़िशा की बहु उपेक्षित भाषा संबलपुरी-कोसली में प्राण फूंक कर नई पहचान प्रदान की है। ऐसे जीवित किंवदंती को ओड़िशा साहित्य अकादमी पुरस्कार (2014), पद्मश्री पुरस्कार (2016), लाइफ अचीवमेंट सम्मान (2017) से सम्मानित किया जाना हम सभी के लिए गर्व और गौरव का विषय है।

इतना कुछ नाम-सुनाम होने के बाद भी अभी तक उनकी किसी भी काव्य या कविता का हिंदी अनुवाद की पुस्तक मेरी जानकारी में प्रकाशित नहीं हो पाई है। श्री दिनेश कुमार माली की यह पुस्तक ‘हलधर नाग का काव्य-संसार’ इस शृंखला की पहली पुस्तक है, जो हिंदी जगत को कवि के चिंतन, कविता की रूपरेखा, अंतर्दृष्टि और उनके मानस-पटल पर चल रही काव्यिक हलचल से परिचित करवाएगी।

इस संग्रह में दो महाकाव्य ‘श्री समलेई’ और ‘अछूत’ का हिंदी अनुवाद दिया गया है और साथ ही साथ, सोद्देश्यपूर्वक लिखी गई अनेक सामाजिक कविताएं हैं, जैसे ‘हमारे गांव का श्मशान’, ‘पशु और मनुष्य’, ‘स्वच्छ भारत’; आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को उकेरती हुई पर कुछ कविताएं जैसे ‘सोच लो’, ‘लालटेन’,’लुलु पुजारी का कालिया’, ‘छंदा चरण अवतार’ एवं ऐतिहासिक महत्व की कविताओं में संबलपुर से संबंधित कुछ कविताएं हैं जैसे ‘कुंजल पारा’, ‘छोटे भाई का साहस’,’मिट्टी का आदर’ इत्यादि है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कवि हलधर नाग की दृष्टि एकांगी न होकर बहुत व्यापक फलक पर आलोकित होती है।

कविता के विभिन्न पहलू जैसे अध्यात्मिक,धार्मिक,सामाजिक,ऐतिहासिक विषयों पर कवित्त-रस की वर्षा करने के साथ-साथ सामाजिक विद्रूपताओं पर व्यंग करने से वे पीछे नहीं हटे हैं। ‘श्री समलेई’ महाकाव्य में संबलपुर की अधिष्ठात्री देवी माँ समलेई की राजा बल रामदेव द्वारा स्थापित करने से लेकर उनके नामकरण और मूर्ति भंजक क्रूर मुस्लिम शासक काला पहाड़ के संबलपुर पर आक्रमण के समय देवी द्वारा उसके विनाश की गाथा में प्रकृति के वर्णन के साथ-साथ तत्कालीन धार्मिक उठापटक का बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुति की गई है। इसी तरह भले ही ‘अछूत’ महाकाव्य त्रेताकालीन शबरी के मिथक पर आधारित है, मगर आज भी उनके इस महाकाव्य में घोर जातिवाद, छुआछूत आदि पर कवि ने तीक्ष्ण प्रहार किया है। शबरी के माध्यम से कवि ने अछूत परिवार में जन्म लेने से पैदा हुई हीनता को भी निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत किया है:-

राम के पैर पकड़ बोली शबरी
“दुख की बात सुन
मैं किससे कहूं, क्या बताऊं,
दुनिया के अवगुण?” ॥



नाम की मैं मनुष्य योनि में पैदा हुई
असल कुत्ते से भी हीन
यह बात बताने के लिए
मैं गिन रही थी अपने दिन ॥

दूर से वे मुझसे बात करते हैं
मेरे पानी के छींटे से डरते हैं
मेरे शरीर से टकराकर अगर हवा भी
उन्हें छूती है तो वे कपड़े धोते है ॥

“गुरु ने कहा था छप्पन कोटि में
मानव-जीवन ही सार
मिलने-जुलने का फिर क्यों
नहीं मेरा अधिकार ॥

क्या मैंने किसी की गाय मारी या किया कोई पाप
नाक-भौं वे सिकोड़ते इतना
अछूत कहकर ठुकरा देते मुझे
सारा जगत जितना ॥

सभी मनुष्यों को बनाने के बाद
बचे-खुचे कीचड़ से, हे विभु
क्या उस मिट्टी से मुझे बनाया?
मुझे बताओ, मेरे प्रभु! ॥

मुझे गुरु के पीछे मर जाना चाहिए था
रह गई उनकी बात मानकर
क्या लाभ, क्या उपलब्धि इस जीवन में
सभी ने देखा मुझे हीनमान ॥



पूरी दुनिया का अभिशाप मैं हूँ
धिक यह जीवन धिक
अछूत जन्म लेकर मुझे
मर जाना ही ठीक ॥

आज भी यह सवाल सरकार के सामने सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ा है। अंत में, यह निश्चितता के साथ कह सकता हूँ कि इस अनुवाद के माध्यम से कवि हलधर जी के अंतरात्मा की आवाज देश के विपुल हिन्दी भाषी पाठकों के समक्ष पहुंचेगी और वे उसे पढ़ पाएंगे। मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि हिंदी जगत में यह अनुवाद अभूतपूर्व ख्याति प्राप्त करेगा।

डॉ॰ हलधर नाग के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए मैं सुदक्ष अनुवादक श्री दिनेश कुमार माली को इस महत्वपूर्ण कार्य के प्रतिपादन के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ।




















लोक कवि-रत्न श्री हलधर नाग: असाधारण मेधा-शक्तिपुंज


शर्मिष्ठा साहू
ओड़िया एवं संबलपुरी कवयित्री


लोक कवि-रत्न श्री हलधर नाग न केवल पश्चिम ओड़िशा, वरन् संपूर्ण भारत के लिए गर्व और गौरव का विषय है। सामान्य जनजीवन के अनगिनत अलग-अलग प्रतिबिंब,उनकेसुख-दुख,उनकीआस्था,विश्वास,परंपरा,धर्म- भावना,व्यक्तिगत चरित्र, सरल ग्राम्य जीवन-शैली की विस्तृत झांकी से समृद्ध है उनका काव्य-संसार। ग्राम्य परिवेश से ओतप्रोत उनके काव्य-रस का आनंद अनन्य है। गाँव की मिट्टी से गहराई से जुड़े होने के कारण वे किसी भी सहृदय मनुष्य के अंतर में सहजता से प्रवेश करते है। कवि हलधर की विशेष प्रतिभा उनकी असाधारण मेधा-शक्ति है, उन्हें आज तक लिखी अपनी सारी कविताएं कंठस्थ है, उनके अपने सभी दीर्घ महाकाव्य भी। किसी भी कवि सम्मेलन में कागज पकड़कर वे अपनी कविता का पाठ नहीं करते है। हजारों- हजारों श्रोताओं को बांधकर रखते हुए,घंटो-घंटो तक लगातार अपनी कविताएं सुनाने की उनमें अद्भुत शक्ति हैं, चाहे मिथकीय उर्मिला,अछिया,शिरी समलेई जैसे महाकाव्य हो या चाहे व्यंग्य पर आधारित आधुनिक क्रिकेट जगत पर उनकी कविताएं। कविताओं की खासियत यह भी है कि वे सभी न केवल छंदबद्ध है बल्कि प्रगीतधर्मी भी है। अंतर्वस्तु के अनुरूप कविता-पाठ के दौरान उनके चेहरे के हाव-भाव,हाथों की मुद्राएँ और उच्चारण में आरोहण-अवरोहण इतना प्रभावशाली है कि श्रोतागण दांतों तले अंगुली दबाए बिना नहीं रह पाते। मेरा यह परम सौभाग्य है कि मुझे भी इस महान कवि के साथ अनेक बार साहित्यिक मंचों पर सहभागिता अदा करने का अवसर प्राप्त हुआ है, और कई बार श्रोता के रूप में उन्हें सुनने का भी।

पद्मश्री हलधर नाग की काव्य-कृति ‘काव्यांजलि-द्वितीय भाग’ का हिंदी में अनुवाद कर श्री दिनेश कुमार माली ने संबलपुरी कोसली भाषा की इस अमूल्य कृति को लक्ष्य भाषा हिंदी के विपुल पाठकों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है। वे एक अच्छे साहित्यिकार, दक्ष अनुवादक, आलोचक और कवि है। दीर्घावधि से ओड़िशा में अपने प्रवास के दौरान ओड़िया भाषा, साहित्य और संस्कृति से प्रभावित होकर अपनी मेहनत और लग्न के बल पर ओड़िया लिपि और भाषा सीखकर सुसमृद्ध ओड़िया साहित्य के विशाल महासागर में गोते लगाकर गहरे पानी से मोतियों की तलाश कर रहे हैं। प्रतिनिधि ओड़िया साहित्य का गहन अध्ययन कर आत्म-प्रेरणा से उनका अनुवाद कर विपुल पाठक वर्ग के समक्ष पहुंचाने का प्रयास भी कर रहे हैं। उनके द्वारा हिन्दी में अनूदित ओड़िया भाषा की अनेक उच्च कोटि की कहानियाँ,कविताएँ,उपन्यास और आलेख दूसरी भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर अपने पाठक वर्ग को राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक बना रही है।

जब मुझे पता चला कि श्री माली कवि हलधर नाग की रचनाओं का अनुवाद कर रहे हैं तो मुझे वहुत आश्चर्य हुआ। ओड़िया भाषा तो उन्हें आती हैं, समझ में आता है, मगर संबलपुरी कोसली भाषा का ज्ञान उन्हें कैसे हुआ ? बाद में याद आया कि उन्होंने पश्चिम ओड़िशा में काफी समय व्यतीत किया है अपनी नौकरी के सिलसिले में। इसलिए वहाँ की जन भाषा की जानकारी होना संभव है। इसके अतिरिक्त, हलधर नाग की तरह उनकी भी स्मरण-शक्ति बहुत तेज है, इसलिए वे जो सीखना चाहते हैं, सीख पाते हैं- ऐसा मेरा अनुमान है। मेरी प्रथम भाषा संबलपुरी कोसली होने के कारण ‘काव्यांजलि’ का अनुवाद उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए दिया था ताकि मैं उसका मूल्यांकन कर सकूँ और अगर कोई त्रुटि रह गई हो तो उसका संशोधन भी। सही कहूँ तो मुझे उनका अनुवाद बहुत अच्छा लगा, अवश्य, पांडुलिपि में कुछ जगह संशोधन की आवश्यकता पड़ी। यह भी सत्य है, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करते मौलिक भाव ज्यों के त्यों तो नहीं आ पाएंगें, सांस्कृतिक पार्थक्य के कारण। वह भी एक लोक भाषा और विलुप्ति के कगार पर ग्राम्य-जीवन पर लिखी गई हलधर नाग की कविताएं, जो अपने छंद-बद्धता और प्रगीतात्मकता के लिए विख्यात है। इस दृष्टि से हिंदी अनुवाद में थोड़ा अंतर है, मगर सामग्रिक तौर कवि हलधर नाग की काव्य-प्रतिभा, जीवन जिज्ञासा,दृढ़ पारंपरिक मूल्य-बोध और पौराणिक आख्यानों के सरस रूपान्तरण से अवश्य परिचित होंगे हिन्दी पाठक। सम्बलपुर के इतिहास,ऐहित्य, सम्बलपुर की अधिष्ठात्री देवी माँ संबलेश्वरी के अभ्युदय की कहानी महाकाव्य ‘शिरी समलेई’ बहुत आकर्षक है। ‘अछूत’ महाकाव्य में रामायण के मिथकीय पात्र शबरी का दृष्टांत देकर अत्यंत सुंदर तरीके से छूत-अछूत के भेदभाव को मिटाने के लिए लोगों को जागरूक किया है। श्री दिनेश कुमार माली का यह सरल सहज अनुवाद हिन्दी पाठकों को पसंद आएगा-ऐसी मेरी आशा है। निश्चय ही, यह अनुवाद संबलपुरी कोसली साहित्य के प्रसार की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। इस महत्त्वपूर्ण कार्य की सफलता के लिए अनुवादक को हार्दिक धन्यवाद एवं कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ।

अनेक प्रसिद्ध आलोचकों ने हलधर नाग जी के कृतित्व और ब्यक्तिव पर गहन विमर्श किया हैँ।मैं उनके कुछ सरल, निर्मल दार्शनिक क्षुद्र कविताओं को यहाँ रखना चाहती हूँ।वे हैँ "लालटेन",,"अग्नि", "गर्मी" और "बारिश"।

लालटेन उस मनुष्य का प्रतीक है जो छल से जीता है।ऊपर से अच्छा और भीतर कपट और हिंसा की आग छुपाकर रखता है।धन का अहंकार उस आग को और ज्यादा तेज कर देता है।जब यह आग वश में नहीं रहती तब उसी आग में वह मनुष्य जलकर ध्वंस हो जाता है। सुप्रसिद्ध ओड़िया कवि पद्मभूषण श्री रमाकांत रथ जी ने भी ‘लालटेन’ कविता की रचना की है। उनकी कविता ‘लालटेन’ ऐसे आबद्ध ,बन्दी मनुष्य पर आधारित है जो अपना दुःख और क्रोध को जता नहीं पाता।अन्याय का विरोध कर नहीं पाता और असहाय हो कर भीतर ही भीतर जलता है।ये दोनों कविताएँ जीवन की सच्चाई को दर्शाती हैँ।हलधर नाग की ‘लालटेन’ कविता इस प्रकार हैं:-
ऊपर लगा निर्मल काँच,
जल रही भीतर हिंसा की लौ
ईधन है धन,
इसलिए भभकती ज्यादा लौ ।

जब तेज हो जाती है आग
टूट जाता है कांच
भीतर हिंसा की आग,
दुर्योधन का सत्यानाश ।

हलधर जी की ‘अग्नि’ जीवन के मूल तत्व को दर्शाती है। अग्नि यहाँ परमात्मा का प्रतीक है जो हर घट में हर शरीर में बसती है। कवि के शब्दों में,
जलते हज़ारों दीपक
गिनी जाती तेल बाती
मगर अग्नि तो केवल एक
परमात्मा की अग्नि जलती
सभी घट, रुककर जरा तो देख

तीसरी कविता "गर्मी" संबलपुरी कविता में संबलपुरी शब्दों का कुछ सुंदर आंचलिक प्रयोग किया गया है, जिनका की हिंदी में अनुवाद नहीं हो सकता है। उदाहरण के तौर पर- ‘भुइँ चट् चट्"’ इस शब्द का अर्थ है भूमि इतना ज्यादा गर्म है कि पावँ रखते ही झट से हम उठा लेते हैँ, ‘शुषें चाएँ चाएँ टंन्टी शुखीजाए’ इसका अर्थ है प्यास से गला सूखना और इसी तरह ‘माकर बिहा’ जिसका शाब्दिक अर्थ है बंदरों की शादी।( माकर-बन्दर, बिहा- शादी)।मगर असल में अर्थ पूरा अलग है।बैशाख महीने में जंगलोँ और पहाड़ियों में जो आग लगती है और फैल जाती है रात के अँधेरे में वह आग दूर-दूर से दिखाई देती है।ऐसा लगता है पहाड पर सोने का हार झूल रहा है।इस दृश्य को माकर बिहा बोलते हैँ आंचलिक भाषा में।ये सब प्रान्तीय शब्द और प्रयोग उस स्थान और भाषा की सौन्दर्य और स्वतंत्रता की पहचान होते हैँ। हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
चैत खत्म, वैशाख शुरू ,
तपने लगा सूरज
नदी-नाले सूखे खड़-खड़,
दूब-लता गए मुरझा ।

भूमि दर्दरित, सूरज गर्मी से,
बहने लगी हवा ‘लू’
जंगल में लगी आग,
किसे क्या कहूँ ।

सुखी पसीना-पर्पट शरीर पर नमक बन ,
चुभन भरी ग्रीष्म
विकल मन बड़ा कलबल ,
असहायता भेदती मर्म ।

प्यास से सूखता गला बार-बार ,
नाक-कान जलते भभक-भभककर
कब खत्म होगी यह गर्मी ?
आओ, वर्षा घमक-घमककर ।

जितनी ज्यादा गर्मी, उतनी ही वर्षा
पूर्वजों की यह कथा
"दुख सहोगे, मिलेगा सुख ,
याद रखो, मेरे बेटा ”

इस आलेख की अंतिम कविता ‘बारिश’ है। धूल मिट्टी वाले रास्ते पर बारिश की पानी की धारा, अंधेरे में जुगनू के शरीर से निकलती टिमटिमाती आलोक, घुइ और झींगुर जैसे बारिश के कीड़ों की चीत्कार, मेंढक के स्वर, ये सब गांवो में ही देखने को मिलते हैँ।इस कविता में भी कवि के कवित्व के पराकाष्ठा देखने को मिलती है जब वे छत की किनार से पानी गिरने को लिखते हैँ "कुलार मुहे पाएन दुरमे"।कुला मतलब बाँस से बना एक टोकरी, जिसको श्याद हिंदी में "सुप" या "सुपा" बोलते हैँ।उस टोकरी से कोई जैसे पानी फेंक रहा है छत से जोर से। और भी लिखते हैँ की मेंढक हुलहुली दे कर बारिश का स्वागत कर रहा है।मेंढक की कर्कश ध्वनि को मंगल सूचक हुलहुली ध्वनि के रूप में पेश किया गया हैँ।इस कविता के सबसे सुंदर अंश है इसका मधुर संदेश, महत्वपूर्ण संदेश दान का आनंद(joy of giving)।मेघ जैसे अकुंठित बारिश देता है धरती को, ऐसे ही इंसान भी अकुंठित दान करना चाहिए, उसके पास जो भी है ,धन या स्नेह आदर। कविता का हिन्दी अनुवाद इस तरह है :-
सूरज डूबते ही जुगनू
फैल जाते हर स्थान
कालाहांडी मेघ घुमड़ते
आते उत्तर पश्चिमी कोन ।

हवा के झोंकों की सरसराहट ,
चारों तरफ धूल के गुबार
छतों की किनार से गिरता पानी ,
बरसता मूसलधार ।

बादलों की गर्जन ,
बिजली गिरती मल-मल
खेतों में, गांव की सड़कों पर,
धाराएँ बहती खल-खल ।

कीटों की चीत्कार, झींगुरों की झिंकारी,
हर जगह किलकिली
उषत मन से वर्षा-वंदना के लिए,
मेंढक करता हुलहुली ।

उदार लोग रखते बचाकर ,
अपनी मेहनत का धन
बारिश की तरह देते दान ,
परहितार्थ तन-मन-धन ।

शर्मिष्ठा साहू के शब्दों में, “हलधर नाग जी के कविताओं में हम जितना प्रवेश करेंगे, उतना ही सुखद अनुभव हमें मिलेगा ।वे केवल मिथिकीय कविताएंनहीं लिखते, बल्कि छोटी-छोटी कविताओं में भी आधुनिक मनुष्य जीवन के सारे सुख-दुःख बहुत ही सरस और जीवंत शैली में प्रस्तुत करते हैँ। उनकी कविताओं में भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि से ओत-प्रोत विषय-वस्तु देखने को मिलती है, जो न केवल भारतीय चेतना का प्रतीक है, बल्कि विश्व साहित्य में भी अपनी एक अलग पहचान दर्ज करवाती है।”

अंत में इतना कहना चाहती हूँ कि उनकी कविताओं में भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि से ओतप्रोत बिषयबस्तु देखने को मिलती है जो भारतीय चेतना का प्रतीक है और विश्व साहित्य में अपना एक अलग पहचान दर्ज करती है।






हलधर नाग के काव्य के परिप्रेक्ष्य में लोक-साहित्य विमर्श

डॉ. सुधीर सक्सेना
हिन्दी साहित्यकार,दिल्ली


सबसे पहले तो पांडिचेरी विश्वविद्यालय, पुदुच्चेरि के प्रति हार्दिक आभार और कृतज्ञता ज्ञापन करता हूँ कि उन्होंने एक सामयिक और महत्वपूर्ण विषय पर वेबीनार में मुझे शिरकत के लिये आमंत्रित किया। लोक कविरत्न हलधर नाग के काव्य के परिप्रेक्ष्य में लोकसाहित्य विमर्श एक बड़े फलक को छूता है और बरबस उन संदर्भां को उद्धाटित करता है, जो हमारी मनीषा, स्मृति और वांग्मय से जुड़े हुए हैं। यह विषय लोकसाहित्य की महत्ता और उसकी मूल्यवान परंपरा को भी रेखांकित करता है और किसी भी कथा या चरित की लोक में व्याप्ति की अहमियत की भी पुष्टि करता है। मेरी मान्यता है कि क्लासिकी काव्यों और परंपराओं के बीज या स्रोत भी प्रायः लोक की स्मृति में उपस्थित या निहित होते है।

मैं हलधर नाग को जानता हूँ। हलधर नाग से कभी मिला नहीं, लेकिन उन्हें जानता हूँ और यह जानना सुखद और प्रीतिकर है। मैं उन्हें उनके काव्य के जरिए और उनके विशिष्ट व्यक्तित्व के जरिये जानता हूँ। वे लोक के कवि हैं, लोकभाषा के कवि हैं और आचार-विचार और व्यवहार में लोक से गहरे जुड़े हुए हैं। रहन-सहन और पहरावे से भी वह लोक का प्रतिनिधित्व करते हैं। हलधर लोक से गहरी आसक्ति के कवि हैं। कह सकते है कि लोक हलधर के काव्य में ठौर पाता है। हलधर लोक का मुक्त कंठ है। हलधर लोक की स्मृतियों,परंपराओं स्वप्नों, इच्छाओ, हर्ष-विषाद और अभीष्ट को वाणी देते हैं। हलधर के काव्य में लोक की पीड़ाएं है और मंगल-गान भी। जिज्ञासा हो सकती है कि मैं हलधर को कैसे जानता हूँ? तो हलधर और मेरे दरम्यान परिचय का सेतु है दिनेश कुमार माली, हिंदी और ओड़िया के समज्ञाता, कवि-लेखक और निष्णात अनुवादक दिनेश कुमार माली के अनुवाद जिसे मैं अनुसृजन कहना पसंद करूंगा के जरिये मैंने हलधर नाग को जाना। उन्हीं के जरिये मैं नाग की महत्ता को बूझ सका।

हलधर नाग को जब हम लोक कवि कहते है तो लोक और कवि दोनों की महत्ता हो स्वीकार करते हैं। लोक का विस्तार अपरिचित है और यही लोक स्मृतियों का अक्षय भंडार है। प्रसंगों और नायकों को लोक निरवधि जीवित साक्ष्य है। हिन्दी के ख्यातिलब्ध और अग्रणी आलोचक डॉ. रामचंद्र शुक्ल कहते है कि लोक की परिधि के बाहर साहित्य का कोई अस्तित्व नहीं होता तो काव्य, जो मनुष्य की सर्वोत्तम कलात्मक अभिव्यक्ति है, अपने अस्तित्व, संप्रेषण, आकर्षण, प्रभाव और ग्राह्यता के लिए लोक पर आश्रित है, लोक की कृतज्ञ है। कोई भी साहित्य विधा या कला-अभिव्यक्ति का लोक-बाह्य अस्तित्व संभव नहीं है। साहित्य का दायरा लोक के विस्तार के समक्ष बहुत संकुचित है। साहित्य की जड़े लोक में जितनी गहरी और छितरी हुई होगी, उसका गाछ उतना ही ऊँचा, सघन और हरा-भरा होगा।

अब हम प्रसंगवश हलधर नाग की बात करें। हलधर लोक कवि है; लोक से लोक में उत्पन्न, लोक को समर्पित कवि। लोक उनकी भूमि है, परिधि है, शक्ति है, और सीमाएं भी। वे ऊर्जा और चमक भी लोक से अर्जित करते है। मुझे बरबस फिराक साहब का यह शेर याद आ रहा हैः दुनिया ने तजुर्बातो-हवादिस की शक्ल में। जो कुछ दिया है, उसको लौटा रहा हूँ मैं। हम कुछ नया कमाल नहीं करते। अनुभव, अध्ययन-मनन, स्वप्न-कामनाओं से शब्दो से नये-नये ‘स्थापत्य’खड़े करते है और यही ‘कमाल है। हलधर नाग भी यही कमाल कर रहें हैं। सन 1990 में पहले पहल ‘ढोडो बरगाछ’ (पुराना बरगद) से शुरू शाब्दिक-स्थापत्य रचने का उनका अटूट क्रम अहर्निश जारी है। बड़ी संख्या में स्फुट कविताएं और 20 महाकाव्य। हलधर अपनी युवावस्था में 16 साल रसोइया रहे हैं। वे घटसे के अनुपात, परिपाक, रस और आस्वाद के ‘भेद’ बखूबी जानते हैं और इसी से उनकी रचनाएं कम समय में व्यापक भूखंड में जनमानस में पैठ सकी है। हलधर संबलपुरी कौसली में लिखते हैं। संबलपुरी-कौसली भाषा से जनपद में एक अल्पज्ञात बोली है। कवि प्रायः यश प्रार्थी होता है और अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करता है किंतु हलधर ऐसा नहीं करते। वे काव्य रचना के लिए लोक में प्रचलित उपभाषा या बोली का चयन करते हैं। मनोज दास उनके काव्य में अजस्र स्त्रोत का अनवरत प्रवाह देखकर मुग्ध होते हैं, तो उत्कल विश्वविद्यालय के जतींद्र कुमार उनके जीवित मनुष्यों की आवाज़ से जुड़ने के गुण को विलियम कार्लोस से जोड़ते है, जो कहते हैं कि स्थानिकता में ही सार्वभौमिकता है। अनुवाद के जरिये हलधर के वृहत्तर विश्व के समक्ष प्रस्तुत कर्त्ता दिनेश माली उनमें विश्व साहित्य की आत्मा और राष्ट्ररंग-विश्व संग की द्युति देखते हैं। इससे मेरी यह मान्यता दृढ़ हुई है कि हलधर का काव्य ओडिशा के फोकलोर का पर्याय है। लोककाव्य प्रायः सामूहिक या जातीय परंपरा का द्योतक होता है किंतु हलधर अपने काव्य उपक्रम से लोक काव्य का पर्याय होकर उभरे है। गीतकार गुलजार कहते है, ‘यह कवि जब अपने गाँव की ज़मीन पर चलता है, तो लगता है मानो पूरे ग्लोब पर चलता है, और जब यह खुद कहता है, यही लगता है कि इस ग्लोब पर बसे हर इंसान से बातें करता है। वह खुद से कहता हैः ‘समुद्र से निधारी/माँ की छाती से बही/ अमृत की बूँद/कवि की कलम पर उतरी है। हलधर को पढ़ते हुए मुझे रूसी कवि सेर्गेई येसेनिजु की कविता में बहता लाल-लाल गायों का धारोष्ण दूध याद आता है। मुझे बरबस याद आती है अवार कवि रसूलगयजतोव की रचनाएं और कार्यासन कुलियेन की तरल-निश्छल भावनाओं में गुँथी निर्मल कविताएं.........।

(कविता क्या है? कविता की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं होती। कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है। वह सर्वाधिक परिष्कृत और कलात्मक मित-कथन है, जिसमें मंत्र होने का सामर्थ्य है। वह कौंध है। आलाप है। आत्मालाप भी, प्रलाप भी, संलाप भी। ज़िरह भी ,प्रतिकार भी, आर्त नाद भी। प्रार्थना भी। यकीन और आश्वस्ति भी। कविता विरेचन की देन है आसवन और रसाकर्षण की भी। उसका कोई सर्वमान्य फार्मूला नहीं है। कविता के लिए लोक से अधिक मूल्यवान और कुछ नहीं। वह लोक से उपजती है और लोक मे ही मान्यता पाती है। कविता रची जाती है और रचित को पुर्नरचित भी करती है। वह कालके अनुरूप प्रसंगों और चरित्रों की व्याख्या भी करती है। लोक की सबसे बड़ी और मूल्यवान संपदा है स्मृति। स्मृति विस्मरण के विरुद्ध सार्थक मानवीय हस्तक्षेप है। स्मृति घट का आयतन अपरिमेय है। वहां एक नहीं, अनेक रामयणों और महाभारतों के अच्छे-बुरे प्रसंग और मानवीय व खल पात्र उपस्थित हैं।हलधर वहीं से कच्चा माल और प्रेरणा पाते हैं। वे सारस्वत प्रतिभा हैं। उनके सरोकार स्पष्ट होते हैं, जब वे उर्मिला या शबरी को काव्य की नायिका बनाते हैं विपन्न, उपेक्षित और दमित को नायकत्व में अवधारणा मायने रखती है। संबलपुरी-कौसली का सारस्वत प्रवाह नाग के कंठ से फूटकर हलधर -धारा बन जाता है। लोक साहित्य में सिद्धि ही हलधर को लीजेंडरी व्यक्तित्व बनाती है। उन्हीं की पंक्तियां हैं:- झूठ बोलने से बढ़ता धन/धन बढ़ने से बढ़ता मन/मन बढ़ने से भोग/भोग बढ़ने से बढ़ता रोग/रोग बढ़ने से जाती जान/जान गई तो मिलता नरक-स्थान। - हलधर नाग ऐसी ही सरल-सुबोध पंक्तियों में अपनी बात कहते हैं। उनकी सत्यनिष्ठा बरबस सत्याग्रही बापू की नैतिकता की याद दिलाती है। सुखद है कि हलधर के लेखन से ओड़िशा के लोक साहित्य की ओर वृहत्तर समाज का ध्यान गया है। लोकरत्न हलधर शतायु हों और विपुल साहित्य रचें। तदर्थ स्वस्ति कामना.......!























हलधर नाग : काव्य-सीमाओं से परे


दिनेश कुमार माली
लिंगराज टाउनशिप,तालचेर



हलधर नाग से मेरी पहली मुलाकात दस-बारह साल पहले मेरे साथी प्रख्यात संबलपुरी कवि श्री अनिल दास के घर, ब्रजराजनगर में हुई थी, वहां उन्होंने दौ सौ से ज्यादा पौराणिक संतों के नाम एक ही साँस में, बिना कहीं रुके हुए, सुना दिए थे, वह भी ताल और लय के साथ। यह मेरे लिए एक विस्मयकारी घटना थी।आज भी मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय वे ब्रजराजनगर महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में पधारे है। उनका नाम सुनकर दूर-दूर से बहुत साहित्यानुरागी आए थे और उस आयोजन में मैं भी श्रोता के रूप में शामिल हुआ था, मेरे मित्र अनिल दास के कहने पर।
कॉलेज के प्रांगण में सुसज्जित मंच पर छात्रों द्वारा उनके पद-प्रक्षालन किए गए थे और संबलपुरी अंग-वस्त्र ओढ़ाकर सम्मान। हजारों की तादाद में इकट्ठे हुए छात्रों के लिए विशेष आकर्षण के बिंदु थे। उस समय उन्होंने लगभग आधा या पौन घंटे तक अपने महाकाव्य ‘महासती उर्मिला’ का पाठ किया था। उस समय उनके हाथ में न तो कोई कागज था और न ही कोई पुस्तक। श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध करने वाला उनका काव्य-पाठ देखते ही बनता था। पहली बार मेरी समझ में आया कि किसी भी भाषा में आश्चर्यजनक सम्मोहन-शक्ति होती है! पूरा पांडाल करतल ध्वनियों से गूंज रहा था। मैंने अपने जीवन में ऐसे आशु कवि को पहली बार देखा था। मेरे मन में बार-बार यह विचार कौंध रहा था कि विलक्षण मेधा और अद्भुत स्मृति-शक्ति से ओत-प्रोत इस अलौकिक पुंज पर अवश्य ही सरस्वती का वरदान रहा होगा।
पद्मश्री और पद्म विभूषण से अलंकृत सुविख्यात द्विभाषीय कवि (ओड़िया एवं अंग्रेजी) श्री मनोज दास उनके बारे में लिखते हैं कि ऐसा लगता है श्री हलधर नाग अपनी आंतरिक दुनिया में सदैव खोए रहते हैं, सरस्वती की कृपा से उनके भीतर मिथकीय पात्रों की सृष्टि अपने आप पैदा होती है। उनका महाकाव्य ‘ महासती उर्मिला’ पढ़ने के बाद मुझे लगा कि उन्हें सृजन-शक्ति और दूरदृष्टि दोनों दुर्लभ सारस्वत उपहार के रूप में प्राप्त हुई है।
उसी हलधर नाग से मेरी दूसरी मुलाकात गवर्नमेंट ऑटोनामस कॉलेज,अंगुल में ‘संवाद साहित्य-घर’ के वार्षिक उत्सव के अवसर पर हुई थी, जिसमें वे मुख्य वक्ता के रूप में पधारे रहे थे। इस अवसर पर उपस्थित विशेष साहित्यकारों में संवाद साहित्य घर की राज्य संयोजिका शुभश्री लेंका, आईपीएस अधिकारी डीआईजी श्री नृसिंह भोल एवं गवर्नमेंट ऑटोनामस कॉलेज,अंगुल के सेवानिवृत्त प्राचार्य, जो अंगुल साहित्य संवाद घर के अध्यक्ष भी थे, श्री शांतनु सर एवं अंगुल जिले के दूर-दूर से पधारे साहित्यप्रेमी श्रोतागण उपस्थित थे। उनके कर-कमलों द्वारा मेरी दो पुस्तकों का विमोचन हुआ था, वे थीं-ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित डॉ सीताकान्त महापात्र के यात्रा-संस्मरण ‘स्मृतियों में हार्वर्ड’ एवं हिन्दी के धर्मवीर भारती की कालजयी पुस्तक ‘गुनाहों के देवता’ की तरह ओड़िया भाषा में नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली बेरिस्टर गोविंद दास का सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘अमावस्या का चाँद’ । अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री भोल ने डॉ॰ हलधर नाग के साहित्य को कालजयी बताते हुए देश की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद की अनिवार्यता और महत्ता पर प्रकाश डाला था। यहाँ तक कि उन्होंने अपने सम्बोधन में मेरा नाम लेते हुए कहा था कि हिंदी के विशिष्ट अनुवादक दिनेश कुमार माली जी अगर इस कार्य का बीड़ा उठाते हैं तो न यह केवल ओड़िया यह संबलपुरी साहित्य के लिए वरन् अखिल भारतीय साहित्य के लिए गौरव का विषय होगा। उनके इस कथन पर प्रेक्षागृह में उपस्थित साहित्यकारों की प्रतिध्वनित हो रही तालियों ने मेरा मनोबल बढ़ाया था और मैं मन ही मन सोचने लगा किसी भी तरह से हलधर जी के साहित्य का मुझे अनुवाद करना चाहिए। उनके वे कथन मुझे आंतरिक तौर पर चुनौती की तरह लगने लगे।
कुछ ही दिनों बाद जब मैं अमेजन पर हलधर नाग की किताबों को खोजने लगा तो मेरे लिए सुखद आश्चर्य की बात थी कि श्री सुरेंद्र नाथ द्वारा अँग्रेजी में अनूदित तीन खंड काव्यांजलि के रूप में जेनिथ स्टार, कटक से प्रकाशित हुए थे और सबसे बड़ी खास बात यह थी कि उन खंडो में एक तरफ ओड़िया लिपि में लिखी गई संबलपुरी-कोसली भाषा में उनकी कविताएं तो दूसरी तरफ यानि सामने वाले पृष्ठ पर अंग्रेजी में उनका अनुवाद दिया हुआ था। मेरे लिए ये किताबें सोने पर सुहागा सिद्ध हुई।
महानदी कोलफील्ड लिमिटेड में सत्रह साल अविभाजित संबलपुर जिले के ब्रजराजनगर में भूमिगत हिंगीर रामपुर कोलियरी एवं संबलेश्वरी खुली कोयले की खदानों में बतौर खनन अभियंता काम करने से वहां के स्थानीय लोगों से अटूट संपर्क बना रहा। यही वजह थी संबलपुरी भाषा के स्थानीय शब्द मेरे जेहन में प्रवेश करने लगे और देखते-देखते सत्रह साल की दीर्घ अवधि में मेरे पास संबलपुरी शब्दों का विपुल भंडार मानस-पटल पर मौखिक रूप से तैयार हो चुका था। और जहां कहीं अनुवाद के दौरान कठिनाई अनुभव हुई, तब उनके समानार्थी अंग्रेजी शब्दों ने भाषांतरण प्रक्रिया में मुझे सहयोग प्रदान किया। अनुवाद के पश्चात पांडुलिपि को दो-तीन अलग-अलग साहित्यकारों से पुनः निरीक्षण कराया गया और जहां कहीं कुछ गलतियां नजर आई, उनके सलाह-मशविरा के अनुसार उनका संशोधन कर लिया गया।
यह सत्य है स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में शत-प्रतिशत अनुवाद करना नामुमकिन है, मगर फिर भी मेरा यह भरसक प्रयास रहा है कि मूल भावार्थ के साथ-साथ ताल,लय और कविता के आत्मा की अक्षुण्णता बनी रहे। कवि की अधिकांश कविताएं या महाकाव्य ना केवल तुकांत, बल्कि ध्वन्यात्मक भी है इसलिए अनुवाद के दौरान कुछ जगह पर लक्ष्य भाषा अतुकांत और फिसलती हुई प्रतीत होती है, मगर कविता का मूल भाव बना रहता है।
हलधर नाग के दो महाकाव्य ‘श्री समलई’ एवं ‘अछूत’ एवं विभिन्न अवसरों पर उनके द्वारा लिखी गई कविताओं का अनुवाद मेरी पुस्तक ‘हलधर नाग का काव्य-संसार’ आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। व्हाट्स अप्प, इन्टरनेट, मोबाइल आदि सोशियल नेटवर्क पर मुझे आपकी प्रतिक्रियाओं का बेसब्री से इंतजार रहेगा और आशा करता हूँ हिंदी जगत में यह पुस्तक का भरपूर स्वागत होगा।










































हलधर नाग के काव्य में प्रकृति एवं स्व

डॉ. मैथिली प्र. राव
प्रोफेसर, हिंदी विभाग
जैन (सम्भाव्य विश्वविद्यालय )
mythili.rao@jainuniversity.ac.in



आलेख सार

जनजातिगत समूह खुद को प्रकृति के तत्वों - पृथ्वी, हवा, पानी, हवा, सूर्य, चंद्रमा, सितारों - और सभी जीवित तत्वों - पक्षियों, कीड़े, जानवरों से निकटतम सम्बन्ध रखते हैं। कभी-कभी दूरगामी परिणामों के साथ। यह भी देखा गया है कि इन सभी तत्वों का अपना जीवन है, सामान्य भाषा में नहीं बल्कि चमत्कारिक भाषा में प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हलधर नाग जैसे समकालीन, जनजातिगत, कवि द्वारा व्यक्त किए जाने के दौरान इन सभी तत्वों को अतीत, वर्तमान और भविष्य को समय और अंतरिक्ष की निरंतरता में व्यक्त करते हुए एक निरंतर बदलती समकालीन दुनिया में, वर्तमान और भविष्य के बारे में अनुमान लगाते हैं।

उनका आधारभूत दर्शन जीवन की सभी शक्तियों की अन्योन्याश्रितता में विश्वास करता है और इसलिए उनमें से किसी एक पर भी हमले का अर्थ है, संतुलन बिगड़ना, शांति भंग करना। प्रकृति में यह गड़बड़ी मानव जीवन को भी अराजकता की ओर ले जाती है। अपनी कविताओं में जहां एक और हलधर नाग जी ने सभी प्राकृतिक तत्वों के प्रति धन्यता एवं समर्पण का भाव प्रकट किया है, उनके दिव्य सौंदर्य को सरल, लयात्मक भाषा में चित्रित किया है, वहीं दूसरी और मानव सभ्यता के कारण उन पर होने वाले खतरे तथा हानि को भी व्यक्त किया है |


मुख्य शब्द

कविता एवं प्रकृति, प्रकृति का बाह्य एवं अंत: स्वरूप, बाह्य प्राकृतिक जगत, मानव की प्रकृति


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विज्ञान, धर्म, और साहित्य सहित कई विषयों के संदर्भ में प्राकृतिक दुनिया के महत्व को, समय के माध्यम से, पता लगाया जा सकता है। मनुष्य, न केवल, अस्तित्व के लिए प्रकृति पर भरोसा करता है, बल्कि प्रेरणा के लिए प्रकृति पर निर्भर रहना सीखा है - प्रकृति को विभिन्न तरीकों से विषय के रूप में उपयोग करना, स्वयं के संबंध में प्रकृति के रूपक का उपयोग करना आदि । कवियों ने मौखिक परंपरा की निरंतरता के रूप में कविता का उपयोग किया है तथा अपनी स्वदेशी संस्कृति और भूमि के बीच के संबंधों को चित्रित करने के लिए प्राकृतिक दुनिया की छवियों का व्यक्तिगत उपयोग किया है, और इस तरह के चित्रण से, वे जिस संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उसकी मूल पहचान को पुन: प्रस्तुत करते हैं । ये उद्गार अपने मूल लोगों, संस्कृति, परंपराओं और भूमि के प्रति उनके प्रेम को दर्शाता है | यह प्रेम उनकी कविता में सामने आता है, जो कवि की अपनी देशी संबंधों को खूबसूरती से दर्शाते हैं और अपनी भूमि के उपनिवेशण के इतिहास के माध्यम से अपने प्रिय वस्तुओं के नुकसान को याद करते हैं। अपने मूल संस्कृति की विशिष्टता के प्रति दूसरों का ध्यान आकर्षित करने तथा अपनी संस्कृति के लिए एक पहचान बनाने हेतु ये कवि बनते हैं |

हलधर नाग जी को जब पद्मश्री से सम्मानित किया गया तो मात्र एक व्यक्ति को नहीं एक पूरी विरासत को चिह्नित किया | साहित्य तो एक जरिया थी जिसके माध्यम से एक भौगोलिक क्षेत्र, वहां की प्राकृतिक सम्पदा, वहां के लोग, वहां की भाषा, संस्कृति यह सब कुछ अचानक हाशिये से केंद्र में आ गया | साथ ही आदिवासी / जनजातिमूलक साहित्य को भी प्रश्रय प्राप्त हुआ | संबलपुरी की लोक भाषा में रचित उनके साहित्य को जब दिनेश कुमार माली जी ने हिंदी में अनुदित किया तो इस काव्य-भूमि की भौगोलिक उपस्थिति और विस्तृत हो गयी | एक सीमित भूभाग में रहने वाली जनसंख्या की संस्कृति, उनका चिंतन, वहां की प्रकृति आदि सब कुछ की जानकारी राष्ट्र तथा विश्व के अन्य भूभागों में रहने वाली जनसंख्या को प्राप्त हो गयी | प्राय: भाषा की यही सर्वोपरी क्षमता एवं उत्तरदायित्व भी है |

प्रस्तुत आलेख के लिए भी दिनेश कुमार माली जी द्वारा अनुदित 'हलधर नाग का काव्य-संसार' को मुख्य आधार बनाया है | इस काव्य संकलन में संबलपुर के जनजीवन से जुडी अनेक विषयों पर कवि ने काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है | रोजमर्रा के प्रसंगों के साथ प्रकृति तथा मनुष्य का अंत:सम्बन्ध एवं आध्यात्मिक पक्षों को भी उद्घाटित किया है |

इस संकलन की प्रमुख कृति है ‘श्री समलेई’ जो समलेश्वरी, सम्बलपुर की रक्षक माता, से सम्बंधित लोक कथा पर आधारित खंड काव्य है | अपनी भूमि तथा लोगों पर इस कथा के प्रभाव को व्यक्त करते हुए कवि ने इसे महाकाव्य की उपाधि दी है | सम्बलपुर प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध स्थली है, महानदी तथा उसके उप-नदियों के कारण घने जंगल, पहाड़ियां, विविध प्राणी तथा पेड़-पौधों से सुसज्जित | 'सुजलाम, सुफलाम्' की प्रत्यक्ष प्रतिमूर्ति है | स्वाभाविक है की लोक कथा इन सभी तत्वों से आच्छादित होगी | आलम्बन तथा उद्दीपन दोनों ही रूपों में प्रस्तुत प्रकृति के विविध रूप मानव समाज को विस्तृत संसार के साथ जोड़ते हुए, प्रकृति, प्राणी तथा सृष्टि की प्रशंसा के लिए प्रेरित करते हैं |

एक सफल शिकारी के रूप में राजा बलराम की शक्ति का वर्णन करते हुए कहा है की अपने कन्धों पर सदा 'धनु-शर' उठाए -
"बारह पहाड़ के सुनसान इलाके में
धुंधली बारह गुफाएं थीं जहां |
शिकारी राजा अक्सर जाता था
अपने शिकार पर वहां |" (पृ. २०)

प्रकृति पर मानव के आधिपत्य स्थापित करने की चेष्टा को इंगित करता है |

उसके राज्य को 'सोन-चिड़िया' (पृ. २१) कहकर कविवर ने राज्य की समृद्धि के लिए प्राकृतिक रूपक का प्रयोग किया है जो प्राय: काल्पनिक भी है | भारत के लिए भी 'सोने की चिड़िया' का रूपक प्रयुक्त होता है जो उसकी समृद्धि का सूचक है |

छालू सुंअरा तथा रंगी की पवित्रता की सूचना देता है लेखक का "मल्ली फूलों" का प्रयोग जिसकी खुशबू से परिसर के सुगन्धित होने की भाँती, इस प्रेमी युगल के पवित्र बंधन से परिसर सुगन्धित हो जाता है | (पृ. २२) कविवर यदा-कदा प्राकृतिक तत्वों से हमारा परिचय भी कराते रहते हैं जब वो केन्दु, हरड़, आंवला, साल के पत्ते, टहनियों का दातुन आदि वन सम्पदा से प्राप्त वस्तुओं के कारण वहां के लोगों का जीवन मुख्यत: वन पर अवलम्बित है | रंगी के आँखों में 'गंगा - जमुना' उसकी वेदना की तीव्रता की सूचना देता है |

लोक विश्वास है कि सांप किसी अमूल्य संपत्ति का रक्षक होता है | इसी को अपनी काव्य-गाथा में स्थान देते हुए कवि ने दर्शाया है की समलेई देवी ने भी रंगी को वही बताया कि -

"देखोगी एक रेती का कूद
चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा
कूद पर कुंडली मारे
एक संखेदोल सांप का पहरा |" (पृ. २७)

ये प्रकृति एक ओर मुग्धा, सुन्दर, सौम्य है तथा जितना मनुष्य के जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक हैं उतनी ही ये भयानक भी | परन्तु जब इंसान के सामने कोइ बृहत्तर उद्देश्य होता है उसे किसी भी खतरे की सुध नहीं होती -

"साँपों की फुफकार, बाघिन की दहाड़,
सभी बना चाह रहे थे उसे अपना भोजन
वह दौड़े रही थी प्रचंड
बिना प्रवाह किये अपना जीवन |" (पृ. २९)

स्पष्ट है के प्रकृति भीतर-बाहर एक ही है | मनुष्य जहां प्रेम, सौहार्द, ममता, दया, करुणा जैसी कोमल भावनाओं से प्रेरित हो सकता है वहीं दूसरी तरफ ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, भय आदि विकारों से प्रेरित होकर वैमनस्य भी दिखाता है | कविवर ने मनुष्य के बाह्य एवं भीतर के तत्वों को चित्रित करने के लिए सभी प्राकृतिक तत्वों का रूपक प्रस्तुत किया है मनुष्य अपनी आत्म-शक्ति द्वारा इस सभी विपरीत तत्वों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता रखता है | इस गाथा की विशेषता यह है की इसके केंद्र में है एक स्त्री पात्र -रंगी | रंगी, प्राकृत के इस बाह्य एवं अंतस स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है |

द्वितीय सर्ग में जब बलराम राजा रंगी से जुड़े रहस्य को जानने के लिए निकलता है तो ६ अनुच्छेदों में प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए वहां के पेड़-पौधों के स्थलीय नाम, जानवर, प्राणी, पशु-पक्षियों के कारण बढ़ते हुए सम्बलपुर के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन, मुक्त ह्रदय, से किया है | (पृ. ३६-३७)

कविवर ने, अभिव्यक्ति पर, अपने अधिकार को दर्शाते हुए उलटबांसी शैली का प्रयोग किया है | बाघ के आगे हिरन का नाचना, बिल्ली के आगे मूसा, मछली बगुले को भगाये, उसी प्रकार उस जंगल में दिखे खरगोशों ने उन भयंकर कुत्तों को भगाया, चूहे को देखकर बिल्लियों का भागना जैसी अभिव्यक्तियाँ प्रकृति के रहस्यातक अनुभूति का संकेत देती हैं | राजा बलराम का इन सब को देखकर अचंभित हो जाना प्रकृति को समझने में प्रस्तुत सीमाओं का संकेत देती है | (पृ. ३९) लोक साहित्य की कथा शैली में फंतासी का मुक्त प्रयोग किया जाता है - मात्र कहानी को रोचक बनाने के लिए नहीं वरन रहस्यात्मक अनुभूति को अधिक सशक्त करने के लिए | इसके भीतर एक सन्देश छुपा होता है | राजा बलराम भी इसे 'अनदेखी घटना, अनसुनी बात' कहते हैं | (पृ. ४०) ये सब कुछ उस स्थान की महिमा के सूचक हैं |

भोर का सुन्दर वर्णन आलंकारिकता का संकेत देता है -

"स्वच्छ पानी में स्नान करने
क्या आई देवी उषा ?
भोर-तारे का पहन गहना
अपने माथामणी की वेशभूषा" (पृ. ४२)

तो अमावस के आच्छादित रात्रि का सुन्दर वर्णन राजा को 'मंथन' करने के लिए तत्पर करता है | (पृ. ४०)

आगे बढ़ने के लिए उसे नदी पार करनी थी जहां वो -

"अथाह जल, ताल ताल पानी
दिखते मगरमच्छों के झुण्ड
और पानी में खेल रहे थे
जल सर्पों के झुण्ड" (पृ. ४३)

- से लड़ते हुए राजा जब पानी में कूदने की ठान लेता है तो बो बाह्य तत्वों के कारण प्रस्तुत भय पर विजय प्राप्त करता है | तैर कर उसे उस पार देवी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है तो सर्वत्र व्याप्त रूपक का आभास होता है | (पृ. ४३) आध्यात्मिक एवं दार्शनिक अनुभूतियों के लिए इस संसार रुपी ताल में रहने वाले मगरमच्छ एवं सर्प जैसे इन्द्रियों से लड़ना पड़ता है | इसका सूचक है उस सर्ग के अंत में कवि का कहना -

"उसने देखा, सुबह का तार
खो रहा था धुंधल का भीतर
धीरे-धीरे मिट रहा था तिमिर
रोशन हो रहे थे जंगल-झार |" (पृ. ४७)

प्रात: काल के सूर्य की किरणों की रोशनी जहां एक तरफ प्राकृतिक अन्धकार मिटा रहा था, सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा था, वहीं पर दूसरी ओर राजा के मन का अंधकार भी मिटता चला गया, ज्ञान से वो प्रकाशित हो गया |

'हमारे गाँव का श्मशान घाट' नामक कविता में ने ग्रामीण तथा लोक जीवन से जुड़े एक सर्वसामान्य स्थल का वर्णन करते हुए प्राकृतिक तत्वों का सहारा लिया है | (पृ. ६०)

"शाम को ढलते ही सियार भूँकते
लकड़बग्घों की हुंकार
यह है हमारा गान का श्मशान घात |
चारों तरफ आम के बगीचे
उसमें उल्लू और जेई चिड़िया
उनके घुग्घाने की आवाज |
...............................
दूसरे किनारे छायादार बरगद के नीचे श्मशान देवी का मंदिर उस अज्ञात शक्ति का संकेत देता है | फिर जब कवि कहते हैं –

श्मशान भूमि में लगता डर
किन्तु यह हमारा असली घर
यहां की कई लोग यात्रा कर चुके हैं
और बहुत सारे हैं जाने को तैयार | (पृ. ६१)

तो ग्राम्य जीवन के व्यवहारिक तथा दार्शनिक पक्षों को उद्घाटित करता है |

भूमंडलीकरण की स्थिति में, आधुनिकता की अंधी दौड़ में, मनुष्य ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है, अपने स्वार्थ की पूर्ती हेतु उसका लाभ उठाया है | इसका एक सशक्त उदाहरण मिलता है जब हम गाँव के उद्धार के लिए नदियों पर बाँध बनाते हैं और इसके कारण वही गाँव डूब जाते हैं | विस्थापन की इस परिस्थिति का दुखदायी एवं हृदयद्रावक प्रभाव पड़ता है उस बुढ़िया पर जो 'एक मुट्ठी चावल के लिए' (पृ. ६४) कविता का केंद्रीय पात्र है | नब्बे की उम्र में भी उसे जी-तोड़ परिश्रम करना पड रहा है सिर्फ इसलिए की वो जीवित रह सके | एक जमींदार का फलता-फूलता परिवार इंद्रावती बाँध के बनते समय बह गया | वो अनाथ हो गयी | साथ ही शहर से पर्यटकों का आकर उस बूढ़ी की तस्वीरें खींचना, उसकी कहानी सुनना तथा भीख देने की चेष्टा करना कवि के आधुनिकताबोध को दर्शाता है | शहरी मनुष्य प्रकृति को, जान-जातियों को ऐसे देखता है जैसे वो किसी अजायबघर में हों | बाँध परियोजनाएं किसी शहरी व्यक्ति की कल्पना का मूर्त रूप होता है | वो उसे बनाता है जिसके कारण ग्रामीणों तथा जनजातियों का बहुत नुकसान होता है | फिर वो उन्हीं लोगों को देखने जाता है | प्रकृति को माध्यम बनाकर, ये एक नई औपनिवेशिक स्थिति के रूप में उभरती है |

बदलते मौसम के कारण प्रकृति के अनेक स्वरूपों का चित्रण करते हुए कवि पाठक की आँखों के सामने उस ऋतु का बिम्ब खड़ा कर देते हैं |

'चैत की सुबह' (पृ. ७०) कविता तो पूर्णत: प्राकृतिक सौंदर्य के वर्णन पर समर्पित है | काव्यात्मकता, लयात्मकता, अनुप्रास से ओत-प्रोत यह कविता हमारी आँखों के सामने चैत में प्रकृति का बिम्ब प्रस्तुत करती है |

वहीं 'गर्मी' कविता में प्रकृति के विपरीत स्वरूप का वर्णम किया है –

चैत ख़त्म, वैशाख शुरू
तपने लगा सूरज
नदी-नाले सूखे खड़ -खड़
डूब-लता गए मुरझा | (पृ. १३३)

परन्तु अपने पूर्वजों द्वारा दी हुई सीख को याद करते हुए -
जितनी ज्यादा गर्मी, उतनी ही वर्षा,
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"दुःख सहोगे, मिलेगा सुख” कहकर सहिष्णुता का सन्देश देते हैं | (पृ. १३४)

वर्षा ऋतु पर आधारित कविता 'बारिश' में 'कालाहांडी मेघ घुमड़ते, आते उत्तर पश्चिमी कोन' कहकर 'बादलों की गर्जन, कीटों की चीत्कार, झींगुरों की झींकारी, मेंढक की हुलहुली'(पृ. १३५) के माध्यम से वर्षा ऋतु के संगीतमय वातावरण का लयात्मक वर्णन है | उस कविता के अंत में भी एक दार्शनिक - सामाजिक सन्देश देते हुए कहते हैं -

"उदार लोग रखते बचाकर,
अपनी मेहनत का धन
बारिश की तरह देते दान
परहितार्थ तन-मन-धन | "(पृ. १३६)

'कामधेनु' कविता में विशेषत: उत्तर आधुनिक परिप्रेक्ष्य के मानव की मोह-ग्रसित, सग्रहात्मक बुद्धि तथा स्वार्थ एवं लोग से लिप्त मनुष्य की गाथा है | (७७) मिथक के अनुसार कामधेनु हमारी सभी इच्छाओं की आपूर्ति करती है | आधुनिक जीवन में भोग लिप्सा से सम्बंधित सभी पदार्थों को भी वो प्रदान करता है | अठारह माले का घर, नौकर-चाकर, लक्षाधिपति होना, सोना पहनना, जॉब नोटों से भरा रहना, आकर्षक सुन्दर नवयुवती का होना - ये सभी भोग-लिप्सा के सूचक हैं | परन्तु मानव मन 'पवन-गति' से उड़ता है, अधिक, और अधिक' मांगता है |

'रंग लगे बूढ़े का अंतिम संस्कार' कविता में फागुन की होली के समय एक वृद्ध की मृत्यु हो जाती है | परम्परा के अनुसार तीन दिन का शोक मनाना होता है तो सहज भाव से सभी दुखी हो जाते हैं | सभी को चिंता है की जितने रंग बटोरे हैं उनका क्या होगा | उस मृतक वृद्ध को कोसते हैं, गाली देते हैं | अंतत: अंतिम संस्कार के समय गाँव वाले उसके मृतक शरीर पर सभी रंग उंडेल देते हैं |( पृ. ७०) जीवन की विडंबनाओं को अभिव्यक्त करती ये कविता फिर से मानव प्रकृति के सूचक के रूप में प्रस्तुत होती है |

अनादि काल से मानव एवं मृग का घनिष्ठ अंत:सम्बन्ध रहा है | परन्तु विडंबना यह है कि सभ्यता के तथाकथित विकास के साथ, इस सम्बन्ध में, कृत्रिमता आ गयी है | सभ्यता के विकास ने, प्राय: ,मनुष्य को संवेदनहीन बना दिया है | इसलिए आए दिन हम मनुष्य एवं प्राणियों के बीच द्वंद्व की परिस्थितियों को उत्पन्न होते देखते हैं | 'पशु और मनुष्य' कविता में संवेदनहीन होते मनुष्य का चित्रण है जो भय से प्रेरित हो जरूरतमन्द की मदद करने से हिचकिचाता है | उसे एक कुत्तिया सबक सिखाती है| क्षमतावान मनुष्य इसी प्रकार अपने भीतर छुपे अनेक निषेधात्मक भावनाओं के कारण अपनी प्रकृति के विपरीत काम करता है | 'नाम मनुष्य, विवेकशील होकर भी विचार नहीं ठीक..... " और कुत्तिया के मुंह से कहते हैं कि 'पशु-मनुष्य का भेदभाव सालता मुझे हर बार |" (पृ. ८२) सड़क बनने का रूपक मानव सभ्यता के विकास के लिए प्रयुक्त करते हुए कवि ने उस विडंबनात्मक स्थिति को दिखाया है जहां भौतिक सुख तो बढ़ रहे हैं परन्तु मनुष्य भावनाशून्य होता जा रहा है |


अपनी स्वार्थ हेतु मनुष्य ने पर्यावरण को बहुत अधिक प्रदूषित कर दिया है | पैदावार अधिक करने के लिए ज़हरीले कीटनाशकों के कारण पर्यावरण की हानी हो रही है | "रसायन, कीटनाशकों से प्रदूषित हुआ जल, वायु, मिट्टी, जिसके कारण रोग-बीमारी से आधी उम्र में हो जाता मरण" | (पृ. ८३) 'चेतावनी' नामक इसी कविता में विदेशी कंपनियों के कारण हो रही किसानों की दुर्दशा के प्रति संकेत है | प्रदूषण को उत्पन्न करने वाली स्थितियों का ब्योरा देते हुए कवि 'स्वच्छ भारत'’ में कहते हैं , "एक ईस्ट इंडिया कंपनी गयी तो आई पांच हजार, कारखानों से निर्गत धुंए से हवा हो गयी कदाकार" | (पृ. ८५) ‘चेतावनी’ कविता में 'स्वच्छ भारत' का संकेत देते हुए कवि उसी शीर्षक की एक कविता में देश को और अधिक सशक्त करने की संकल्पना प्रस्तुत करते हुए कहते हैं स्वावलम्बन से ही इस देश को शक्ति मिलेगी | सर्वधर्म समभाव से ही इस देश को मजबूत बनाया जा सकता है | "युगों युगों से अखंड भारत, नहीं हुए टुकड़े अनेक| स्वच्छ भारत में, फहराने दो, भाइयों तिरंगा एक|"( पृ. ८५ ) राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत इस कविता में राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक मानसिकता का सशक्त वर्णन प्राप्त है | इसी राष्ट्र प्रेम से प्रेरित एक अन्य कविता है 'संचार धुन में गीत' | "इस मिट्टी के पानी, पवन में गढ़ा है मेरा जीवन" कहते हुए कवि ने 'इस मिट्टी की महिमा, गरिमा' का गुणगान किया है | दुलना बूढ़ी के मुंह से कहलवाते हैं कि, 'असली धन जन्मस्थान की मिट्टी है....जहां मैं मरूंगी डालना इस मिट्टी को ही,..... " (मिट्टी का आदर पृ. ९४) दार्शनिक मनोवृत्ति का सबूत देते हुए कविवर ने 'तितली' कविता में तितली में होने वाले परिवर्तनों, विशिष्टत: एक छोटे से कीड़े से सुन्दर तितली में परिवर्तित होने वाली प्रक्रिया के रूपक के माध्यम से कवि ने
“अज्ञान से ज्ञान, ज्ञान से ध्यान, बदलती जीवन धारा
ज्ञान के दिनों से उड़ता मनुष्य संसार
अंधकार से प्रकाश, नर्क से स्वर्ग, ये हैं कर्म गति
तितली की तरह पाता आदर, जीवन की उन्नति |" (पृ. ८७)

सरल से सरल शब्दों में युगों का ज्ञान बाँटते हुए कविवर ने मानव प्रकृति एवं जीवन की गूढ़तम सत्य को उद्घाटित किया है | कहते है कवि ऋषि होता है तथा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कवि हलधर नाग में है | 'लालटेन' के एक सरल रूपक के माध्यम से, मिथक का उदाहरण लेते हुए कवी ने स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार दिए का ताप अधिक हो जाने पर लालटेन टूट जाती है उसी प्रकार मनुष्य के लिए भी उसका क्रोध, अहंकार आदि भस्म कर देता है जैसे दुर्योधन के साथ हुआ था | (पृ. १३१)


इसी विचार को आगे बढ़ाती है उनकी कविता 'अग्नि' |

जगत भीतर जीव का गठन
आकाश, मिट्टी पानी, पवन
और अग्नि करती सम्मिश्रण
पांच तत्वों से जन्मती यह देह
कहा जाता जीवन | (पृ. १३२)

उनकी कविता में प्रकृति की छवियों को सम्पूर्ण सौंदर्य में प्रस्तुत किया गया है जो न केवल प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि प्रकृति के साथ अपने समुदाय का अंत:सम्बन्ध को व्यक्त करता है जो उनकी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं | प्राकृतिक दुनिया की छवियां सांस्कृतिक परंपरा की छवियां हैं | जनजातियों के लिए भूमि वो माध्यम है जो आध्यात्मिक विश्वासों और भूमि और प्राकृतिक दुनिया के साथ मूर्त संवाद पर आधारित है। यह बातचीत उपनिवेशवाद द्वारा बाधित हुई थी और कई मामलों में मूल निवासी अपने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आधार से उखड़ गए थे, जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान का नुकसान हुआ था जो उस संबंध में इतनी दृढ़ता से प्रभावित हुआ था। कवि प्राकृतिक दुनिया को मूल संस्कृति के एक अंतर्निहित हिस्से के रूप में प्रस्तुत करता है, और वर्तमान में अपनी भूमि के साथ सम्बन्ध की निरंतरता को प्रकट करने के लिए अतीत प्रेरणा ग्रहण करता है |

साहित्य और पर्यावरण के बीच संबंधों की जांच में, यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि, उत्तर औपनिवेशिक परिवेश में परिस्थिति में अपने अस्तित्व का लोप, एक सांस्कृतिक अलगाव जिसमें सांस्कृतिक परंपराओं, इतिहास और राष्ट्रीय चरित्र का उन्मूलन शामिल है। अलगाव की प्रतिक्रिया उपनिवेशित संस्कृतियों द्वारा सांस्कृतिक पहचान की भावना को पुनः प्राप्त करने और पुन: स्थापित करने का प्रयास है। उनकी संस्कृति के महत्व और वैधता की पुष्टि - ये चित्र पाठकों को स्वदेशी संस्कृति में निहित दर्शन के करीब लाते हैं, उन परंपराओं और रीति-रिवाजों को जो अपनी भूमि के उपनिवेशण के दौरान पूरी सभ्यताओं के विस्थापन के कारण उखड़ गए और खो गए हैं। मौखिक परंपरा की निरंतरता के रूप में कविता का उपयोग करते हुए, ये लेखक प्रकृति की छवियों का उपयोग करते हैं और इन व्यक्तिगत संस्कृतियों के लिए इसका अर्थ कवि को लगभग मूर्त रूप में अनुमति देता है, उस खोई हुई भूमि और अपने लोगों के साथ चली आ रही परंपराओं को पुनः प्राप्त करता है। इस तरह ये कवि अपने लोगों के लिए पहचान कायम करते हैं। कवि भूमि और संस्कृति के नुकसान पर जोर देता है - लोगों को कविता के साथ भूमि से जोड़ता है। न केवल अपने लोगों को, बल्कि पौधों और जानवरों को भी वो घनिष्ठता प्रदर्शित करता है उसके 'हम' में मात्र मनुष्य नहीं पर्यावरण भी शामिल है | कवि ने , एक प्रतिभागी और एक पर्यवेक्षक, दोनों के रूप में प्रकृति की भूमिका को शामिल किया है - यहाँ प्रकृति इतिहास और वर्तमान दोनों के उत्सव का एक अभिन्न अंग है, क्योंकि यह एक वह स्वयं प्रतिभागी भी है और उपकरण भी | कविता केवल नदियों, पहाड़ों, मिट्टी आदि पर्यावरण-सम्बन्धी तत्वों परिवर्तनों का चित्रण नहीं है, हालांकि, उम्र बढ़ने और संबलपुरी लोगों के व्यक्तिगत जीवन में परिवर्तन - प्रकृति की कालातीतता - पाठकों को कई अलग-अलग तरीकों से परिचित कराती है जिसमें नवाजो लोग अपनी भूमि से जुड़े हुए हैं; ऐतिहासिक रूप से, शारीरिक और आध्यात्मिक रूप से - उस सम्बन्ध को मजबूत करता है जो संबलपुरी लोगों के अतीत और वर्तमान के बीच है, और उनके भविष्य की पीढ़ियों के साथ उनके संबंध को मजबूत करता है।


सन्दर्भ ग्रन्थ :
हलधर नाग का काव्य संसार, अनुवादक दिनेश कुमार माली, पांडुलिपि प्रकाशन, दिल्ली, २०२० ISBN : 978-81-7463-153-4



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कवि हलधर नाग की कविताओं में लोक संस्कृति और लोक चेतना
डॉ.एस्.प्रीतिलता
असिस्टन्ट प्रोफेसर
हिन्दी विभागाध्यक्षा
लेडी डोक कॉलेज, मदुरै।
ईमेल- priti2767gmail.com

संपूर्ण विश्व में भारत एक ऐसा देश है जो विशाल गणतंत्र और अनेकता में एकता के लिए विख्यात है। इसकी संस्कृति विश्व प्रसिद्ध है। ऐसी संस्कृति की सुरक्षा का श्रेय भारतीय ग्राम्य जीवन को जाता है। भारतीय लोक साहित्य को लोक संस्कृति ही जीवन्तता प्रदान करती है। शहरीकरण के बढती प्रभाव ग्राम्य संस्कृति पर जरुर पडा है, पर लोक जीवन लगातार इसका विरोध कर लोक संस्कृति को मिटने नहीं देता। लोक कवि भी अपनी कविताओं के द्वारा लोक संस्कृति को गरिमा प्रदान कर जन-जन तक इसकी महत्ता को पहुँचाते हैं।।
पश्चिमा ओडिशा संबलपुर के बरगढ जिले में सन् 1950 को जन्मे कविरत्न हलधर नाग की कविता और गीतों में लोक संस्कृति का सूक्ष्माति सूक्ष्म वर्णन है। जन्मभूमि की गंध उनकी साँसों में धुल-मिल गयी है। विभिन्न मंच पर पद्मश्री हलधर नाग जैसे अपनी कविताओं को अनायास बोलते हैं और गीतों को सरस गाते हैं शायद ही वर्तमान के ऐसे कोई कवि नहीं हैं। अति आश्चर्य का विषय यह हे कि जितनी बार वह अपनी कविताओं को बोलते है या गाते हैं हर बार उसमें काव्यानन्द पूरववत् अक्षय रहता है। उनका नस-नस काव्य रस से भरा पडा है। उनकी आँखे कविता बोलती हैं। उन्होंने कविता को जिआ है और अब भी जी रहे हैं। सीधा-साधा, सरल, निष्कपट यह लोक कवि का जीवन और साहित्य लोक संस्कृति की नाद और सौंदर्य से भरा है। वह अनेक सत्य घटना को रसर्केली, डाल्खाई, करमाई आदि लोकगीतों में अति सुन्दर गाते है। लोकगीत के साथ बाजा बजाना हलधर जी का विशेष कला है। वह कहते हैं कि जन्म से लेकर मृत्यु तक बाजा और गीत का संबंध है। उसमें उनकी कोसली भाषा में निहित अपनापन इन संबंधों को और भी दृढ कर देती है। प्रसिद्ध गजलकार, गीतकार और फिल्म निर्माता गुलजार हलधर को लिखे अपने पत्र में कहते हैं – “When the poet steps on the earth in his village, it feels like he is working across the globe and when he speaks to himself, it feels as if he were speaking to every individual living on this globe”.
हलधर जी की कविता ढोड बरगछ्, चइतर् सकाळ, श्री समलेइ , छोण छुआ पाँस्टा आदि अनेक कविताओं में लोक संस्कृति का सुन्दर रुप द्रष्टव्य है। ‘ढोड बरगछ्’ कविता में बूढा बरगद के गाँव की पीढी दर पीढी से जुडी लगाव को दर्शाते हुए कवि की पंक्तियाँ इस प्रकार कहती है ---
अजा पनअजा टिपन अजा जे
चिनहार जनार जने
चढूथिले गछे झुलुथिले दुलि
गढा बएसिआ दिने।
अर्थात दादा परदादा और उनके दादा, दोस्त ज्ञात जन / चढ कर पेड झूला झूलते /जब युवा थे।
कवि हलधर नाग स्वयं को माटिर मणिष (इस मिट्टी का मानव) कहते हैं। दिनेश कुमार माली के द्वारा अनूदित उनकी कविता ‘संचार धून में गीत’ की पंक्तियाँ इस प्रकार है –
इस मिट्टी की महिमा, इस मिट्टी की गरिमा,
इस मिट्टटी का उडता बाना
इस मिट्टी में फलती सोने की फसल, इस मिट्टि से मिलता दाना।
दिनेश जी के द्वारा अनूदित कविता ‘कहानी खत्म’ में हलधर जी कहते हैं कि भारतीय संस्कृति अत्यन्त सुखदायी है। उनकी पंक्तियाँ निम्नप्रकार है।
विदेश से लौटकर आए स्वामी विवेकानंद,
भारत भूमि को छूते ही मिला उन्हें परम आनंद।
भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने में त्योहारों का विशेष महत्व है। वर्तमान महानगरीय जीवन में एकल परिवार की संख्या बढती जा रही है। यद्यपि भिन्न-भिन्न त्योहार चहार दीवारों के अन्दर वे मनाते हैं तथापि ग्रामीण परिवेश में त्योहारों की विशेषता कुछ और है। इसका असली आनन्द हलधर जी की कविता ‘नुआखाइ’ (अनूदित) में इसप्रकार है—
त्योहार करता मेल मिलाप
शत्रु भी हो जाता भाई
जगत में नहीं ऐसा त्योहार
जैसा उत्कर्ष है नुआखाई।
हलधर जी की कविता ‘माँ समलेई’ में त्योहार का आनन्द दिनेश माली के हिन्दी अनुवाद में निम्नप्रकार है।
त्योहार भाव का भूखा है
निभाना चाहिए बरक्स
साल में एक बार आता
मिटाने रिश्तों का खटास।
नहीं भेद भाव, जाति, धर्म
सभी अपेन भाई बहन
मनुष्य समाज में नुआखाई
है त्योहार बडा महान।
‘रंग लगे बूढे का अंतिम संस्कार’ कविता में कवि लिखते हैं कि जन्म हो या मृत्यु, गाँव के लोग एकता के साथ आनंद हो या शोक एक मन होकर पालन करते हैं। यह निम्न पंक्तियाँ दर्शाती है।
गाँव में हुई है मौत
नहीं चलेगा आमिष
तीन दिन तक, हे भाई
रंगों का खेल बंद, प्रसाद बंद, पूजा पर भी प्रतिबंध।
गाँव के लोगों में परस्पर निःस्वार्थ सहयोग अन्य देशों में विरल है। संयुक्त परिवार में स्नेह-सौहार्द् और स्वार्थ रहित सेवा अन्यत्र दुर्लभ है। हलधर जी की कविता ‘छोटे भाई का साहस’ एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
जमीन-बाडी डूब गई अतिवृष्टि का बहाव,
बिना हिचके, बिना भय, बढे बलराम पाँव।
तैर कर पार की मायावती, पहुँचे बरपदर
सुदुरानी को पीठ पर लादकर आए बराबर।
भीगे बदन कंधे पर दाई को लेकर घर में हुआ दाखिल,
रानी को राहत मिली, हुआ प्रसव सफल।
हलधर नाग जी एक ऐसे लोक कवि हैं जिन्हें लोक संस्कृति से अलग देखा ही नहीं जा सकता। उनकी भाषा, वेशभूषा, जीवन, मिट्टी से उनकी लगाव और लोक संस्कृति से जुडी उनकी कविताएँ लोक संस्कृति की संरक्षक हैं।
लोकचेतना
कवि हलधर नाग अपनी कविता और गीतों के माध्यम से लोगों को युगीन सत्य से परिचित कराने के साथ-साथ चेतना भी देते हैं। वाणी अमूल्य है। वाणी की सत्यता से स्वर्ग और वाणी की मिथ्या से नरक प्राप्ति पर कवि चेतावनी देते हैं। भय, लोभ और असत्य से दूर रहनेवाले हलधर जी झूठ बोलने का भयंकर परिणाम ‘असत् नरक्’ (अनूदित) कविता में निम्न प्रकार कहते हैं -
झूठ बोलने से बढता धन
धन बढने से बढता मन,
मन बढने से बढता भोग,
भोग बढने से बढता रोग
रोग बढने से जाती जान
जान गई तो मिलता नरक स्थान।
प्राणी मात्र की दया कवि रत्न हलधर जी का धर्म है। पशुपक्षिओं के स्वर से उनकी भावनाओं को पहचानने वाले कवि जीव हत्या का विरोध करते हैं। ‘अछूत’ कविता में कवि निम्नप्रकार लिखा है— मैं हूँ जीव, मेरे खातिर
बीस जीवों का संहार
हे प्रभु, मेरे सिरपर पाप
भाड में जाए घर संसार।
‘चेतावनी’ कविता में कवि कृषि में विदेशी रसायनिक कीटनाशक प्रयोग का परिणाम, किसानों की दुर्दशा को दर्शाने के साथ कृषि में देशी खाद का प्रयोग कर एक स्वस्थ और स्वच्छ भारत की कामना करते हैं।
उर्वरक, कीटनाशक, बीज बेचती विदेशी कंपनी
मीठे गुड का आनंद लेती, सभी का धन चूसती
किसान के गले में फाँसी का फंदा, सिर पर हाथ बारहमास......
देखें उनकी दुर्दशा......
छोड रसायनिक खाद, कीटनाशक, हाइब्रिड धान
गाय गोबर से करो चास.....
स्वच्छ बारत होगा तो टिकेंगे हमारा मूल्य महान,
स्वच्छ भारत हो।
गांधीजी से प्रभावित कवि हलधर नाग हिंसा का विरोध करते है। धन बढने से हिंसा बढती है और हिंसा बढने से सर्वनाश होता है। ‘लालटेन’ कविता में कवि समाज को हिंसा रुपी आग कैसे नष्ट भ्रष्ट कर देता है कहते हैं।
ऊपर लगा निर्मल काँच
जल रही भीतर हिंसा की लौ
ईंधन है धन, इसलिए भभकती ज्यादा लौ।
जब तेज हो जाती है आग
टूट जाता है काँच
भीतर हिंसा की आग,
दूर्योधन का सत्यानाश।
कविरत्न पद्मश्री हलधर नाग ईश्वर पर विश्वास करते हैं। यद्यपि उन्होंने भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ माना है फिर भी अन्य धर्मों को वह सम्मान देते हैं और सब अलग-अलग होते हुए भी एक माना है। ‘स्वच्छ भारत’ कविता में उन्होने दिखाया है कि धार्मिक एकता से राष्ट्रीय एकता संभव है।
भारतीय हम हिन्दु, ईसाई और मुसलमान
राम, कृष्ण, अल्लाह, मुहम्मद, यीशु सब एक ही भगवान,
युगों-युगों से अखण्ड भारत, नहीं हुए टुकडे अनेक
स्वच्छ भारत में, फहराने दो भाइयों , तिरंगा एक।
आजकल लोगों के मन में उपभोक्तावादी मानसिकता उपज रही है। ऑनलाइन व्यापार इसे अधिक प्रश्रय दिया है। इसका परिणाम बताते हुए कवि अनावश्यक आर्थिक दुर्दशा में न फँसने के लिए उपदेश देते है। ‘भ्रमबाजार’ कविता में इस प्रकार है—
हरदम चलता खरीदना-बेचना
हमेशा बाजार में भीड भडकम
लगी रहती भ्रम बाजार
घर लौटते, जब पैसे खत्म।
धन के मोह से मदमस्त मनुष्य जीवन के यथार्थ को भूल जाता है। धन सम्पत्ति, शारीरिक सुन्दरता यह सब अस्थायी है। मृत्यु निश्चित और सत्य है। ‘जरा सोचो’ और ‘हमारे गाँव का श्मशान घाट’ कविताओं की पंक्तियाँ इसकी यथार्थता को सिद्ध करती है।
सुन्दर दिखो या कुरूप
बिस्तर पर सोओ या फर्श पर
जरा सोचो,
अंत में कीडे-मकोडे का बोजन बनेगा यह शरीर। (जरा सोचो)

श्मशान भूमि से लगता है डर
लेकिन यह हमेशा असली घर
यहाँ की कई लोग यात्रा कर चुके हैं,
और बहुत सारे जाने को हैं तैयार
यहाँ हम सब यात्रा करेंगे
अन्त में यहाँ पर इकट्ठे होंगे
यह है हमारे गाँव का श्मशान घाट।
समय बहुत बलवान है। वह राजा को रंक और रंक को राजा बना देता है। इस सत्य को उजागर करते हुए कवि ‘एक मुट्ठी चावल के लिए’ कविता में एक सत्य घटना के द्वारा दिखाते है।
दशहरा-छुट्टी पर कॉलेज के छात्र, आए यहाँ करने वन भ्रमण
इधर उधर देखा उन्होंने
दिखाई पडी पत्थर तोडती बूढी
एक पहाड के नीचे।

समय सर्वाधिक बलवान
शगड-डंडे की तरह ऊपर नीचे,
किस्मत जाती बदल, राजा हो जाता भिखारी
एक मुट्ठी चावल के लिए
जमींदारनी धीरा तोड रही पत्थर, मारकर मन।
निष्कर्ष -जन्म से लेकर मरण तक मनुष्य जो समाज से बंधा है उस समाज के यथार्थ को दिखाने के साथ-साथ अहिंसा, सत्य के द्वारा लोक संस्कृति की रक्षा कर स्वस्थ और स्वच्छ भारत का निर्माण करना हलधर जी चाहते हैं और इस दिशा में वह कार्यरत हैं। उनका जीवन और साहित्य लोक संस्कृति को ही अर्पित है।

संदर्भ:
1. Surendra Nath, Kavyanjali Vol.II, Zenith Star Publisher, Cuttack, Odisha,2018
2. माली दिनेश कुमार, हलधर नाग का काव्य-संसार, प्रथम संस्करण, पांडुलिपि प्रकाशन, ईस्ट आजाद नगर, दिल्ली, 2020
3. https://mycitylinks.in/gulzar-writes-a-letter-to-kosali-poet-laureate-haldhar-nag/

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हलधर नाग व गांधीवाद
कमल कान्त वत्स
“लोक कविरत्न हलधर नाग जी के 70वीं जन्मदिवस पर समर्पित”

‘लोक कविरत्न हलधर नाग‘ के बारे में कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाने के समान होगा। कवि हलधर नाग न केवल पश्चिम उड़ीसा के लिए गौरव हैं बल्कि वे पूरे भारतवर्ष का गौरव हैं। उनके काव्य में सामान्य जीवन के अलग-अगल प्रतिबिम्बों को दर्शाया गया है। हलधर नाग ने अछूत महाकाव्य के मियकीय पात्र शबरी के माध्यम से छुआ-छूत का भेदभाव मिटाने के लिए लोगों को जागरूक किया है। मां सरस्वती की कृपा से उन्हे सृजन शक्ति व दूरदृष्टि प्राप्त है।
कवि हलधर नाग किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं आज उनकी रचनाएं चारों दिशाओं में प्रकाश फैला रही हैं। उनकी रचनाओं में गांधीवादी विचारधारा की खुशबु महक रही है। जिस प्रकार गांधी जी ने अपना सारा जीवन सामाजिक समरसता व सामाजिक बुराई को दूर करने में लगा दिया था, उसी प्रकार कविरत्न हलधर ने भी अपना सम्पूर्ण जीवन समाज की भलाई के लिए न्योछावर कर दिया।
कवि हलधर नाग अत्यन्त सादा जीवन व्यतीत करते हैं एक छोती और बनियान ही उनकी पुंजी हैं। पांव में बिना जुते व चप्पल धारण किए जीव सेवा में लीन हैं कविरत्न हलधर नाग जी। अपने आप को इस वेशभूषा में उर्जावान महसूस करते हैं, उनके दर्शनमात्र से एक बारगी महसूस होता है कि इस धरा पर हलधर नाग के रूप में गांधी जी ने दूसरा जन्म लिया है। गांधी जी ने बचपन से ही अस्पृश्ता के विरूद्ध लड़ाई शुरू कर दी थी। तदोपरान्त दक्षिण अफ्रिका में भी छुआ-छूत के विरूद्ध आन्दोलन कर दबे-कुचले समाज को एक नई दिशा दिखाई। भारत आने पर यहां पर शोषित समाज की दशा व दुर्दशा देखकर वे अत्यन्त दुखी हुए। जब उन्होने देखा कि समरसता से दूर समाज का एक वर्ग दबा हुआ है और देश को गुलाम होने में अस्पृश्यता मुख्य कारण है। अतः उन्होने हरिजन संघ की स्थापना कर देश के राजनेताओं को इससे जोड़ा। इस दौर में छुआछूत अपने चरम पर थी, परन्तु गांधी जी के आदर्शो और सिद्धान्तों के कारण संघ ने सफलता प्राप्त की। संघ मूलतः बालक-बालिकाओं को शिक्षित करने का कार्य करता था। जिसका लाभ यह रहा कि शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक एकता व समरसता बढी व संघ द्वारा शिक्षित बच्चे सामाजिक बुराई का त्याग कर एक होकर देश सेवा में लगे।
महात्मा गांधी जी के विचारों व सिद्धान्तों को गांधीवाद कहा गया। गांधीवाद गांधी जी के सिद्धान्तों के कुछ नियमों का संकलन न होकर जीवन का दर्शन है जो जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
कविरत्न हलधर जी के अछूत महाकाव्य में गांधी जी के विचारों का प्रभाव देखा जा सकता है। जिस प्रकार गांधी जी समाज में एकता व समरसता स्थापित करना चाहते थे, उसी प्रकार हलधर नाग ने अपने महाकाव्य में शबरी व राम के माध्यम से छुआछूत को मिटाने का प्रयास किया है। आज उनके महाकाव्य घोर जातिवाद व छुआछुत पर तीक्ष्ण प्रहार किया गया है। उनके महाकाव्य अछूत की पंक्तियों से पता चलता है कि किस प्रकार निम्न जाति की स्त्री को देखकर
लोग भौहे सिकोड़ लेते हैं
शिष्यों ने पहचाना
नीच जात की शबरन
नाक भों सिकोड़ कर गुरू से बोले
चलो जल्दी करो निगमन
इस महाकाव्य की अन्य पंक्तियों से पता चलता है कि किस प्रकार शिष्य अपने गुरू से ईष्या करने लग जाते हैं जब उनके गुरू शबरी को अपने आश्रम में रखते हैं।
जिसके छुने से होते हैं अपवित्र
यहां रखकर गुरू ने क्या ठानी है
आश्रम हुआ प्रदूषित
हमारी इज्जत में हुई हानि है।
कवि की इन पंक्तियों ने छुआछूत को जड़ से खत्म करने का सराहनीय प्रयास किया है-
शबरी-शबरी राम में
थपथपाई उसकी कमर।
राम ने अपनी भक्त शबरी से मिलने के बाद उसके छूठे बेर खाकर सिद्ध किया कि इस संसार में सभी प्राणी एक समान हैं। इनसे आपस में भेदभाव नहीं करना चाहिए। शबरी ने अपने दुखों की व्यथा राम के सामने कहीं कि किस प्रकार वह मानव योनि में जन्म लेने के बाद भी कुत्तों से हीन हैं। किस प्रकार संसार के लोग उसे अछुत कहकर ठुकरा देते थे। वह प्रभु के सामने कहती है कि मैं पूरी दुनिया में अभिशाप हूं मेरा मर जाना ही बेहतर है।
इन पंक्तियों के माध्यम से समाज में छुआछूत को समाप्त करने का प्रयास किया है-
तुम्हारे चाहने से
क्या राम नहीं हुए अपवित्र
फिर भी तुम कहती हो, अछुत शबरी
हे शबरी अछूत
जिस प्रकार गांधी जी पूरे समाज में एकता स्थापित करना चाहते थे , उसी प्रकार हलधर नाग ने अपने महाकाव्य में भगवान और भक्त के माध्यम से छुआछूत की भावनाओं को समाप्त करने का संदेश दिया है। भगवान राम ने अपनी भक्त शबरी (नीच जाति की स्त्री) का बिना किसी भेदभाव के आलिंगन किया और उसके द्वारा दिए गए झूठे बेरों को निस्ंकोच खाया।
सारांशः - अतः अन्ततः कह सकते हैं कि हलधर नाग गांधीवादी विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित थे और वे उनकी तरह समानता के आधार पर समाज को बनाना चाहते थे। अपने इस कार्य को बिना किसी अन्य की सहायता के अनवरत अथक करते आ रहे महाकवि जीे इस युग में नवयुवकों में साधात् आदर्श की जीवित मिशाल है। साथ ही नव आगन्तुक कलम के सिपाहियों के लिए मार्गदर्शक हैं। मैं इस महान् परम विद्वान आत्मा को नमन करता हूं।

59, प्रीत, बावडी गेट,
पजावा मेन रोड़, भिवानी।
Kamalkantvats6@gmail.com
मोबाईल न0. 9409173646
सन्दर्भ सूची-
1. हलधर नाग का काव्य संसार - दिनेश कुमार माली (हलधर नाग का अछुत महाकाव्य)
2. आलेख महात्मा गान्धी और सामाजिक संस्था निर्मला देश पाण्डे 5, जुलाई 2015।
3. आलेख गांधीवाद की प्रांसगिकता न्यू इण्डिया।
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना












विलुप्त होती भाषाओं के लोक साहित्य का संरक्षण एवं संबलपुरी कोसली भाषा में हरधर नाग का योगदान
डॉ. भूषण पुआला
सरवती देवी महिला महाविद्यालय,
राजगांगपुर, सुंदरगड़, ओड़िशा

साहित्य समाज का दर्पण है, और लोक साहित्य को लोक संस्कृति का दर्पण कहा जाता है । यह भी कहा जाता है कि लोक संस्कृति का शरीर लोक साहित्य है, और लोक साहित्य की आत्मा लोक गीत है । साधारण जनता की चित्त वृत्ति में हर्ष-उल्लास, सुख-दुख, नृत्य-संगीत एवं भाव विचार ही लोक साहित्य है । लोक साहित्य की परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ संप्रेषित होती है । लोक साहित्य को पुरखा साहित्य भी कहा जा सकता है । लोक साहित्य हजारों वर्षों से मौखिक साहित्यिक परंपरा रही है । इसलिए मौखिक परंपरा को मौखिक साहित्य या लोक साहित्य कहा जा सकता हैं । लोक साहित्य पुरखों का अहम भूमिका रहा है क्योंकि किसी भी समाज में प्रचलित लोक गीतों, लोक कथा आदि सभी ने मिल कर रचे हैं । लिहाजा लोक साहित्य को पुरखा साहित्य कहा जाना चाहिए ।
लोक साहित्य में सामूहिकता, एकता, संहिता एवं सह अस्तित्व का दर्शन प्रतिफलित होती हैं, इन सारी प्रवृत्तियां पुरखा साहित्य में समाहित हैं । जन साधारण द्वारा गाये जाने वाली गीत को लोक गीत कहा जाता है । लोक साहित्य या लोक गीत किसी का व्यक्तिगत धरोहर नहीं बल्कि सामूहिक धरोहर है । इसलिए वे समुह में नृत्य-संगीत करके हर्ष-उल्लास एवं मौज-मस्ती से जीवन निर्वाह करते हैं । लोक साहित्य को कई भाषाओं के माध्यम से संरक्षण करने की प्रयास किया जा रहा है । लेकिन अब भी मौखिक साहित्य बहुत बड़ी मात्रा में असंग्रहीत है । आज भूमंडलीकरण के दौर में कई भाषाएँ या बोली विलुप्त होने के कगार पर है । केवल भाषा ही विलुप्त नहीं होगी बल्कि उनकी संस्कृति, परंपारिक ज्ञान-विज्ञान तथा उनके इतिहास समाप्त हो जाएगा । इसलिए पुरखों को देना होगा मान सम्मन एवं संरक्षण करना होगा उनके द्वारा रचा गया लोक साहित्य तथा ज्ञान-विज्ञान का ।
आज के उदारीकरण के दौर में कई भाषाएँ विलुप्त होने के कगार पर हैं । भाषा विलुप्त होने के कई कारण हो सकते हैं । पहला बोलने वालों की संख्या धारे-धीरे कम हो रहे हैं. और कई लोग अपनी मातृ भाषा को छोड़ कर दूसरी भाषा अपना रहे हैं । जिसके वजह से लोक साहित्य भी विलुप्त होता जा रहा है । किसी भी समाज के लोक साहित्य में उनकी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज एवं रहन-सहन प्रतिफलित होती है । भाषा अपने आप में समाज का प्रतिबिंव होती है । इसलिए विलुप्त हो रही भाषाओं का सृजनात्मक तरीक से आत्मसात करने की आवश्यक है । ताकि साहित्य लोक साहित्य को संग्रहीत करके भाषा को संरक्षण किया जा सकता है । अगर किसी भी समाज के लोक साहित्य नष्ट हो जाएगी तो केवल उसी समाज की धरोहर विलुप्त नहीं होगी बल्कि इस धरती से विलुप्त हो जाएगा ।
ओडिशा में कई भाषाएँ बोली जाती है , जैसे दक्षिण ओडिशा में कई आदिवासी भाषाएँ बोली जाती है । पश्चिम ओडिशा में संबलपुरी या कोसली भाषा बोली जाती है, तथा अन्य जिलों में ओडिया भाषा बोली जाती है । हम इस लेख में संबलपुरी लोक भाषा के बारे में चर्चा करेंगे । संबलपुरी हिंदी ओडिआ मिली-जुली भाषा है । संबलपुरी भाषा बोलने वालों की कुल आबादी लगभग 1 करोड़ से ज्यादा है । पश्चिम ओडिश के 11 जिलों में एवं छत्तीसगड़ के 4 जिलें में कोसली भाषा बोली जाती है । संबलपुरी केवल भाषा की पहचान नहीं बल्कि उनकी अपनी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज एवं वेश-भूषा की पहचान भी है । वे अपने आप को कोसली राज्य भी कहते हैं । संबलपुरी भाषा के लोक साहित्य कूट-कूट के भरी हुई है, तथा इस भाषा में कई उत्कृष्ट साहित्य लिखा जा चुका है । संबलपुरी कोसली भाषा के कई साहित्यकार प्राचीन काल से साहित्य लिख रहे हैं, इनमें से कई साहित्यकारों का नाम सामने आता है, यथा चैतन दास, बालाजी मेहर, लक्षण पाती, कपिल महापात्र, सत्यनारायण बोहिदेर, पंडित प्रायाग दत्त जोशी, खगेश्वर सेट्टी, इंद्रमणी साहु, नीलमाधब पाणी ग्राही, प्रफुल कुमार त्रीपाठी, प्रेम राम दुबे, हेमचंद्र आचार्य, मंगल चरण विश्वाल, पद्मश्री हरधर नाग, विनोद पासायद, होलबिंद बिसी, निमाई चरण पाणीग्राही, चिनमया कुमार पुजारी, हरेकृष्ण मेहेर आदि प्रमुख साहित्यकार है । हम इस लेख में केवल हलधर नाग के संबलपुरी कोसली भाषा में योगदान की चर्चा करेंगे ।
कवि पद्मश्री हलधर नाग संबलपुरी भाषा को विश्व में पहचान दिलाया है । नाग का जन्म 1950 में बरगड़ जिले के घेंस गांव में एक गरीब परिवार में हुआ था । जब वह 10 साल के थे उनके पिता जी का देहांत हो गया जिसके वजह से तीसरी कक्षा का बाद नहीं पढ़ सके । वह एक स्कूल में 16 साल तक काम किया । तत्पश्चात बैंक से 1000 रुपये लोन ले कर एक दुकान खूला तथा उस दुकान से उनकी कविता की यात्रा प्रारंभ होती है । उनके जीवन में अत्यंत संघर्षमय रहने के बावजूद वह कविता से जुड़े रहे । उनको अपने जीवन में कष्ट मिला और लड़ने केलिए प्रेरणा भी। कवि हलधर नाग जी कई लोक गीत यथा- करोमा गीत, कृष्ण भोजन गीत, डोणंगी गीत, डाल खाई रसोर खेली गीत, मेला झोड़ गीत, डुम खेली गीत सुनने केलिए गांव के आस-पास के लोग इकट्टा होते थे । उनके लोक गीतों से प्रभावित हो कर लोग उन्हें लोक कवि का नाम रखे और धीरे-धीरे हलधर जी लोक कवि से कवि के रूप में शीघ्र ही प्रसिद्ध हो गये । अब वह केवल संबलपुरी कोसली कवि नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय कवि बन गये ।
पद्मश्री हलधर नाग के साहित्य में समसामहिक राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, जनता की पीड़ा, प्रकृति के प्रेम, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज, धर्म, आध्यात्मिक एवं पौराणिक कथा आदि विशेषताएँ प्रतिफलित होती हैं । कवि परिवार के बार के बारे कहते हैं कि परिवार का केवल पति-पत्नी, बेटे-बेटी एवं भाई बहन नहीं बल्कि सारे मानव समाज एवं प्रकृति भी परिवार का हिस्सा है । उनका कहना है कि हमे लोग से प्यार एवं भाईचारा मिलती है और मानव प्रकृति पर ही निर्भर होता है, प्रकृति बिना जीवनाचार्य नामुमकिन है । लिहाजा प्रकृति भी हमारे परिवार का हिस्सा है ।
कवि हलधर जी मानव की ईर्ष्या, अहंकार के बारे में लालटेन कविता में लिखते हैं-
“ऊपर लगा निर्मल काँच,
जल रही भीतर हिंसा की लौ
ईंदन है धन,
इसलिए भभकती ज्यादा लौ ।
जब तेज हो जाती है आग
टूट जाता है कांच
भीतर हिंसा की आग,
दुर्योधन का सत्यानाश । ”
हलधर जी इस कविता में इंसान के भीतरा जन्म लेने वाली ईर्ष्या के बारे अवगत कराते हैं । ईर्ष्या से जलने वाले व्यक्ति के चेहरे पर दिव्य तथा भव्य दिखाई देता है । लेकिन उसके मन के भीतर ईर्ष्या एवं अहंकार छिपा रहती है । जब व्यक्ति के मन भीतर ईर्ष्या आग की तरह तेज हो जाती है तो ऐसे व्यक्ति पथ भ्रष्ट हो जाता है और सदा दुखी रहता है । इसलिए कवि इंसान को एक दूसरे से अहंकार रहित तथा आपस में प्रेम, भाईचारा से मिल-जुल कर रहना ही मानव की नैतिक गुण बातते है ।
कवि हलधर जी को एक साक्षात्कार के दौरान उनके रहन-सहन के बारे प्रश्न पूछा गया-
प्रश्न यह था कि आप कैसे रहते हैं और अपकी खान-पान कैसा है ? कवि उदाहरण के माध्यम से जवाब देते है, हम जंगल के पेड़-पौधे हैं और आप लोग बाग में लगे हुए पेड़-पौधे हैं । जंगल के पेड़-पौधे को पानी देने की जरूरत नहीं पड़ता है, वे अपने आप बड़े हो जाते हैं । लेकिन बाग के पेड़-पौधे को पानी देना पड़ता है । कवि कहते हैं कि हम जंगल के पेड़ है कैसे भी किसी तरह हम जीनव निर्वाह कर लेते हैं । लेकिन आप लोग पानी के बिना यानी पैसों के बिना जीवन निर्वाह नहीं कर पाते हैं । कवि के इस उदाहरण से यह ज्ञात होता है कि सामान्य जीवन जीने केलिए पैसों की जरूरत नहीं है । कवि उदाहरण से पूंजीवादी समाज के प्रति इंगित करते है । आज के इस पूंजीवादी समाज में इंसान अपने आपको भूल गया और पूंजी के पीछे भाग रहा है । ऐसी स्थिति में कवि का यह उदाहरण कितना प्रासंगिक लगता है ।
कवि के व्यक्तित्व से मुझे एक हिंदी के कवि मंगलेश डबराल की कविता याद आती है –
ताकत की दुनिया में जाकर मैं क्या करूँगा
मैं सैकड़ों हजारों जूते चप्पल लेकर क्या करूँगा
मेरे लिए एक जोड़ी जूते ही ठीक से रखना कठिन है
हजारों लाखों कपड़ों मोजों दस्तानों का मैं क्या करूँगा
उन्हें पहनने का हिसाब रखना असंभव ही होता ।
इस कविता के माध्यम से कवि हलधर नाग के व्यक्तित्व के हूबहू स्पष्ट प्रतीत होता है । कवि सादा जिंदगी निर्वाह करते हैं । उनके व्यक्तित्व में सादा जीवन उच्च विचार मिलता है । इससे यह प्रतीत होता है कि हलधर जी गांधी जी विचारधारा के कवि है । उनके व्यक्तित्व से अनुप्राणित हो कर इंसान को किसी भी तरह धन-दौलत तथा सुख-सुविधा की दुनियां इतर हो कर हर स्थिति में अपने आप को संतुष्ट रखने की अपरिहार्य है । कवि कहते है कि मनुष्य को अपने सीमित साधनों से अपने परिवारों के साथ प्रसन्न से रहना ही जिंदगी है । कवि हलधर जी एक ईमानदारी, सच्चरित्रता, सरलता तथा दूसरों के प्रति सहानभूति रखने वाले कवि है । वह सादा जीवन निर्वाह करने वाले व्यक्तित्व के धनी है ।
निष्कर्ष रूप में हलधर नाग जी अपनी संबलपुरी कोसली भाषा को विश्वस्तरीय तक पहुंचाने के साथ-साथ अपनी भाषा का गरिमा को बढाया है । वह संबलपुरी लोक साहित्य को संरक्षण करने साथ-साथ साहित्यिक क्षेत्र में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है । उनके साहित्य में सामाजिक चेतना, राजनीतिक व्यवस्था तथा पौराणिक कथाओं का आधार बना कर वर्तमान की परिस्थिति को दृष्टिगोचर कराते हैं ।

संदर्भ ग्रंथ
1. हलधर नाग का काव्य संसार, (2020) अनुवादक - दिनेश कुमार माली, पांडुलिपि प्रकाशक, दिल्ली- 110051
2. Loka kabi Haldhar nag Grantabali, (2000) Bidya Prakashan, Cuttack
3. Haldhar Nagkar Chantala Kabita, (2016) Beni Publications
वेब
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Sambalpuri_language

Haldhar Nag : A poet of the people

Professor Shantanu Sar

Sri Haldhar Nag was born on 31st March 1950 in a poor family, in the District of Bargarh Odisha. He never had any formal education, to be precise, he was a class 3rd dropout. For his poetic output, he was conferred with the Padmashree and many scholars are doing research on his work. Another feather in his cap is that, Sri Haldhar Nag was awarded Doctorate by Sambalpur University and Haldhar Granthabali-2, compiled by the University has been selected to be a part of the syllabus in Sambalpur University.
He is often compared with Gangadhar Meher(1862-1924) who was born in Bargarh and achieved great eminence in spite of not having education over Class 5. Both the poets rose to pinnacle of glory despite of working in inhospitable socio economic conditions. But the comparison between Gangadhar and Haldhar ends there– the former known as Swabhaba Kavi was writing in Sanskritised Odia and later in Koshali, the colloquial spoken language of the people of western Odisha without any ornate decoration of artificial literacy establishments. His words sprang from the rhythm of existence of people with whom he has a vital creative interaction. Though both Gangadhar and Haldhar have used Hindu Mythological themes extensively, the former had first hand knowledge of the Ramayan, Mahabharat and the writings of Kalidasa. Haldhar did not have that privilege, instead he had great knowledge of these mythological themes by listening to his father reading those works in the dimly lit lamp light. Haldhar had the memory of an ‘Elephant’, he can recite all his poems written till date purely from memory without any aid or assistance. Haldhar is deeply rooted in the soil, traditions nurture him, local clusters and rituals enrich him and with effortless ease he relates to the hopes, aspirations and anguish of the people. Basically, he is gifted with “mythological” vision as in his narratives, he makes myth so alive and relevant to the modern readers. Myths are stories that answer the fundamental questions of creation and more importantly justify a social order and system shaping the society. Eliot, the most towering modern poet used myths extensively in his narratives not for ornamentation, but as an inextricable part of his poetic vision. Besides working as a literary device, it also brings order, emphasizing “Eliots’s saying” to the immense panorama of futility and anarchy which is contemporary history by his own admission Eliot under the influence of Frazer’s “Golden Bough” has made immense use of “Motifs”, principal in ages or archetypes and magic in his monumental work ‘The Wasteland(1922)’.
Haldhar is a bare-foot poet like the iconic artist “M.F Hussain” and lives a very Spartan life- he never wore a shirt and even after being honored with the Padmashree, he lived by vending snacks to his village Folk. This essential simplicity is reflected in his literary manifestations that justifies the axiom “style is the man”. The words of Wordsworth in “The preface to the Lyrical Ballads”, resonate in the poetry of Haldhar. Humble and rustic life was generally chosen, because in that condition, the essential passion of the heart finds a better soil in which they can attain their maturity. Like Wordsworth he chose his subject matter and language from life, as in that state, essential passion co-exists with nature, as a result the poetry becomes a “spontaneous overflow of powerful emotions” without any trace of artificial decoration and verbal pomposity. He is a poet with a comprehensive soul “ A man speaking to men”. He strikes a responsive chord with the readers and listeners and more so when he recites his poems from his memory, he casts a hypnotic spell on the listeners who thrums in thousands to listen to this “inspired being”. For his imitable recitation style, he may be compared with Pablo Neruda, Chilean poet who was awarded Noble Prize in 1971, poet Gulzar paid him eloquent tribute by giving him a place of honor in his “ A poem a day” a poetry collection selected and translated by the legendary poet. The first two poems in this collection are Haldhar titled “ Pancha Amrut” and “Chiithi Devchherre Haldhar “.
In “PanchAmruta” is made by mixing curd honey jiggery and ghee and is used in puja and ABHISHEKA, but Haldhar deviated and says that Amruta or nectar flows from the seven seas, from the moon, from the breasts of the mother, from the words of the wise and from the pen of the poet. Bharat Bhala’s in Visual Bharat has devoted one episode to Haldhar and the life and essence of his creations are beautifully narrated by Gulzar and it begins with “ I am writing a letter to you Haldhar son of the soil of Sambalpur, this Adivasi Poet. His language is Kosli.” He further continues his tribute by saying that when Haldhar walks on his native soil, it appears as if he is strolling the entire globe and while speaking to his village folk he addresses the people of the world. In the concluding lines, he says finally write a letter to you and find you truth” Haldhar believed that the duty of a poet is to reform the society and morals but before that the poet has to reform himself, before he tried ennoble people he has to elevate himself. Like the iconic poet Walt Whiteman, Haldhar’s poetic persona assumes universal character and so effortlessly, he transcends barriers of space and time and addressed the entire humanity. Whiteman says “I celebrate myself and sing myself. And what I assume you shall assume. For every atom belonging to me, as good belongs to you”. Very often there is incantatory solemnity in his tone and his mellifluous words dance with effortless ease like the water of the Mahanadi.
Another distinct stylistic feature of Haldhar is that, folk culture like Ghumra and Dalkhai are ingrained into his poetry. Predominantly he is a folk poet and essential feature of that culture is it depends on the tradition of orality lively music and relates to the basic impulse of the people .Hence he is appropriately called “Loka Kavi Ratna”
His marathon poetic journey started with the publication of “Dhoda Bargachha” (The old banyan tree in a local magazine) . The tree is a metaphor for timelessness, it is a mute witness to birth and deaths and many socio cultural upheavals. The line “It sees, It knows, It hears , It finds, but it speaks not a word, It stands like a mute witness with Its strong arms spread outwards It stands at the flow of events and human activities with stoic indifference”. His poem “Chaiter Sakal”( Morning in the month of Chaitya) is remarkable for its musical and sonorous flow of words. In this poem the beautiful use of onomatopoeia where words echoes the natural sounds and this proves that Haldhar has an ease for music. The nature presents here the trees, flowers, fruits, and hills which are very close to him. Unlike the Romantics, he is never amorous and the exotic. He is very much a poet of the soil, his diction, theme and tone are rooted in the soil and the readers can instinctively relate to them and identify with them with effortless spontaneity.
In another poem “Acchia” he uses stories form the Ramayana and writes against the social malaise of untouchability. In “Mahasati Urmilla” Haldhar takes an novel view and presents Urmilla as Mahasati (The great chaste women). The wife of Laxman is ignored by Valmiki and Tulsi Das. Haldhar narrates various stories and anecdotes collected from different sources and proved that Urmilla is greater than Sati sita. The uniqueness of this poem is that he has rendered the theme into great poetry probably the first of its kind in entire Indian Literature.
Rabindranath Tagore drew the attention of Mahatma Gandhi that the character of Urmilla has not been given due place of honor. Maithili Sharan Gupta (1886-one of the most prominent hindi poet) heard this and wrote Saket glorifying the greatness of Urmilla, but poet Haldhar has proved with uncanny literacy finesse, the chastify of Urmilla and called her “Mahasati”
Another important “kavya” of Haldhar is “ Shree Samalei” which is artistic blending of history, myths, folklores about the duty of western Odisha. He also narrates the history of BalramDev, the benevolent ruler of Huma, the folk tales of the people come alive in this Mahakavya. True to the epic traditions he invokes the Gods and Godesses, pays tribute to the poets of the past, and narrates a grand theme about the emergence of Samalei, who is the incarnation of Durga or Shakti. Surrealistic treatment, the dedication and ennobling love of Challu and Rangi, presentation of empathetic elevate this Loka Mahakavya to great height.
“Mahasati Urmilla”, “Tara Mandodari”, “Achhia”, ”Satia Viha”, “Prem Pahechan”, based on women characters from mythology. Here Haldhar has presented progressive view from feminine point of view.
By his own admission he has been profoundly influenced by Tulsi Das (1532-1625) and wrote a poetic biography of the poet as “Rasia kavi”. Again his “Veer Surendra Sai” shows his acute consciousness of contemporary history and every word of his work bears eloquent testimony to the poet’s patriotism. Two Granthavalis containing most of the poems of this iconic poet have been published and second one has been brought out by the Sambalpur University has been incorporated into the syllabus. Similarly the translations into English of his poems done by Surendra Nath in the collections of Kavyanjalli 1,2 and 3 have introduced this great poet to a pan Indian reading public and literature enthusiasts. The third volume is not a collection of poems but single poetic work, an epic poem called “ Prem Paechan” or “Manifestation love”. This is divine love , splendor love of Shri Krishna revealed to different characters. This epic poem has 1340 stanzas in 21 stanzas.
Dinesh Kumar Mali, an eminent scholar and translator has written an erudite book “Haldhar Nag ka kavya-sansar” and made a critical study of the poet and thereby wider public reading can have access to this Loka Kavi who is a brand ambassador of Sambalpuri-Kosali linguistic and cultural heritage.
The poet by writing in his mother tongue has not only enriched the language but put it in international focus. Quite appropriately Odisha Govt. has started a research institute on Kosali language in his village named after this iconic living legend who has carved a niche for himself in the hallowed literary world


















Brand Ambassador of western Odisha : Padmashree HALADHAR NAG
Sushanta Kumar Mishra
Talpadar, Bargarh, Odisha
Mob-9938277635 / 9337857136
E.Mail-sushantamishra77@gmail.com

Lok Kabi RatnaHaldhar Nag is a gem of a poet who has miraculously brought poetry closer to the mass and revived a never before public interest in literature at a time and place considered unfavorable for poetic activities. He has authored a number of long poems and hundreds of lyrics and can compose at will. He goes on reciting his creation in public platforms enthralling audience. He is a living legend who has been felicitated by more than 330 institutions till now. Hundreds of budding poets imitate his style and technique boosting a robust “HaldharDhara” in Western Odisha. He fights for the oppressed through his writing and social reformation on the basis of human dignity is high on this Poet-Crusader’s list. He has been at the forefront of our language & literature movement .
Haldhar Nag was born in a poor family of Ghess in Bargarh district of Odisha on March 31, 1950. He lost his father at the tender age of ten. An elementary school dropout, he worked as a cook in the hostel mess of Ghess High School for 16 long years . In the mean while he married Malati and was blessed with a daughter named Nandini . He was certainly not a man of means but his poetic fragrance lured many. With the help of a well wisher Nag managed to built a kiosk in front of the school to sell stationaries and eatables . That was the era of ink pen and he used to feel ink in the student’s pen for ten paises . That cabin has now been renovated and serves as a memento for his admirers and scholars, who frequent the place for their research work these days.

Nag wears his fame lightly. He looks quite ordinary clad simply in a white dhoti and vest. He has inherited the vision of poetry from his imagination and his rustic surroundings . The sixty five year old poet initiated his full-fledged literary journey with his first poem “Dhodo Bargachh” (The old bunayan tree) in 1990. There has been no stopping him since then . He has been very prolific and he has written more than 500 poems . Also he has a series of work to his credit including poetry collection like ‘Bhaab’, ‘Surut’ and mora than 20 epics like ‘Achhia’, ‘Bachhar’, ‘Mahasati Urmilla’, ‘Tara Mondodari’, ‘Siri Samalai’, ‘PremPaichan’, ‘Vir Surendra sai’, ‘Santha kabi Bhimabhoi’, ‘Rushi kabi Gangadhar’ etc . Most of these work are included in the first volume of the “Haldhar Granthabali” published by Friends Publisher, Cuttack. Sambalpur University is now coming up with “Haldhar Granthabali-2” to publish the remaining work of Nag, which will form a part of the University syllabus . Renounced translator Surendra Nath has been translating the poetic works of Haldhar Nag in to English , under the series title of ‘Kavyanjali’ . In this regard fourth series has already done. Likely another translator Dinesh Kumar Mali has translated some poetic work of Haldhar Nag in to hindi entitled as- ‘Haldhar Nag ka Kabya Sansar’ . Likely much more works of Nag has been translated in to different languages by no. of writers .
Acclaimed as a rare creative phenomenon in odisha, Nag is revered by his people as their own poet. Already an icon, he has to attend functions almost daily and dozens of podiums are named after him. He has earned epithets like Koshalkuili, JadavakulaGourava, KoshalRatna, Jadavjyoti etc. He is invited to universities in west Bengal, Andhrapradesh and Chattisgarh etc. Sambalpur University has honored the poet with the coveted Brahmaputra award. He was also honoured by the Odisha Sathiya Academy for his work in development of language in the year 2014.

Haldhar Nag writes in Sambalpuri-Koshli, which is used by half of the people in Odisha spread across 10 districts. It is worth mentioning that Nag has won the heart of people in the rural pockets of the state by his poetry. The tag lok kabi ratna fits him well for he has impressed many illiterate poetry-lovers who can’t read book. It is a tribute to the poet that well meaning citizen of odisha have established institutions like Lok kavi Hadhar Sanskrutik Parishad, Loka Kabi Haldhar Bana Bidyalaya, Haldhar Mandap etc. Even the BBC has made a documentary film on his life and work. And now a few more documentaries on his work and life are in process.

There was a time in Western Odisha when poetry was considered a luxury of an intellectual minority, but today, thousands wait with bated breath to listen to the poetry of Haldhar Nag . He has become a regular feature in social congregations and literary meetings and cultural festivals. He would recite his poems for hours to a mesmerized audience. He gives voice to the voiceless through his poetry and has rightfully become the most influential voice in Sambalpuri- koshli. He has been relentlessly endeavouring to bring the Sambalpuri-Koshli literature to a larger platform. Writings of Poet Haldhar Nag basically deals with themes related to nature, society, mythology and religion. He picks up his raw materials from the dark uncrowded alleys and focuses on the hitherto unanalyzed and unexplored territory. He portrays human life depicting the sufferings of protagonists carefully chosen from history, legends and mythology.

In many of his poems, neglected woman from the fringe of the society boldly speak out against social oppression and exploitation. People in the lowest strata of life compel me to write poems, he says of his works which address critical social issues. His epic poem Achhian (Which means The Untouchable) is a strong critique of the caste structure and the protagonist fight for justice in the social system. For Nag, Poetry is not merely an individual expression of self rather it goes beyond and work as a weapon for the marginalized to fight for justice . He hardly writes about politics but his works reflects the rebellious spirit hidden among the mass ready to erupt in time. The subject of his poem and Kabyas “Mahasati Urmilla”, “Achhian”, “Tara Mandodari”, “Prem Pahechhan” and “Satia Biha” are based on women from mythology and analysed from his point of view . Two others – “Karamsani” and “Siri Samalai”- are based on the goddess of religion.
To sum up, Haldhar Nag, who failled to clear class III exam, has been an awe inspiring genius, whose creativity is a theme for learned scholars and avid researches. But Nag is much more. He inspires the elites and the illiterate alike. It may be a miracle that a person composes poems in his mind and goes on reciting his work with ease and grace for hours. He may hold a record for achieving such huge numbers of felicitation and epithets. An exceptionally creative person, Haldhar, has given the language of Western Odisha a new identity . He is a much sought-after public figure. He has created a niche for himself and thousands follow him.



Philosophy and human values in poet Haldhar Nag’s literary works

Dr Sujit Kumar Pruseth


Literature happens to be the spontaneous expression of inner most and true feeling of the human beings. The feeling can be the reflection of the delicate features like love, affection, sorrow, pity, benevolence, anger, compassion, fellow-feeling etc. The first ever poetic composition was result of the spontaneous utterance by Sage Valmiki when he saw the wailing female Kroncha bird over the dead body of her male partner who was killed by a hunter. Sage Valmiki was overcome by the feeling of grief the words uttered by sage Valmiki became the first ever verse in Sanskrit perfect in rhyme and rhythm. The verse by Sage Valmiki says:

Maa Nishaad pratishtaam twamagamh saswateeh samaah
Yat kroncha mithunadekam avadheeh kaam mohitam.
It means, O hunter, may you repent for life and suffer, find no rest or fame, for you have killed one of the unsuspecting devoted and loving Krounch couple.’
Literature reflects the emotions and sentiments attached to human beings and human values. Human feelings and emotions transcend geographical boundary, social structure, religious affiliations etc. Its universal.
All creative persons posses the same universal feelings. Their creative works reflect the true and innermost feelings. Poets, dramatist, novelists, painters, musicians, dancers all create creative works being propelled by the human values and emotions. Poet Haldhar Nag, from Ghess, Bargarh, Odisha in the eastern part of India comes across as a born poet also echoes the same human values and emotions through out his creative writings. The uniqueness of the poet Haldhar Nag is that he is spontaneous and memorizes all his works.
Poet Haldhar Nag composes his poems in his native Sambalpuri-Koshali language which is the dominant language in the western parts of Odisha. He uses mythological characters, social themes etc in his poems. Issues like religion, myths, customs , traditions and few issues like social exploitation and discrimination dominate Poet Nag’s creations. He conveys important social messages through his writings.

Poet Haldhar Nag’s first poem Dhodo Bargach got published in 1990. It’s central theme has been weaved around a philosophical theme. The theme is that birth and death are the ultimate truth of life, yet human beings pretend to ignore it and get indulged in many things as if they are immortal. The grand old banyan tree at the entrance of the village has been portrayed as stoic, indifferent and mute spectator to all activities of human beings from cradle to grave. The old grand banyan tree witnesses the birth of a child, the growing up years and ultimately the last journey after the death. The poet narrates the eternal truth of life through the old banyan tree. The two stanzas certainly carry the great truth of life:

Here they bring the dead and place it on the bier,
Anoint it with turmeric and gooseberry,
Women return home from this spot
Leaving behind the ritual pottery.
The portrayal of the giant banyan tree by the poet Haldhar Nag as a stoic and mute spectator is seen in another stanza:
It sees, it knows, it hears, it finds
But it speaks not a word
It syands like a mute witness
With its strong arms spread outward.
The other remarkable feature in poet Haldhar Nag’s creative work has been the portrayal of lesser known characters in Indian mythology whose suffering, sacrifice in silence remain a powerful saga. Mythical character like Urmila is one of them. She has not received due recognition as assigned to great pious female characters in Indian mythologies. Poet Haldhar Nag has an unique caliber in identifying the lesser known characters and brought them them to forefront through his beautifully crafted literary works. He has termed Urmila as ‘ Maha sati’ Poet Haldhar has undertaken a formidable challenge in establishing the lesser known character Urmila. In the vary first stanza of the poem Maha sati Urmila, the poet narrates:
Unheralded unsung she is ,
In all seven books of Ramayan
For the poet in me, sati she is
Even greater than Sita in purity
The poetic persona in Haldhar Nag has been successfully seen the great virtue in the character Urmila. She has suffered a lot and for a long as her husband Lakshman decided to accompany Lord Ram and Sita in their exile. Haldhar Nag describes that his poetic persona has identified the pious and chaste virtue of Urmaila whose character has not been due recognition in seven parts of great Indian epic Ramayan. According to noted writer Manoj Das, ‘ Characters from the Ramayan and Mahabharat have been re-envisaged, reinterpreted and recreated through the ages.’ Haldhar Nag has been one literary persona who has reimagined the contours of great Indian epic in his own creative way. Commenting on Haldhar Nag’s poetic works, Manoj Das goes on saying, ‘The poet’s flow is irresistible and the metaphors he uses reveal a picturesque imaginativeness.

Poetic uniqueness of Haldhar Nag has been reflected in another poem entitled Light of the earthen lamp .This poem has been the beautiful portrayal of the small earthen lamp which attempts to remove darkness. Darkness symbolizes the deep ignorance . The ancient Indian philosophy also utters Tamaso maa jyotir gamaya In the words of Poet Haldhar Nag:
When the earthen lamp is lit,
It lights the inner chambers,
Like upon seeing the moonlight,
Out of fear darkness scampers.
The contribution made by the earthen lamp may be very small yet it creates a new and enlightened world with its caliber. This great philosophy gets emanated from Haldhar Nag’s work Sailtaa Ukiaa. Poet Haldhar Nag’s language is simple yet it conveys great philosophy in a subtle way. In the words of Prof Jatindra Kumar Nayak, ‘ In Hakdhar Nag’s poetry readers discover a new voice and the inflexions of a new sensitivity. It enables them to reconnect with a living human voice that invests the ordinary and the rare depth of feeling.’

Poet Haldhar Nag recites his own poems extempore which takes the audience to a new height of bliss. His poems enthralls the audience. He also performs the role of Lankeswari and recites lyrical composition extempore during his performance. The way he enacts the role, it simply reflects his simplistic charm, poetic excellence and creativity par exclellnce.
Poet Haldhar Nag has been prolific in composing lyrical poems and certainly carved a niche for himself as an outstanding minstrel and bard.


SELECT BIBLIOGRAPHY:
Radhakrishnan, S, Indian Philosophy, Oxford University Press, New Delhi, 2009
The Times of India, the Best of Speaking Tree, Bennet Coleman and Co.Ltd, New Delhi 2004
Debroy, Bibek,[Transaltion] Valmiki Ramayan, Penguin, New Delhi, 2017




The author has been an academic associated in teaching at the National Law School of India University, Bangalore and Indian Institute of Management, Indore .
drsujitpruseth@gmail.com
91+9868766705




















From Peanuts to Padma: Haldhar Nag’s Odyssey through Poetry

Dr.Chittaranjan Misra
Associate Professor,
Department of English
B.J.B.Autonomous College,
Bhubaneswar

751014Odisha,India
Email: chittaranjan_mishra@rediffmail.com



Haldhar Nag has emerged as a powerful voice from the margin who is being regardedand revered as a messiah by a large number of people in Odisha and Chatishgarh.His poems are written in a variety of Odia language spoken in the western parts of Odisha.The language is also known as Kosali which is yet to be included in the 8th schedule of constitution.

Nag ’s reputation has been associated with the Kosali movement committed to the cause of the inclusion. Nag has popularized poetry through reading them in large congregations and has revived the significance of orality in our literary tradition that dates back to the transmission of the Vedas. During 1990she started writing poems in the language chiseling a diction that is free from the elite and ornate literary styles of the mainstream poets of Odisha. He was born in a poor family of Ghens in Bargarh district of Odisha on March 31, 1950. At the age of ten he lost his father .He had to dropout from school after a brief formal schooling up to the third standard. He could end up as a peanut seller, a cook or a stationer but his poetic talent has led him to be famed as Lok Kabi Ratna. Without referring to any books or scripts he is able to recite all his poems both short and long. His extraordinary memory and unique style of reciting has foregrounded the performativity of his poetry. His poetry ranges over social issues, nature, religion, mythology, all derived from the everyday life around him.

Nag says: “In my view, poetry must have real-life connection and a message for the people ”.

His poems remind the readers of the Scottish poet Robert Burns famous for his use of Scots dialect and depiction of folk ways. Like Burns Nag has grown up in poverty and hardship and had little regular schooling. For the lack of formal education Burns was called a "heaven-taught ploughman” by the literati in a dismissive manner. Nag too has been able to emerge as the‘people’s poet’ unaffected by the disdain of the elite. On 28 March 2016, the President of India
has bestowed Padma Shri, the fourth highest civilian award in the Republic of India upon Haldhar Nag. A volume of his poems in English translation entitled
Kavyanjali has come out recently. The paper attempts to highlight the aspects of his poems with reference to the translation as voices from the margin.A strong a ecoconsciousness is marked in most of his poems no matter whether the themes are political, social or based on nature and mythology. His first poem published in 1990 was about nature. Titled The Old Banyon Tree (Dhoda Bargachh) the poem describes the delicate balance between rural life of people and nature. Keeping its head high the old tree provides shelter and shade to travelers during the month of May “when the roads are blistering hot” and sustain the birds with ripe fruits. The translation in English misses the phonic beauty of the originalconfigured by alliterative rhythm and rhyme creating a local cultural flavor. His long poem ‘TheYear ’ (Bachhar) is embedded with an ecopoetic consciousness through the construction of six seasons and images associated with seasonal cycle. For each season a section is devoted and their sequence starting from Rains to Summer is maintained through the textualization of natural changes specific to each. The seasons are personified as lover-husbands of earth and their lovemaking is depicted in an ecocentric manner. The long poem runs like a pastoral but the nonhuman sphere is stressed throughout the entire poem except the introductory section where Nag invokes the muse and refers to his own status as a poet and his economic condition:Little-read I am, to write much, I haven’t got the nerve; Hesitantly, with a pen in hand,I stroll the length and breadth.I sit and count the bamboo sticks,Looking up towards the ceiling;Hungry and sad, I beseech bare, Do listen O Maheswari. (159)

In Nag’s poems nature and culture are entangled with each other in subtle ways. The narrator’s symbiotic relationship with birds, animals and rivers find prominence in many of his short poemsincluded in the anthology Kavyanjali
Like‘ River Ghensali’, ‘The Cuckoo’ and ‘ Bulbul’.

Ghensali is a river that originates from the poet’s village an d the flow of the river runs parallel with the journey of human life. The river in the poem is conceived as a young girl leaving the mother’s house waiting in excitement to elope. The destination of the river is the deep seas just as death is at the end of the narrator’s journey:You are heading to the deep seas, I too am heading to Yama’s place (125). The poem‘The Cuckoo’ compares the bird with a newlywed bride going to her in-laws crying.The melody is heard but the bird stays hidden within blossoms of mango. The poet says:The gifted ones are seldom seen, But their worth spreads forward. (129) In ‘Bulbul’ Nag raises the issues of cruelty to animals and feels deep sympathy for all living forms. The
poem’s conclusion corroborates the animalistic idea that humans are animals in their essential identity.

For Haldhar poetry is performative. He has written on political and social themes. He has always been against all kinds of oppression including caste based discrimination. His master piece ‘Achhia’ is inspired by Mahatma Gandhi’s fight against untouchability. But the work is yet to be translated into English. However the English translation volume discussed here contains poems like ‘The Minister and the Beggar’ and ‘Why Did He Leave His Home’.

In ‘Why Did He Leave His Home’, Phagnu, a blind beggar of the village gets crushed under the wheel of the minister’scar while rushing forth “to the minister to narrate his woes”.(247)The irony in the last stanza communicates how doom is the destiny of the deprived in our political system. Where “triumph is never for the poor folk”, the voice of the subaltern is fated to be silenced.

The other poem ‘ The Minister and the Beggar’ calls attention to corrupt political practices as more ignominious than the practice of begging.The Harlot of Tikarpada is a poem about Madhavi, an ordinary character from the social margins. The poem in two parts signifies two views. The traditional notion of woman as a chaste bride to be married to a single man treats the harlot as a defilement of social values. This view highlighted in the first section is deconstructed in the next section: The money I earn now by selling my body, I shall spend,To buy heaps of dowry, when I go as a bride newlywed. (139)Such contrapuntal structuring of ideas is evident in many poems of Nag but the beauty of the poems is reinforced by the local cultural perspective against which they are set. The woman referred to is just not a generalized figure for representation of a class but an individual named Madhavi who hails from Tikarpada of Kendrapada district of Odisha. The narrator and Madhavi through their conversation erect a dialogic process to underscore the reality of a contemporary situation.The ease with which Nag is able to portray a contemporary character picked from social margins is no less diminished while writing about mythological characters like Urmila of the Hindu epic Ramayana. Urmila too is a marginalized character in the epic. Urmila,Sita’s younger sister had to stay away from her husband Lakshman for long fourteen years till he returned to Ajodhya taking care of Rama and Sita during their exile. Urmila’s sacrifice in offering herself to take Lakshmana’s share of sleep in obeying her husband and staying behind at Ajodhya to take careof her parent in laws make her less visible in the epic. But Nag selects Urmila and recreates her character in his long poem “The Great Sati Urmila”.

In the context of this poem Manoj Das comments: “He is blessed with that rare gift of wideness of vision and his creative intuition is steeped in that loving compassion which together can wake us up to the possibility of together different interpretation of the action of a character that had been looked upon by us as unfortunate.”(Foreword by Manoj Das Kavyanjali )

Nag’s re -envisaging Urmila as superior to someother great female characters in the application of poetic license as an instance of his exuberance emerging out of a feeling of compassion. In the beginning of the poem Nag announce Unheralded unsung she is,In all seven books of Ramayana For the poet in me, Sati she is,Even greater than Sita in purity. Urmila is the central figure in Nag’
s recounting of the story of Ramayana. She is treated as “twice as brilliant as Sita” and emerges as a woman of extraordinary power after fourteen yearsof fiery penance.

In an interview Nag says: “Be it mythology, history, social issues or tragic experiences, I alwaysexperiment with and explore the unexplored aspects of human life through poetry. I focus oninstilling a progressive idea to whatever subject I am dealing with and use poetry to give a new direction to the reader’s
thoughts. One such obvious example of experimentation can be seen in my verse ‘Maha Sati Urmila’ where Devi Urmila has always been neglected of all characters inRamayana. Experimenting with many poetic devices, I have tried to certify Urmila as “MahaSati” among all other female characters in the epic.”(Mycity Links : 2016:14)Apart from mythological themes Nag has written a number of poems on nature. He declares thathe has emulated the style of the great poet Gangadhar Meher(the 19th century Odia poet) in describing nature. In Gangadhar’s poetry “love of nature naturally gains the dimensions of
spiritual love, the beauties of nature inevitably lead to the idea of Divine Beauty, and joy innature becomes ananda (Pati 1984:64) Haldhar too writes on beauties of nature as divine manifestation. But all the difference is effected by Nag’s selection of the Sambalpuri -Koshli ashis medium unlike Gangadhar’s opting for the standard Odia.

While Gangadhar’s poetic output has been canonized along with that of his senior contemporaries like Radhanath Ray andMadhusudan Rao extending the written tradition that fused Sanskrit rhetoricity with colonial modernism Haldhar Nag’s works are based on the legacy of orality cutting across folklores and folksongs. Fluent in singing Krushna Guru Bhajan,Dal Khaee,Rasarkeli from an early age he hadan inclination for reciting before villagers his own verses composed in rural idiom now called ‘Haldhar style’. Embracing the ‘otherness’ implied by the Odia literary canon Haldhar hasestablished himself as ‘Lok Kabi’ or ‘People’s Poet’.

It is a coincidence that Gangadhar and Haldhar are from the same area in the Western part of Odisha. Gangadhar’s place Barpali is a few kilometers away from Ghens, the village of Haldhar Nag. Both have rewritten the story of Ramayana(Gangadhar has written Tapaswini and Haldhar The Great Sati Urmila.) foregrounding female characters Sita and Urmila respectively. Both have written short lyrical poems on rural themes in addition to epic materials. But Haldhar does not like to be compared with Gangadhar.



He says: “More than a poet, Gangadhar Meher was like an institution in the field of Odia literature. People keep referring to me as second Gangadhar Meher. But I do not like the idea of comparing myself with the great poet. I do not want to be known as the second Gangadhar Meher. I just want to live and die as Haldhar Nag. If people remember me even after my death, they should do so only by my name.”(The Telegraph, Sep25:2010)

Through a dozen books of his poems in Sambalpuri-Koshli language and an anthology of his selected poems in English translation Nag has emerged as an influential voice from the margin.Steeped in ecoconsciousness and traditional ethical values his poems have boosted ‘Haldhar Dhara ,a style imitated by many poets in Western Odisha and Chhattisgarh.Orphaned at the age of ten, compelled to drop out of school to take menial jobs and running a stationery shop he hasevolved as a messiah with large number of followers. By selecting an alternative medium he has contributed to the self esteem of poets who have written and are writing in ‘Sambalpuri-Koshli’.

Even though he is not engaged in identity politics he has become a sign appropriate for political forces to contest on identitarian grounds. But Haldhar Nag continues to proclaim “make the whole world a single home” ( 251) through his poetry and performance.

Works Cited

1. Kavyanjali:Selected Poetic Works of Haldhar Nag.translated by Surendranath.Cuttack:ZenithStar Publisher.2016.

2. Mycity Links.Vol III.Issue 24.Bhubaneswar: April 15-28, 2016:14.Pati,Madhusudan.

3. “Wordsworth: An Indian View”.

4. The Romantic Tradition.ed.VissvanathChattergee.Calcutta: Department of English. Jadavpur University.1984.

5. The Telegraph,Sep 25.2010(www.telegraphindia.com) https://en.wikipedia.org/wiki/Haldhar_Nag







































Variety in Haldhar’s Poetry
by
Surendra Nath

We all know a little bit about poetry, at least theoretically, from our language classes in schools and colleges. We know that classical poems are written keeping the rhymes and rhythms in mind. Then there is a plethora of figures of speech that decorate poems with literary ornaments. Usage of alliteration, simile, metaphor, internal rhyming, onomatopoeia, personification, and a whole lot more, not only make poems pleasant to the ear but also set off the reader’s imagination on a journey into a vividly colourful world.
But where did Padma Shri Haldhar Nag learn all these? It is fair to assume that by reading and listening to the poems of other poets he picked up rhyming and other simple figures of speech such as alliteration, simile and metaphor, though he may not know those terminologies. But what about onomatopoeia and personification?
Onomatopoeia is the use of words that contain sounds that are similar to their meanings. For example – The crow cawed. Here caw is an onomatopoeic word; it means the sound made by a crow and the word sounds as such. HN’s poems are replete with onomatopoeia. Here is a poem titled The Morning of March (Chaetar Sakaal). Though much of the effect is lost in the translation, one can see how the poetry abounds with sound effects.
The Morning of March
Boom, boom bangs down,
The rice husking log.
Cock-a-doodle-doo,
Starts crowing the cock.

Creak, creak, creaking,
Went the water lifting crane.
Rumbling sound makes the loom,
In the weavers’ lane.

Coo, coo, coos the cuckoo,
Birds chirp among the trees.
In gusts soft and cold,
Blows the spring breeze.

Rat-a-tat-tat, Rat-a-tat-tat,
The knocking bells on oxen.
Scrunching goes the bullock cart,
On the uneven rocky turn.

These are only the first four stanzas out of the twelve-stanza poem. I would urge literature enthusiasts to read the complete poem to get a feel of Haldhar’s onomatopoeia. The original in Sambalpuri-Kosali surpasses one’s expectation in lyrical beauty. The video of Chaetar Sakaal is available on the Net, and one can listen to the wonderful sounds of a spring morning in HN’s voice.
*
Leaving aside onomatopoeia, let us move to another figure of speech – personification. In poetry, the art of representing objects and qualities as humans is termed personification. One of the best English poems that uses personification is Time, You Old Gipsy Man, by Ralph Hodgson, which I had learnt as a schoolboy. “Time, you old gipsy man, / Will you not stay, / Put up your caravan / Just for one day?” The poem had impressed me much. The poet has personified time as a gipsy man who continually moves in his caravan from one city to another, waiting for no one. The tenor with which the poet urges the gipsy man to stay just for one day summarises the desire of every person that time should not hasten away, rather it should wait and let us enjoy our youthful moments.
I would like to reiterate here that HN does not formally know what is this term, personification; yet he has used it to an astounding effect in his poem Ghensali. The title is the name of a river that has its source at Haldhar Nag’s village – Ghess. HN personifies the river as a bubbly young girl who is rushing to meet her friends (other rivers in the network).
River Ghensali
Listen O Ghensali, wait a while;
Where do you go rushing by?
Roaring, churning as if in anger,
You run down in Kali’s figure.
Sleeping you had been peacefully,
In the Baisi Khalsa valley.
Startled, you run in a single-mind
Across mounds, ditches, corners and bend
Forsaking joy and love of mother’s house
Where will you enter as a live-in spouse?
You want to meet friends of yours,
Ang, Ib, Tel, Jira, Koel rivers.
Your heart is excited and mind flitting,
Like a young girl to elope is waiting.
Bear in mind matters future and past.
Further you run, more you’ll be slashed.
Let me say a word, listen Ghensali,
One trait of yours with mine does tally.
Over low and highlands you cross,
I too surmount my joys and sorrows.
You are heading to the deep seas,
I too am heading to rest in peace.

Here the poet even gives the girl Ghensali (or River Ghensali) the attributes of a lass who is ready to elope and enter her beloved’s house as a live-in spouse. The last three stanzas bring a surprise ending to the poem. He compares the river’s journey with his own life: Just as you cross over high and lowlands, I surmount my joys and sorrows; You will end your journey in the ocean, and I will end mine with my death. This is another hallmark of Haldhar’s poems, which I call the ‘Haldhar Twist’. We will come to it in a while.
*
Now let’s ask Haldhar Nag where he learnt about sonnets. He would undoubtedly draw a blank. “What is a sonnet?” he would ask. He has no idea that a sonnet is a poem consisting of 14 lines written with a fixed rhyme scheme. Yet, surprisingly, he has written sonnets. We will come to it, but first a little bit about sonnets and their rhyme schemes.
Sonnet, which means ‘Little Song’ is an Italian invention credited to the 13th century poet Giacomo da Lentini, who first created these 14-line poems. Later, in 14th century another Italian poet Petrarch perfected the poem to a definite rhyme scheme (ABBAABBA CDCDCD). The Italian version moved to England in the 16th century, and several English poets (like John Milton, Thomas Wyatt, John Donne and Surrey) wrote sonnets either maintaining the Italian rhyme scheme or with slight variations. Shakespeare perfected the English sonnet in the 16th and 17th century in an altogether new version which we know today as the Shakespearean sonnet. It contains three quatrains followed by a couplet in the rhyme scheme of ABAB-CDCD-EFEF-GG. Shakespeare wrote 154 sonnets in iambic pentameter.
We need to credit Haldhar Nag with introducing sonnets to an Indian language, and that too to Sambalpuri-Kosli. Too Much (Ati) is a sonnet by HN written to the rhyme scheme of AABB CCCC CCCC DD. Though meters in English poetry cannot be compared with those in Indian languages, but, in a manner, HN uses the pentameter. Before the reader moves on to this sonnet, they must note that translations have a limitation in maintaining rhyme schemes and meters.
Too Much
Too much salt makes the taste go bad
Too good a sorcerer is devoured by god
Too much money danger brings
Too much devotion is the trait of thieves

Too much beauty shows lack of manners
Too much discrimination is lack of morals
Too talkative is the fraudster’s trait
Too simple is considered dim-witted

Too charitable a man begs and borrows
Too much of rains and the field overflows
Too clever it is, look at the crow
Mornings it eats the garbage we throw

Too much sweetmeat attracts pest
Too faithful is a poisonous trait
*
While we are comparing Nag with other reputed poets, let us see how his thoughts match with those of Rumi, the 13th-century Persian poet. Given below are two poems, one each by Rumi and Haldhar Nag. One needs to through each one a few times to understand their similarity in philosophy and thought.

Rumi - Light
The lamps are different,
but the Light is the same.

One matter, one energy, one Light, one Light-mind,
Endlessly emanating all things.

One turning and burning diamond,
One, one, one.

Ground yourself, strip yourself down,
To blind loving silence.
Stay there, until you see
You are gazing at the Light
With its own ageless eyes.”

Haldhar Nag - Fire
Creation of life on Earth
Earth, water, air and ether
And Fire puts them all together
With five elements the body is born
Then it’s called a lifeform

Whence it comes and where goes
Who it is, it knows not
In falsehood it proliferates
Limitless its desires and lusts
When it sees, it covets

Thousands of lamps are alight
Oil wicks can be counted
But fire is only one
Fire of Param Atman burns in every soul
Stand aside, and see it all

Both are translations into English. In Rumi’s words, “The lamps are different, but the light is the same,” and in HN’s words, “Oil wicks can be counted, but fire is only one.” Rumi says, “Stay there, until you see, you are gazing at the light with its own ageless eyes,” while HN says, “Fire of Param Atman burns in every soul, stand aside, and see it all.” It leaves us in wonderment, how two poets who have lived eight centuries apart, separated by oceans and languages could be so similar in their thoughts.
*
Finally, let me touch upon the promised ‘Haldhar Twist’. Many of Haldhar Nag’s poems wind down with a surprise ending. Take, for example, the poem Our Village Cremation Ground (Amar Gaanr Masaam Padaa). For six stanzas HN describes the horrific scenes of the cremation ground. There are witches and ghouls, hyenas and owls, ghosts and exorcists, dead bodies burning, scary sounds and a fearsome deity. Now, look at the twist in the last stanza. He says that though the cremation ground looks fearsome, it is our real home; we shall all end our journey and gather there. This is what I call the ‘Haldhar Twist’, a turn in the flow of the poem to bring home a point. One can notice such twists in several of his poems, The Old Banyan Tree, The Dove is my Teacher, Danseuse, Summer, Slumber, A Cubit Taller, The Harlot of Tikarpada, to name a few.

Rhyming and meter are the least of his fortes. He has a deep understanding of poetic usages such as allegory (as in The Market of Illusion), sarcasm (as in The Minister and Beggar), Humour (as in Cricket), satire (as in Why Did He Leave His Home) and many more. To assume that HN is a poet specializing in mythological subjects would mean overlooking his full range of talents. Mythology viewed from a different angle happens to be the central theme in most of his long poems. But his range of themes includes history, biography, burning social issues, fabular and moralistic.

When one studies Haldhar Nag, there is no end to discovering artful literature.
*










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