हलधर नाग का काव्य-संसार

Published On 16-10-2022


कृष्ण चरित पर आधारित हलधर नाग का महाकाव्य
प्रेम-पहचान








1.

प्रेम रूप निराकार
मगर नाना रंग प्रकार
आवृत्त जिससे सारा संसार
इतना ज्यादा विस्तार।

प्रेम अनुभूति का अनुसंधान
नहीं दिखता किसी के नयन
नहीं होता किसी भाषा में बखान
महान कवि भी नहीं कर पाते लेखन ।

अतुलनीय प्रेम का आकार
फैलाव जिसका दिगंत दूर
अखिल प्राणी चराचर
बँधते प्रेम की डोर।

जीवों का जन्म लिए प्रेम-बंधन
अमिट छाप छोड़, होता मरण
जगत में जन्मा हरजन
चितेरे रंग-बिरंगे वर्ण ।

प्रेम देने से मिलता प्रेम
पूर्ण ब्याज समेत
केवल बचेगा अमर प्रेम
भले ही, नष्ट हो सारा जगत।

थाली जैसा दिखता जह्न
अपरिमित क्षुद्र नयन
साधारण मानव लगते कृष्ण
मगर वह महान प्रेम की खदान।

महाप्रतापी मथुरा राजा
अहंकारी कंस असुर
पद आहट से कांपती धरती
थर्राते तीनों पुर।

स्वर्ग देवता, पाताल के नाग
मर्त्यलोक में वीर
साहस नहीं कंस के सामने
कोई उठाए अपना सिर।

रक्त-माँस रग-रग
भर गया अहंकार
घड़ी-घड़ी बढ़ता जाता
कंस का अत्याचार।

जंगल में जैसे नवकुंजर
और वन बिलाव की गाज
दुर्दांत हुआ जीवन
कौन उठाए आवाज ।

सिंहासन पर मूँछे मरोड़ते
बैठा था उत्पाती कंस
प्रकट हुए नारद मुनि
देने कलह संदेश।

वीणा धारे देवर्षि
नीचे खड़े सिंहासन
गाते ‘नारायण, नारायण’
किया उनका अभिवादन।

नारद की देख भाव-भंगिमा
राजा करने लगा अट्टहास
ऋषि बोले, ‘क्या हो गए
पागल राजा कंस ?’

चींटी के पंख निकलने पर
जैसे आता नजदीक मृत्यु काल
तुम्हें होना चाहिए मालूम
खत्म हो रहा तुम्हारा खेल।

चित्रगुप्त पोंछ रहा पंजिका
फाँस लेकर तैयार यम
तुम्हें मारने वाला
तुम्हारी बहन के गर्भ से लेगा जन्म।

क्षीर समंदर में स्वयं भगवान
गोलोक बिहारी हरि
तुम्हें मारने के लिए देवकी गर्भ से
अवतरित होंगे इस धरती ।

कौए के घोसले में कोयल के अंडे
तुम्हें मारने के लिए तत्पर
मथुरा भूमि लेंगे जन्म
मगर पलेंगे गोपपुर।

सिहरन उठी कंस के तन
सुनकर नारद वचन
बढ़ी हृदय की धड़कन
भयभीत हुआ मन ।

टकराते जब पीतल वासन
प्रतिध्वनि होता वातावरण
उसी तरह गूंजने लगे कंस के कान
नारद ऋषि के वचन।

कूर कपटी मायावी विष्णु
नहीं उसका थलकूल
हिरण कश्यप और रावण के
समूल मिटा दिए असुर कूल।

सही समय पर ऋषि ने
मुझे किया सावधान
वर्षा से पूर्व अगर नहीं बांधा बांध
तो जरूर होगा जल-प्लावन।

सोचने लगा उपाय
किस तरह हरूँ शत्रु का परिताप
मूल-खत्म करने से बात खत्म
मन में उभरा पाप ।

देवकी के गर्भ में ही
कर दूंगा नष्ट भ्रूण
भांजा होने पर भी क्या
कल हो जाएगा दुश्मन।

तुरंत दिया आदेश
करो हाजिर वासुदेव और देवकी बहन
गाल पर हाथ रखकर बैठा कंस
उतरा चेहरा, उदास मन।

देवकी बोली, क्यों बुलाया हमें
कहो मेरे प्रिय भाई
क्या रह गई कमी तुम्हारी
पूरी करें बहन-बहनोई ।

पूर्व जन्मों के पुण्य प्रताप से
बने तुम मथुरा के राजा
सच्चे मन से काम करो तुम
दुखों में भी रहोगे तुम तरोताजा।


तुम्हारे लिए रखती हूं
हर वर्ष भाई दूज का व्रत
मेरा छोटा भाई स्वर्ण सम
सदा अजर अमर अक्षत।

कंस बोला, कुशल मंगल हूँ बहन
शुभकामना तुम्हारी
तुम्हारे आर्शीवाद से
आई मुझ पर विपदा भारी।

वादा करो, मुझे दोगी वरदान
भीख मांगता करबद्ध
अकाल बिजली गिरी मुझ पर
डूब जाऊंगा चुल्लू भर जल।

मुझे मारने के लिए
षड्यंत्र कर रहे इंद्र
विष्णु लेंगे जन्म
तुम्हारे ही उदर ।

हाथ-जोड़ करता विनती
विनम्रता से तुम्हारे सम्मुख
तुम्हारे पेट के सारे बच्चे
करोगी मुझे सुपुर्द।

अरे! कहां गए द्वारप्रहरी
कोतवाल,करो पकड़ा-पकड़ी
मेरी बहन-बहनोई के
हाथों में पहना दो हथकड़ी ।

बंद करो उस कालकोठरी
जहाँ घुसे नहीं प्रकाश किरण
कंस का भय सारा तुरंत
हो गया आधा कम।


2.

ऋतु अनुसार बरसाते मेघ
अपनी निर्मल धारा
चांद सूर्य और तारे
हटा रहे पाप अंधेरा।

चारों तरफ पहाड़ियों के
बीच घिरा जैसे पर्वत गोवर्धन
वैसे महादेव को घेर कर
गुहार लगाते देवगण ।

धरती मुस्कुराती बारहमास
सदैव बहाती साफ पवन
पेड़ों की सूखी टहनियाँ
फल-फूलों से लदे पेड़ देते ईंधन।


फल फूलों से लदे पेड़-पेड़ों के पत्ते
मुस्कुरा रहे मानो वृंदावन
चहचहाते झुंड-झुंड विहंग
गगन में भरते ऊंची उड़ान।

निर्भय जंगली जीव जंतु
करते इधर-उधर विचरण
न हिंसा, न क्रोध
बिना डरे उनमें होता मिलन।

कल-कल बहता यमुना जल
द्युतिमान मुक्ता सम
अपनी भाषा में बुला रहे मानो
आओ मेरे तट, तुम।

जान प्रकृति मनुष्य की गति
मनु यदुशील के अंश
जंगल काट बसाया बसेरा
क्षत्रिय यादव वंश ।

लंबाई पाँच हाथ से ज्यादा
हाथ पंखे जितनी चौड़ी छाती
ऐसे यादवों के एक मुक्के से
मौके पर मर जाएगा हाथी।

बड़े-बड़े पंखों जैसी बाहें
ताल के तने जैसी जांघ
एक सांचे में जैसे बनी देह
लाल-भूरा चेहरे का रंग ।

गो-पालन जिनकी जीविका
दूध दूहते जैसे अमृत
गंगा नदी की तरह सबसे पवित्र
मानी जाती यादव जात।

गाय पालने से कहलाए गोपाल
बस्ती बनी गोपपुर
युद्धकला, अस्त्र-शस्त्र में
यादव हुए होशियार।

हाथों से लड़ाई,पैरों से लड़ाई
सिर से लड़ाई
पीठ पर वार, सीने पर वार
लाठी से लड़ाई,तलवार से लड़ाई।

कभी नहीं आया उनके पास
छल,कपट, हिंसा,अहंकार
उनके हृदय में हिलोरे खाता
भक्ति का महासागर ।

दुख, दर्द और कामवासना का
कहीं नामोनिशान नहीं
दूध,दही,छाछ, राबड़ी
उनके घर में बहती रही ।

सत्य शांति करुणा मैत्री से
भरा हुआ था वातावरण
जैसे गाय के थन से बहता अमृत
गोपीपुर के चारों कोण ।

सत्य,शांति,दया,मैत्री के शासन
राजा कहते आनंद
‘आ’ की आवाज मिट गई
गोप का राजा कहलाया नंद।

जहां खुशियां भरपूर हो
वहां विराजते परमानंद
निसंदेह आकर्षित होंगे भँवरे
सुंदर फूलों की सुगंध।

नंद का अंग यशस्वी सुंदरी
जगत को देती दान
नाम, यशोदा राजा नंद की रानी
वह थी नारी महान।

एक मन,एक जीवन,एक आत्मा
प्रकृति आकृति सब समान
सोलह हजार गोपियों में मानो
एक ही पौधे के दो सुमन।

अभेद प्रीति,अटूट बंधन
बंधे हुए थे वे
ईश्वर ने प्रेम धागे से
बांधा हो उन्हें एक साथ।

गोप की मिट्टी ने फैलाई अपनी सुगंध
चारों तरफ रंग ही रंग
जीव-जंतुओं की भावनाओं का आदान-प्रदान
पशु, पेड़-पौधे, चट्टानों के संग।

विषैले फल भी लगते अमृत
चंपा फूलों सुगंध
वहां के मिट्टी,पानी, पवन की
मिश्रित की सोंधी-सोंधी-गंध ।

चौदह भुवन में चमक रहा था
गोपपुर का नाम
साक्षात भगवान विराजमान
इस पृथ्वी के बैकुंठ धाम।

पोखरों का पानी स्वस्थ स्फटिक
दिखता जिसमें जह्न
मनुष्य की देह में रहते भगवान
निर्मल था उनका मन।

उम्र हो गई रानी की पार
करने की गर्भधारण
हमेशा करती रहती थी
नारद मुनि के वचन स्मरण।

कभी नहीं जाते खाली
ऋषि मुनियों के वचन
साड़ी के पल्लू पर गांठ बांध
गिनती थी रात दिन।

एक पहर से दूसरा पहर
दूसरे से तीसरा पहर
उमड़ते थे उसके मन में विचार
मगर नहीं हो सका सपना साकार।

वार-त्यौहार किए अनेक उपवास
रखी देवी-देवताओं को मन्नत
तरसती रही दिन-रात
इच्छा नहीं हुई फलीभूत।

किया मंदार से जलाभिषेक
बहुत किए पूजा हवन
फिर भी किसी कारण
हुआ नहीं गर्भधारण।

पिछले जन्म के कुछ पापों के खातिर
रानी हुई निर्वंश
बच्चे होकर जाते मर
फिर भी बची रही कुछ आश।

महिला का देखने से चेहरा
मिलती नहीं जय
रानी सदैव रहती संकुचित
लोक उपहास के भय ।

अशुभ निम्न कोटि की मान
भर जाता उसके मन में पाप
रसोई घर में गाल पर हाथ रख
बैठी रहती वह चुपचाप ।

यशोदा, रानी यशोदा
देखो, आओ रानी बाहर
भाग्य ने हमें दिया अद्भुत चांद
हमारे मन को जानकर।

जोर से बुला रहे थे राजा
लेकिन रानी ने कोई नहीं दिया उत्तर
रसोईघर में चली गई रानी
आने लगी रोने की आवाज सरसर।

आनंदपुर खुशी से सरोबार
नहीं कोई रास्ता मगर
किस रास्ते से आया दुख
उदास रानी हुई अनुदार ।



आनंद की पत्नी रानी यशोदा
सुंदर यशस्विनी सुखदायिनी
मेरी आंखें देख रही तुम्हें
दुख-दर्द सयानी ।

रानी बोली, सुनो हे राजा
मेरे नहीं संतान कोई
अब कब बनेंगे मां-बाप
बीत गया जीवन तीन-चौथाई।

राजा ने कहा, रोहिणी के गर्भ से
पैदा हुआ एक बेटा
कहेगा वह हमें माता-पिता
और हम कहेंगे, दाऊ बेटा ।

रानी को ले गया शयन-कक्ष
हाथ पकड़ दिखाने बेटा राजा
पलंग पर लेटे-लेटे
खेल रहा वह बड़े मजा।

उगते सूरज की तरह तेजस्वी
गोल-मटोल चेहरा शरीर सुगठित
छह महीने की बच्चे की तरह खिलखिलाता
दिखाता अपने बत्तीस दाँत ।

गर्भनाल काटकर प्रसन्न मन
यशोदा ने अपने हाथों में लिया थाम
शेर शावक की तरह था शक्तिशाली
इसलिए नाम रखा बलराम।


***

3.

कंस की उपपत्नी, भोग विलासनी
पूतना, सुंदर रानी
नगर के बाहर एक अट्टालिका में
रखी थी जैसे पटरानी

उसके सौन्दर्य पर आकर्षित हुआ कंस
देख मोटे-मोटे गोल-गोल स्तन
कभी-कभी वहां आकर
आनंद लेता उसका यौवन।

मांस, मदिरा के लिए सुंदरी पूतना
बनी थी मादक योग
किसी भी राजा ने नहीं भोगा होगा
ऐसा शानदार भोग।

धीरे-धीरे ठहर गया गर्भ
पूतना के उदर
बीतते-बीतते बीत गए महीने
महीने हो गए नौ पार।

अपूर्व चांद जैसे पुत्र का जन्म
हुआ पूतना की कोख
दुश्मन भी ताकने को तरसे
सचमुच में लगता जैसे मनोज।

दासियों ने सुनाई शुभ खबर
जाकर कंस के पास
सुनकर कंस दौड़ा आया
तुरंत ही वहां ।

देवकी-पुत्रों को वह कंस
मारने के लिए केवल लालायित
देखते-देखते छह बच्चों को मारा
फिर भी उसका मन अशांत ।

आकर देखा,पूतना की गोद में
खिलखिलाती नवजात शिशु की मुस्कान
उसने शरीर में खिल उठी
बिजली सी सिहरन।

जिसके सामने आया हो बाघ
वह झाड़ी देखकर भी होता अचंभित
थर्राने लगे आठों अंग
असुर कंस हुआ भयभीत।


अगोचर है विष्णु की माया
जिसका न आदि, न अंत
देवकी के गर्भ से ही नहीं
आया हो पूतना के पेट ।

कौन कह सकता है मायावी विष्णु
न ही आकार , न ही थाह
क्यों न इस नवजात शिशु को
मसल दूँ अपने हाथ।

पूतना की गोद से अपने हाथ लेकर
करने लगा लाड-प्यार
गुदगुदी करते-करते
खड़ा किया अपने सीने पर ।

‘दर्पण शैल’ चट्टान पर
मसल कर दिया मार
योग निद्रा से जगे
भगवान दैतार ।

गोल-गोल घूमने लगा
चक्र सुदर्शन
करने लगा अनंत नाग
भयंकर गर्जन ।

दब दब दब गर्म हुआ
क्षीर समुंदर जल
लक्ष्मी देवी की क्रोधाग्नि
भभक उठी प्रबल।

टड़ाँग-टड़ाँग टूट गए
सरस्वती के वीणा के तान
कारागार से सुनाई दे रहा
देवकी मां का रुदन-क्रंदन।

धैर्य और नहीं रख पाए
प्रभु चक्रधर
पृथ्वी का भार हल्का करने
खुद ने लिया अवतार।

4.

झीलों में छल-छल जल
मघा नक्षत्र का वर्षण
मिटाने प्राणियों की भूख
बरसा मघा जैसे माँ का भोजन।

गुच्छा-गुच्छा जाई जूही चंपा
मालती कदंब के सुमन
जन, धन की इच्छा पूर्ण
हर्षित था उनका मन ।

नदी का वारी बेचैन
मिलने को समुद्र
जीवनधारा दौड़ती जैसे
मिलने को यमघर।

सारू पते की छत के नीचे
मेंढक टर्राया, मैं हूं राजा
मन नहीं किसी का बंधुआ
चाहते सभी स्वर्ग मैं उड़ना ध्वजा।

गेंगरा,सुआंली,शमना,बेलिया
जैसे धान के खेतों में खरपतवार
वैसे असत्य,छल,कपट हिंसा
ढकते सत्य को चहुंओर ।

धान के खेतों में अंडे देकर
घोंघा चला जाता दूसरे खेत
वैसे सारे संबंधों को तोड़कर
योगी घूमता सारा जगत।

केंकड़ा कहता,मैं होशियार
दोनों तरफ कैंचीनुमा डंक
खींचती लोमड़ी पूँछ डालकर
माहिर नहीं उसके सम ।

अठारह माले में छुपने पर भी
खोज निकालेगा समय
कितने भी क्यों न होशियार
बच नहीं सकते अपने भाग्य।

भादौ अष्टमी कृष्ण पक्ष
घनघोर अंधेरी रात
हो रही थी मूसलाधार वर्षा
चमक रही विद्युत।

बादलों की गड़गड़ाहट
तेज हवा के झोंके सायं-सायं
डूब जाएगा सब-कुछ
मानो पृथ्वी पर होगा प्रलय।

रह रहकर चपला चमकती
धड़क-धड़क करता हृदय
हर क्षण चक-चक दिखता गगन
विद्युत के उदय ।

ढक कऊँ-कऊँ, ढक कऊँ कऊँ
जल मुर्गियों की चहचहाहट
जैसे विहगों ने वरन किया हो
माघ की बरसात ।

कहीं कोई सुईं गिरने तक की आवाज नहीं
सुनाई दे रही मेंढकों की टर्रटर्र
झींगुरों की झिलझिल झिंकारी से
कान हो रहे थे बधिर ।

सुनसान लग रहा मथुरा
आवागमन शून्य पूरी तरह अवहेलित
उसके ऊपर राजा कंस का
सख्त आदेश पारित।

कारागार से बाहर निकला कोई
तोड़ धातु के द्वार
बिजली की चमक में दिखता
कोई पांच हाथ लंबा नर।

देख प्रहरी की धड़की छाती
क्या ले जा रहा है अपने सिर?
तेजी से कोई रहा है भाग
इस बारिश मूसलाधार।


कौन जा रहा है, बदमाश चोर ?
लादकर सामान अपने सिर
जानते हुए भी क्यों कूदे हो
इस अग्नि के घर ?

धन्य हो चोर, मैं हूं अचंभित
तुम्हारा साथ है महान
क्या जीवन से गए हो हार
तेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण धन ?

कहीं कोई शोरगुल, आवाज नहीं
अंधेरी तूफानी रात
कितने हो दुस्साहसी !
बुला रहे हो अपनी मौत।

मैं हूं कंस का मुख्य प्रहरी
दे रहा हूं अपना पहरा
क्या नहीं जानते हो,उग्रसेन को ?
क्या हो गए हो बहरा ?

एक झटके में चली जाएगी तुम्हारी जान
कौन तुम्हें बचाएगा, कौन है मां का लाल ?
दिखाओ मुझे क्यों ले जा रहे हो अपने सिर ?
मुझे संदेह है, यह है कोई नवजात बाल।

शुष्क लकड़ी की तरह खड़े वासुदेव
जैसे निकल गए हो प्राण
तने की तरह अकड़ गया शरीर
निरुत्तर निष्प्राण ।

कुम्हार के चाक की तरह
घूमने लगा सिर फायं-फायं
आंखों से निकलने लगी ज्वाला
कानों में सुनने लगा सायं-सायं ।

बारिश का पानी टपक रहा था
सिर से मुंह पर्यंत
जीभ से कुछ बूंद चाटने पर
महसूस हुई कुछ राहत।

अचानक आकर उग्रसेन के
गर्दन में पड़ी एक फूलमाल
जब देखा उसने तांबे का बर्तन
उगते सूरज की तरह लाल।

धीरे-धीरे तांबे का खपरा
बन गया कमल फूल
फूल पर खड़े होकर चतुर्धा रूप
हंस रहे थे मूल-मूल।

शंख चक्र गदा पद्म
धरकर खड़े भगवान हरि
करोड़ों कामदेव जी एक साथ भी
उनके रूप से मेल नहीं खाते कभी।

सिर पर रत्न जड़ित मुकुट
कानों में कुंडल
उग्रसेन की दोनों आंखों में
उभरा तेज झलमल।

घूर घूर कर देखने लगा
उग्रसेन
उसे देखक भगवान के चेहरे पर
खिल उठी मुस्कान।

खिसको,खिसकी रास्ता दो
भक्त उग्रसेन
तुम्हारी भक्ति प्रीति से
मैं हुआ प्रसन्न।

जगत में शांति मैत्री के लिए
लिया है मैंने अवतार
देख राधा-माधव युगल मूर्ति
भवसागर से हो जाओ पार ।

राधा-कृष्ण का युगल रूप
दिखलाए भगवान
कदंब के नीचे त्रिभंगी मुद्रा में
करते बांसुरी वादन।

उल्लसित मन से अभिभूत होकर
रोते हुए बोले उग्रसेन
आप सही नहीं कह रहे
हे जगत कर्त्ता, भगवान!
कभी नहीं कि मैंने
पूजा-पाठ सेवा या भक्ति
फिर कैसे कह रहे हो
मैं आया भक्त की शक्ति ?

बल्कि तुम्हारा रास्ता रोककर
हो गया मैं अपराधी
बस, मेरे लिए इतने लंबे समय तक
हे भगवान! तुम हुई परेशानी।

सुनो, हे भक्त!
भाग्य अनुसार मिलता कर्म
ध्यानपूर्वक कर्म करना ही
सबसे बड़ा धर्म।

निर्मल मन से जो करता कर्म
बिना रखे फल की आश
वह है मेरा सच्चा भक्त
जकड़ा जाता हूं उसके पाश ।

तुम्हारे अच्छे कर्मों के कारण
मैंने दिए दर्शन
तुम्हारी नाभि में कस्तूरी विराजमान
हे भक्त! उग्रसेन ।

सोते पुत्र को नहीं मिलता भाग
जागते को मिलती जागीर
कोतवाल नहीं, तुम तकुआल
असल कर्मवीर।


5.

नहीं दिख रहा था हाथ को हाथ
छाया अंधेरा घोर
तांबे के खपरा को सिर पर लेकर
चले गए वासुदेव शहर से अतिदूर।

हो रही थी मूसलाधार बारिश
जल प्रवाह विस्तृत
पवन देवता तेजी से
बह रहे पूरी ताकत ।

क्या बाट-घाट, क्या पेड़ों का तना
बचा नहीं कुछ और
सायं-सायं शब्दों की गर्जन
सुनाई देती चहुं ओर ।

सिर पर चमकती बिजली
रोशनी से उज्जवल बाट
जैसे प्रेतात्मा का मार्गदर्शन
कर रहा हो कोई नाट।

तीर की तरह नाक की सीध
जा रहे वासुदेव मानो कोई पथिक
जीवन रहे या ना रहे
चलते जा रहे अनवरत अथक।

यमुना नदी थी पूरे उफान पर
उठ रही बड़ी-बड़ी उर्मियाँ
घुंघरू की तरह वासुदेव के पैरों में
चिपक गई जैसे जल-कृमियाँ

पर्वत जैसी ऊंची लहरें
उठकर गिरती नदी तल
कराल कालिका रूप में यमुना
जा रही जैसे युद्ध-स्थल।

मेघों के साथ हवा के झोंके
भर रहे थे हुँकार हरक्षण
सर्वभक्षिणी भयानक यमुना
कर रही थी अपना शक्ति-प्रदर्शन।

देख यमुना का प्रचंड
प्रकोप
भयभीत वासुदेव लगे सोचने
क्या नहीं जा पाऊंगा गोप ?

इधर सुनिश्चित मेरी मौत
उधर कंस करेगा मेरा वध
क्यों मरूंगा कंस के हाथों
अच्छा होगा, ले लूँ जल-समाधि।

कोशिश करने वालों की
कभी नहीं होती हार
विपद-आपद में होता
धर्म ही भागीदार।

हे भगवान! हे भगवान!!
जैसा तुम्हारा मन
यमुना नदी नहीं बन सकती अवरोध
अगर को तुम्हारा कृपा-वर्षण ।

यह सोच उतरा नदी के पानी
सीने तक जलस्तर
सांप-मगरमच्छ की संतति
घूम रही थी इधर-उधर।

लेश मात्र भी डर नहीं
बढ़ता जा रहा सरिता तट
तैर रहा मौत के जबड़े
मगर नहीं हुआ मन आहत।

अपना सिर डूबा पानी भीतर
आगे आई खाई
ऊपर दिख रहा ताम्र खपरा
और नीचे कलाई।

पानी के भीतर वासुदेव की पुकार
हे भगवान! हे भगवान!
तुम्हारी ध्वजा तुम रखो, भगवान
भले ही, हो जाए मेरा मरण।

प्रभु ! किया मैंने प्रयास
अपने सारे बुद्धि-बल
अब असहाय हूँ मैं भगवान
फंस गया भँवर जाल।

जीवन मेरा पानी का बुलबुला
नहीं हूँ मैं अमर
मैं पापी, आधा हुआ मेरा काम
दो इजाजत, जाने को मर ।

सच में मानो किसी ने कर दिया हो
काला जादू उस पर
सूखते-सूखते यमुना नदी
सूख गई पूरी तरह।

वर्षा,पानी, बिजली, बादलों की घड़-घड़
हो रही चारों स्थान
तत्क्षण इधर-उधर से
हो गए वे अंतर्धान।

ताम्र खपरे फैली किरणें
मानो हुआ सूर्योदय
वासुदेव गए गोपपुर
अपने प्रसन्न हृदय ।

नंद राजा के महल
खुले पड़े थे दरवाजे
चींटी की भी आवाज नहीं
सो रहे थे सब मजे ।

घुसे वसुदेव घर के भीतर
लेकर ताम्र खपरा साथ
आगे-पीछे देखा

नहीं दिखा कोई हाथ।

सोई पड़ी थी यशोदा रानी
जैसे हो अचेत
हाथ पैर पर गिरकर चपला देवी
जैसे कर रही सचेत।

कब देवी ने जन्म लिया
रानी को नहीं सुध-बूध
उगते सूर्य की तरह तेजस्विनी
खेल रही थी प्रबुद्ध ।

पुत्र को छोड़ रानी की गोद
चुपचाप लाए पुत्री
गोपपुर से मथुरा
सुरक्षित आए नंद ‘यात्री’।

6.

धीरे-धीरे छा गया अंधेरा
उड़ती गई समय की चुनर
नव उमंग, नवजीवन लेकर
उदय हुआ भास्कर ।

जैसे ही यह पता चला
जोर-जोर से कौएँ करने लगे कांव-कांव
उड़-उड़कर फैलाने लगे खबर
रानी को हुआ प्रसव।

कमलिनी ने देखा
जागी पूरी रात
राजा के डर से चुपचाप
बात रखी गुप्त।

गरज उठा महादेव का मंदिर
बजने लगे शंख, घंट, मृदंग
जैसे नाच रहे हो शिव
शुरू होने जा रहा नवयुग।

गुच्छा-गुच्छा फूल खिले कदंब
सुभाषित सारे दिग्वलय
खुशी से सजी-धजी शाखाएं
कन्हैई के अवतरण का समय ।

पीपल के पत्तों की सरसराहट
उत्साह से हो रहे दोलित
अगर बोल सकते तो गाते
उन्मुक्त मन से अपने गीत।

खोल अपनी पूरी झालर
झाड़ रहे पंख मयूर
गोप-पुत्र कन्हैया
खोंसेगा अपने सिर ।

सेंगा फट कर दिखा रहे
गुँजी लाल-लाल
कन्हैया के गले में शोभित होगी
इसके दो मनको की माल।

मेरा भाग्य भी कितना अच्छा
बना बांस मेरा उत्पादक
राजा के घर जन्मा पुत्र
बनेगा बांसुरी वादक।

रंभाते उछलते-कूदते
गोप के गाय बछड़ों की कतार
अपनी-अपनी बोली में कह रहे थे
कान्हा आए गोपपुर ।

वृंदावन के वृक्ष, लताओ में
आ गई नई उमंग
भैरव राग में लगे गाने
जंगल के सारे विहंग।

कुर्री हिरन,चीतल,सांभर
सुन रहे ध्यान-मग्न
इधर-उधर नजरें घुमाकर
हिला रहे अपने दोनों कान।

नया जोश लेकर आई सुबह
पहन नए परिधान
पूर्व वैदिक काल के संतों को
उषा ने दिया आमंत्रण।

एतश, उष्ना, शम्बरन, बबरू,
वर्षागीर, बेशी-अग्नि,
मेघातिथी, काण्व, काक्षीवन, क्षत्री ,
पौरुकुस्त, जमदग्नि।

वैवस्वत मनु, रेज्रास्व, नुहुष ,
प्रगाध, माधुछंदस,
सुरदास, भयमान कण्वघोर,
गाधिन दैर्घतामस-

दैवदासी लोपामुद्रा, गार्समद
शाक्य,कत्सी,आंगीरस ,
रेमशा, औचाथ्य, कौशिक, शौनक,
शुनसेप, अग्निचाक्षुष।

शावर्णिक, शान्धामार्का, शुक्राचार्य
उपनयन, दयालु,
भांड, विभांडक, मृकुंडू, मार्कंड
कर्ण, कभंडी, कृपालु ।

च्यवन, जालुक, भूत, सुमंतक,
मार्ग, पुलाह, मातंग,
अकृत, कृतिका, तारक, दुर्वासा,
स्थूल,रैवत, उत्तंग ।

विस्फोट, चार्वाक्य, अनघ, आदिक
सनातन, शुकदेव,
जाबाली, जनक, जान्हू, जैमिनी,
यजुर्वेद व्यासदेव ।

आसुरिक, अंतरीक्ष, अमरिष,
लिप्त, जानुक, अगस्तय,
सुतीक्ष्ण,कोकिल, दरद, कुमुद,
कंडु, अंगिरा पुलस्त्य ।

सुदेव, देवल, सुमति, नारद
कण्व , मंदर, स्वस्तिक,
मेरु, सावर्णिक, खणा, विरूपाक्ष,
रिभु, सनाका, आस्तिक।

दत्तात्रेय, वात्सायन, कीर्तिरथ,
कालिंजन, यदुशील
शंख, अनुष्टक, गाधि, अष्टावक्र,
वाल्यखिला, पंचशील ।

विश्रवा, तांदिल, घर्ट, अंतरिक्ष
अत्रि, मुदिल, नामुची
दर्शलोपा, स्वर्ण लोपा, तृणबिन्दु
श्रृंगी, मांडूक, प्रसुचि।

कृषंबाक, कृष्णंकुर, कुशध्वज,
कृपाजल, अवधूत,
रोमांच, मंथन, धौम्य, वीरसेन,
गार्ग्य, गगन, मरुत।

सुविज्ञ, सुजान, बरेहा, गोमत,
वामदेव, ज्ञानात्माक,
नृसंगु, अष्टांग, देवांग, रत्नांग
पंगुकल्प, कृष्णात्मक ।

गौतम, वशिष्ठ, अथर्व , कश्यप
वैश्वायन, मधुकर,
कर्दम, घर्घरा, भार्गव, मैत्रेय
उद्दालक, पराशर ।

काशपर्णी, व्योमकेश, धुंदूमार,
विरूपाक्ष, सदानंद
स्वराभंगा, बाजश्रवा, मंदपाल,
कुलदीप, सत्यानंद।

सहदेव, याज्ञवल्क्य, द्वैपायन,
वरतंतु, कात्यायन
ऋष्यशृंग, युल्पायन, भारद्वाज,
दधीचि, पिप्पलायन ।

मरीचि, पर्वतसूतपा, रम्यक,
मेघदक्ष, वैखानश,
विश्वामित्र, वाल्मिक, अजमित्र,
धर्मात्मा, क्रतु, मेधस।

सुधीर, रुचिक, दुर्गायु ,वादान्य,
मनसिज, निरंजन,
पाठा, त्वष्टा, चूली, मदन, अरुण,
सौभिर, अग्निभिमान।

संदीपनि, अर्बदक्ष, कुंभ, भृगु
बढू अग्निक, शमिक,
कौस्तुभ, निशाकार, परशुराम,
सनतकुमार, जम्निक ।



अदेह-सदेह आधे स्वर्ग से
लगी देवताओं की कतार
फूल बरसा कर किया स्वागत
‘ओम हरि, हरि बोल’ के समवेत स्वर






7.


झटके से उठा राजा कंस
अपनी नींद तज
नाग की तरह फुँफकारा
मैं करूंगा वध ।

देवकी के गर्भ से जन्मा
कल रात मेरा दुश्मन देव
झींगा मछली को मसलने जैसे
टेटुआ दूंगा दबा ।

ऊपर नीचे करते तलवार
बढ़ा वह कारागार
सुनकर शिशु क्रंदन
भीत हुआ उसका जीवन।

दांत भींच कोठरी के भीतर
भागा वह कसाई
बोला, शत्रु का करूं उन्मूलन
दे दे शिशु तू मुझे बाई।

देवकी ने कहा, भाई कंस
लड़का नहीं, कन्या है यह
कन्या हत्या क्या मिलेगा यश ?
संसार कहेगा, छि! छि!

कंस ने कहा, मत बनाओ मूर्ख,बहन
मुझे जानकारी है बेहतर
क्या दुर्गा नहीं थी लड़की
जिसने मारा महिषासुर।

बहुत धूर्त होते हैं देवता
करते नाना प्रकार छल
सतयुग या त्रेतायुग में
समाप्त किया असुर बाल।

तुम्हारी संतान
है मेरा काल
अभी छोड़ा तो आगे विपद
फसूँगा कपट जाल।

छीनकर बच्चे को, दौड़कर भागा
चट्टान ‘दर्पण’
हाथों से उठाया ऊपर
पटकने को चट्टान ।

खिलखिल हंसते चपला देवी
गई उड़ उच्च आकाश
अचरज से खोजने लगा कंस
अपने चहुंदिशा ।


हंसते-हंसते बोली देवी
अरे असुर कंस !
जान ले तुम्हारा होगा नाश
नष्ट होगा तुम्हारा वंश ।

तुम्हारा अहंकार होगा चूर-चूर
हे कंस, मूर्ख असुर
तुम्हें मारने वाला
जन्म ले चुका गोपपुर।

रोते-रोते उन्मादी पूतना
हो गई असंभाल
अर्द्ध नग्न शरीर
खुलगए उसके बाल ।

ले गया था लाडले को कंस
नहीं लौटा अब तक घर
दिन बीता, बीती रात
नहीं कोई खोज खबर।

कहां गया, किसको दिया
लेकर अपना पुत्र
गली-गली
लगी छानने मथुरा।

कहीं से आवाज सुनकर
वह भागी चट्टान दर्पण
उसी समय कोई गंधर्वी
कहने लगी अपने वचन।

हे कंस असुर, गोपनन्द के घर
पल रहा वह बाल
यह सुनकर धड़क उठी छाती
पूतना हो गई भय से लाल।

कंस के पांव पकड़कर लगी रोने
किसे दिया मेरा पुत्र
अपना पुत्र दूसरे को दिया
इतने कैसे हो निष्ठुर ।

भारी हो रहे मेरे स्तन
किसे कराऊँ दुग्ध पान ?
जाकर गोपपुर पिलाऊंगी अवश्य
मेरे धन को मेरे स्तन।

सुनकर यह एक उपाय
सूझा असुर के मन
आज जाएगी जरूर पूतना
कराने को दुग्धपान ।

कंस बोला, ओ पूतना मत पोंछना
अपने दूध भरे स्तन
राज वैध की लगा दूँगा औषध
नहीं होगा भीतर दहन।

जाओ कराओ अपने पुत्र को दुग्धपान
लेकर आओ राज महल
वह बनेगा मथुरा का युवराज
राजा-रानी हम द्वय।

जहर लाकर पूतना के
दोनों स्तनों पर दिया मल
बोला, पूतना जाओ जल्दी
गोपपुर इसी पल।

पूतना को नहीं डर भय
मार देगा कोई जन
उसकी नहीं रही लाज-शर्म
हो गई अर्धनग्न।

पूतना को कुछ नहीं दिखता
चारों तरफ घोर अंधेरा
उसके नजरों के आगे
नाच रहा केवल बेटे का चेहरा।

कैसे गोपपुर जाऊंगी
बेटे को कराने स्तनपान
बाढ़ की तरह भागी
अपने उद्वेग मन।

सारे गोपपुर में फैली खबर
रानी को हुआ लड़का
भले ही, उम्र हो गई पार
भाग्य में लिखा था पुत्र सुख।

ईश्वर की अनुकंपा से
पहले मिला रोहिणी के पेट का बच्चा
राजा के सद्कर्मों से
रहा वह एकदम सच्चा।

कितने वर्ष उपाय किए
उसने पाने को पुत्र-धन
प्रसन्न होकर देवताओं ने पढ़ा
राजा-रानी का मन।

सारी गोपियां प्रसन्न मन
राजा के घर डाला डेरा
गर्भनाल काटकर
कर रही थी साफ-सुथरा।

लंगोट बांधकर झुलाया पालना
होकर सम्मोहित
पालना भी गिर गया नीचे
गए इतने अनवरत गीत ।

ऐसे समय पगली पूतना
घुसी राजा के घर
उसका भयानक रूप देखकर
सारे लोग गए डर ।

बिखरे बाल, फटे वस्त्र
दिख रहे थे खुले स्तन
पूतना के बच्चे को देखने की चाह से
अस्थिर हो गया उसका मन।

घर भीतर जाकर देखा
झूल रहा था शिशु नवजात
डरकर गोपिया गई भाग
और नहीं वहाँ माता-पिता।

क्या नंद राजा के घर सूर्योदय
या हुआ चंद्रग्रहण
भगवान के फूंके प्राण
किसी नील रत्न ।

जैसे खोए बछड़े से मिली गाय
हुआ स्थिर पूतना का मन
माँ की आंखों में उमडा प्रेम
देखने लगी एकाग्र ध्यान ।

उसके कोमल गालों पर देने को चुंबन
बढ़ाएं उसने अपने उधर
अपने आप दोनों स्तनों से
बहने लगी दूध की धार।

बढ़ाए अपने अनियंत्रित हाथ
आगे किया अपना सिर
भक्ति के भगवान धीरे-धीरे
बढ़े उसकी ओर ।

कराने लगी पूतना माँ
अपना स्तनपान
इधर-उधर छुपे गोप-गोपियाँ
भौंचक हो करने लगे दर्शन।

चारों हाथ-पैर फैलाकर
दूध पीने लगे भगवान
आह्लाद से भर उठा
ममतामयी पूतना का मन।

कहने लगी, बेटे क्यों छोड़ मुझे
आ गए इधर
हो गई मैं पागल
खोजते-खोजते इधर-उधर।

कितने दुख से जन्म दिया तुझे
पकड़ कर खूँटा दीवार
पागलों की तरह खोजते-खोजते
मेरा मन हो गया अस्थिर।

मैं तुम्हें ले जाऊँगी मथुरा
पाकर खोया धन
नहीं छोडूंगी अकेले एक पल भी
देखूँगी तुम्हारा चेहरा दर्पण।

पूतना के वचन सून
भगवान ने बंद किया दुग्धपान
माँ के मुंह की तरफ लगे देखने
अपने अश्रुल नयन ।

तीन दिन के बच्चे के मुँह से निकला
प्यारी माँ सुन
तुम्हारी बात सुन पिघल गया मैं
जैसे जल के भीतर नून।

मथुरा छोड़कर आया गोपपुर
करने गोपलीला
यशोदा माँ की गोद में बैठूँगा
यह भाग्य की लीला ।

पूतना बोली, ठीक मेरे बेटे
नहीं चाहते मेरी गोद
जब तक हूँ जीवित
रख मुझे अपनी गोद।

‘हाँ’ कहकर पीने लगे दूध
लगाकर अपनी जान
दूध समेत चूस लिए
पूतना माँ के प्राण ।
8.


नंद के घर मना रहे आनंद उत्सव
दो बेटे, दोनों खूबसूरत
अपने हाथों में लिए
राजा-रानी हर्षित।

एक सोने की तरह तो दूसरा माणिक
देखने में मनमोहक
मानो दोनों चंपा और तमाल
दो पुष्प-गुच्छ आकर्षक।

ढलती उम्र में मिली
उन्हें दो प्यारी संतान
दोनों आंखों के तारे
नाम बलराम और किशन।

बलराम था सीधा-सादा
मगर बहुत नटखट किशन
रेंगते-रेंगते तोड़ देता
मटका, हांडी, बर्तन।

दूध, पनीर,मक्खन
खिलाने पर फेर लेता वह मुँह
मगर नीचे से उठाकर खाता
हुरूम,लिया,मुरुह ।
पूर्णिमा का चांद देखकर कहती माँ
आओ चंदा मामा आओ
मेरे कान्हू के साथ खेलकर
दूध भात खा जाओ।

मूर्ख नहीं बनने पर माँ डराती
राक्षस आओ आओ
कान्हू को अपने घर ले जाओ
और डांट फटकार से डराओ ।

कान्हू के गाल थपथपाकर
अपने पेट पर सुलाती
मेरे कान्हू को आओ निंदिया
लोरी गाती-गाती।

फिर उठाती, ‘उठ, हे लाल! उठ’
हो गया सूर्योदय
देख-देख हमारे द्वार पर
रंभा रही नन्हीं गाय ।

गोद में लेटाकर गीत गाते-गाते
लगाने लगी तेल
बालों में कंघी कर बांधी गांठ
करने लगी लाड-गेल।

विलंब होता देख माँ
जल्दी चली गई रसोईघर
ढेंकीकूद से रस्सी बांध
कान्हा की कमर ।

इधर से उधर, उधर से इधर
खेलने लगा नाना प्रकार
रस्सी से आजाद होकर
धीरे-धीरे चला घर से बाहर।

यमला अर्जुन जुड़वा पेड़
बीच में थोड़ा-सा अंतर
जहां से पार हुआ कान्हा
फँस गई है ढेंकी कूद मगर।

खींचते-खींचते आगे बढ़ा वह
बिना पीछे मुड़
पूरी ताकत जब लगाई उसने
धड़ाम से टूटे दोनों पेड़।

अचानक हुई तेज आवाज
हिल गया सारा गांव
भात हांडी का मुंह
बांध रही थी यशोदा माँ।

भारत हांडी छोड़कर भागी
नहीं दिखा कान्हा घर
कान्हू,कान्हू पुकारती भागी
आस-पास, इधर-उधर।

पागलों की तरह खोज रही माँ
चला गया कहां? चला गया कहां?
ढेंकीकूद से बांधा था मैंने
मगर अभी नहीं वहां।

घर सारा डाला खंगाल
सोया नहीं हो कहीं
उसका खून हो गया
क्या असुर ले गया कोई ?

पास में लोगों की भीड़
हो रहा था जोर शोर
कान्हू, कहते-कहते दौड़ी वहां
पसीने से होकर तरबतर।

देखा वहाँ कूद से बंधा
खिलखिलाता कान्हा प्रसन्न
जड़ से गए उखाड़
विशाल द्रुम यमला-अर्जुन ।

लौट आए मां के प्राण
तुरंत खोली कमर से रस्सा
कहा, यहां आ गया कैसे
मेरे प्राणों से ज्यादा प्यारा बच्चा।

तुझे नहीं देख कर
विकल हुई तेरी मैया
इतने बड़े-बड़े गिरे पड़े
डूब जाती मेरी जीवन नैया।

दौड़कर यशोदा ने उठाया कान्हू
चलो चलें अब घर
साड़ी के पल्लू से पोंछा
धूल-धूसरित सिर ।

मणिग्रीव और नलकुबेर
बने थे पेड यमला-अर्जुन
मुक्ति पाकर बोले
प्रभु! यह आपकी प्रेम पहचान।


9.

कान्हू बलराम दोनों बेटे
बैठे मां यशोदा की गोद
लाई थाली भर
खिलाने को मक्खन मोद।

बहला-फुसलाकर कहती, बच्चो!
खाओ भरपेट, जल्दी होंगे बड़े
नहीं खाने से कृशकाय,
रहेंगे दुबले-दुबले।

मेरा सोना बेटा कान्हा
खाएगा शीघ्र-शीघ्र
मगर मुंह बंद कर कान्हा
चेहरे को मोड़ता इधर-उधर।

खा ले, बेटा, खा ले फिर
खेलने जाओ दौड़कर
देखो, तुम्हारा भाई बलराम
जल्दी से खाता पेट भर।

यशोदा डालती उसके मुंह में कोर
मगर कान्हा निकाल देता बाहर
मां की गोद से भागकर वह
छुप जाता कहीं और ।

खोजने लगती यशोदा
हाथ में लेकर मक्खन
रेंगते-रेंगते भागता कान्हा
मुड़ते देखते करते दोलन।

वह चिल्लाई, कहां भागोगे ?
कर रही हूँ तुम्हारा अनुसरण
क्या लग रहे थे तुम्हें कड़वे
दही,रबड़ी,मक्खन ।


ललिता, विशाखा,इंदू,चित्रलेखा का
गांव की गली से हो रहा आगमन
रानी को घेरा चारों ओर
खुल गए थे उसके वसन ।

हद हो गई, हे रानी!
हो गई तुम इतनी बेशर्म
फेंको मक्खन, संभालो अपने परिधान
भाड़ में जाए पुत्र-प्रेम ।

कैसे फेंक दूं मक्खन!
कान्हा को खिलाए बिना
तुम्हारा क्या जाएगा!
भूखा मरेगा मेरा कृष्णा ।

कुछ भी नहीं खाता
पता नहीं, किसकी लगी बुरी नजर
थूकता रहता बार-बार
फेर लेता मुंह इधर-उधर।

गोपिया बोली, आप जाओ घर
हम ले आते हैं कान्हा पीछे
गिर गई है चुनरी तुम्हारी
कमर से भी नीचे ।

संभाल अपनी साड़ी का पाट
नन्द रानी लौटी भवन
बेटे के खातिर अस्थिर मन
हर पल, हर क्षण।

बलराम आकर कहने लगा, माँ
कान्हा खा रहा धूल
आकर देखो घर के आंगन
चाट रहा चप्पल।

यह सुन यशोदा लेकर छड़ी
गई घर के आंगन
धूल से भरा कान्हा का मुंह
कर रहा था चर्वण ।

पकड़ कर कान्हा के कान
यशोदा ने उठाई छड़ी
दुष्ट! खा रहा मिट्टी
अभी निकालती हूँ हेकड़ी ।

दूध, पनीर,मक्खन, रबडी
लगती है तुम्हें खारी
क्यों करते हो मुझे क्रोधित
तुम हो इतने अवज्ञाकारी ।

मिट्टी खाने से मुंह सूजेगा
और पेट में पड़ेंगे कृमि
तेरी शरारतों के बारे में
तुम्हारे पिता को बताऊंगी अभी।

कान्हा बोला, मां
नहीं खाई मैंने मिट्टी
बड़े भैया बलराम की
यह शिकायत झूठी।

पहले उसने मुझे मारा मुक्का
तो मैंने जड़ दिया हाथ
मुझे पीटवाने के लिए
तुमसे कर रहा झूठी बात।

यशोदा बोली, खोल अपना मुख
अगर बोल रहा सच
मैंने देखा अपनी आंखों से
तुम चबा रहे थे कुछ।

कोटि ब्रह्मांड नवखंड मही
अनंत आकाश व्यापत
चार दिशा, चार बादल
सूर्य चंद्रमा तारे असमाप्त।

सात समुंदर,पहाड़,डंगर
नदी-नाले, झरना, झार
ठाठ-बाट,नगर-शहर
गांव-गुवाल, घर-द्वार।

स्थावर, जंगम, कीट, पतंगा
जीव-जंतु अनंत
सब अपने-अपने कर्मों में व्यस्त
शब्दों में अनभिव्यक्त।

मथुरा,यमुना, गिरि गोवर्धन
गोप नन्द का राजभवन
कान्हा को खिलाती यशोदा
दही, दूध,घी, मक्खन।

देख नन्द रानी घबराकर
हो गई अचेत
मां के माथे पर
कान्हा ने रखा अपना हस्त।

होश में आकर बोली रानी
क्या मैंने देखा कोई स्वप्न ?
किसी तांत्रिक ने किया तंत्र-मंत्र ?
मेरा मन क्यों हुआ बेचैन।

क्या देवताओं की यह माया
या जदूगरनी ने मारा बान
मेरे बेटे के पेट के अंदर
देखे मैंने चौदह भुवन ।

क्या मैं हो रही पागल
या विद्रूप हो रहा मेरा चित्त ?
चल कान्हा जल्दी घर
अभी ताजी है मेरी याददाश्त ।

मां श्री समलेई को जुहार
चढ़ाऊँगी नारियल चार
सिंदूर काजल मंदार पुष्प
लाऊंगी आगामी मंगलवार।

अपने पल्लू की छत्रछाया में
रखना मेरे कान्हा को सुरक्षित
तुम्हारे चरणों में होकर नत-मस्तक
कर रही हूं विनती ।

कान्हा बोले, न सपना, न माया
न जादूगरनी का बान
विश्वरूप दिखाया मैंने तुम्हें
यह है मेरी प्रेम-पहचान।


10.


दिन-प्रतिदिन हो रहे थे किशोर
दोनों भाई, कान्हू और बलराम,
हाथ-पैर मांसल, देह सुगठित,
अच्छा खाते,खेलते-कूदते,करते व्यायाम।

एक दिन, माँ ने तैयार किया उन्हें
कंघी कर बांधे बाल
नीचे बैठाकर खाने को दिए
ताजा दही,गुड़ और चावल।

उसी समय लगे पुकारने
खेलने के लिए गोपपुर के ग्वाल-बाल
देख, कान्हू, बलराम खाने में मग्न
दरवाजे पर वे होने लगे व्याकुल।

जगलू, बंगलू, खिरधर, लालू,
सुदाम और मधुमंगल।
सुमाली, गौरा, चंपक, बिदुआ,
दामा, सुरथ और सुबल।

मित्रों के संग प्रसन्न चित्त,
दोनों भाई आए बाहर
गाँव की धूल भरी गलियों में,
खेलने को तत्पर।

सखा ने कहा, "कान्हू, बलराम,
आओ, खेले आज हम खेल,
जमीन जोतते किसान जैसे,
बैलों से हल-नंगल ।

धूल में बनाया वर्गाकार खेत
सुदाम और मधुमंगल
बैलों की जोड़ी बनी सुरथ, सुबल,
कान्हू बन गया नंगल।



कान्हा ने बाएँ पाँव को
बनाया हल की जड़
बलराम बने हलधर,
कान्हू के टखने को पकड़।

हाथ में छड़ी पकड़कर
गाने लगा किसानी गीत झायँ-झायँ
"देखो,इस बंजर मिट्टी में ,
कैसे चलता नंगल सायं-सायं."

खेल के अंत तक बजाता रहा ताली
बिदुआ, ब्राह्मण
आज के खेल में बने बलराम
शानदार किसान ।

" हल धारण करने से कहलाए हलधर
मगर नहीं भात खुरी
काश ! इसे कोई लाता,
कोई गौरी सुंदरी। .

" धूम्र भरी चिलम, पुआल का सरकंडा
सिर पर पगड़ी का परिधान
हलवाले की तरह गाया गान
अच्छे संगीत की धुन।

सभी ने हंसते हुए मारे ताने
खीझ गया कान्हू भीतर-भीतर
"मेरे भाई को चिढ़ाते हमेशा
कहकर हलधर-हलधर। “

बिदुआ बोला, अच्छा था खेल
हे हलधर!
जमीन जोती, बीज बोए :
पर कब उगेंगे अंकुर?

कान्हू को आया क्रोध ,
लेकर भागा बेंत
"ये लो अंकुरित बीज”
कहकर मारी उसके पीठ।


तुरंत चला गया बिदुआ घर
रोते जोर-जोर
उसके अंधे पिता ने कहा, "ऐ बेटे,
कहाँ ठोकर खाकर गए हो गिर ?

बिदुआ बोल, "मैं गिरा नहीं,
कान्हू ने मुझे मारी छड़ी
घुटने पर लाल रंग की
उभर आई गुमड़ी ।

अंधे ने कहा, "ले जाओ मुझे
उसके मां -बाप के यहाँ
राजा का बेटा, इतना घमंड!
देखता हूँ मैं उसे वहाँ।

हाथ पकड़कर बिदुआ
ले गया उन्हें नन्द राजा के घर
अंधे ने कहा, "क्या दोष है मेरे बेटे का
अगर कहा उसने 'हलधर' ?

हलधर बुलाने से
मारी छड़ी बेटे के तन
अगर पालन-पोषण करता मेरे बेटे का
तो कर भी लेता मैं सहन ?

" क्या चुराया या खा गया,
जो दिया मेरे बेटे को दंड ?
ऐसा असभ्य आचरण करें अपने घर
उसे किस चीज का इतना घमंड!

" गरीब लड़के को कमजोर जान,
बेरहमी से पिटा जोर-दार
वह किसी और का बेटा होता अगर
गर्व हो जाता चूर-चूर।

कहाँ है राज्य, कहाँ है रानी?
कहाँ है कान्हू, बलराम ?
नहीं करता मैं स्वीकार
ऐसा अनुचित काम।

भूख- दुःख में बिताते हम अपने दिन
लेकर उधार, मांगकर भीख
किसी की दया से मिलती अगर भिक्षा

तो भरता है पेट, नहीं तो सताती भूख।

चुपके से आए कान्हू , बलराम
अंधे के आगे हो गए खड़ा
कान्हू ने कहा, "अरे, चाचा!
व्यर्थ में क्यों रहे हो मुँह फाड़ ?

" तुम्हारे बेटे को अगर पीटा मैंने
दो उसका सबूत
पीटा तुम्हारे बेटे ने मुझे
बात कह रहा विपरीत ।

"तेरे बेटे की मार से ,
उभरी गुमड़ मेरे पीठ पर
देखो, देखो, देखो, कहते ही
अंधे की आँखें घूमी उस ओर ।

उसने देखा आँखों के आगे ,
खड़े थे सुंदर बाल गोपाल
हुआ साष्टांग दंडवत
पकड़कर उनके चरण-कमल।

भक्ति भाव से बोला, हे नारायण!
जगतकर्त्ता, हे हरि,
मुझे मालूम नहीं पता था, कान्हू के रूप में
अवतार लिए इस धरी ।

"अंधा हुआ मैं विगत जन्मों के
पापों के खातिर
मैं अब देख सकता हूं इन आँखों से
आपकी दया से यह सारा संसार।

"शांति स्थापना के लिए, हे हरि,
लिया आपने रंगावतार
दिखाओ अपनी प्रेम पहचान
बोझ हल्का हो इस पृथ्वी पर ।

जानता हूँ, समझता हूँ, सोचता हूँ
ढका माया के आवरण
लगाया कान्हा पर झूठा लांछन
अपराध मेरा क्षमा करो भगवान।

"जय जय कान्हू ,जय बलराम,
जय कान्हू-बलराम
जो लेता तुम्हारे चरणों की शरण,
मिलता उसे वैकुंठ धाम।

दया के सागर, कान्हू बलराम,
पकड़े दोनों ने उसके एक-एक हस्त
उठाकर बूढ़े को , लगे कहने,
"प्रसन्न हैं हम, हे भक्त !

"तुम्हारे बेटे ने दिया मुझे,
आज से मेरा नाम हलधर
इस जन्म में उठाऊँगा नंगल,
युद्ध में होगा वह मेरा हथियार।

"किसान की पत्नी, गृहलक्ष्मी;
नंगल डेढ़ ससुर
रखेगी मान, छूने पर करेगी स्नान
रास्ता देगी एक हाथ दूर।"

11.

एक दिन घूम रहे थे श्याम वनमाली
अकेले वृंदावन
वृंदावन की प्राकृतिक सुषमा का
ले रहे थे मन ही मन आनंद ।

कदम्ब फ़ॉलों को चूम रहे भँवरें,
होकर भावमग्न
मोर-मोरनियाँ चारों ओर
रति-क्रीडा में लीन।

हिरण-हिरणी एक-दूसरे को
दे रहे चुंबन
नर मादा डहुँक पक्षी,
कर रहे आलिंगन ।


दैहिक प्रेम में वे तल्लीन,
एक पल भी नहीं दूर.
अपने आप हुआ स्मरण,
गोप में लिया रंगावतार।

भावातिरेक गोपियाँ,
सोलह सहस्र
तपस्या में थी रत मुझे पाने के लिए,
युग-युगांतर ।

नहीं वे जान पाईं और न ही पहचान
कि मैं हूँ उनके पास
पूर्व जन्मों की यादें ,
विलुप्त हुई माया-पाश ।

प्यासा जाता है जल के पास ,
पर यहाँ प्यासे के पास आया जल
उन्हें नहीं बिल्कुल याद
मैं स्वयं फँसा उनके जंजाल।

प्रेम मधु घट, भाव-प्लावित,
उस राधा को भी हुआ अब विस्मरण
मेरी अर्द्धांगिनी वह ,
फिर से कैसे होगा हमारा युग्मन ?

खेलने अहर्निश रासकेली
'राधा माधव मेरा धरावतरण ,
गोप-लीला के खातिर,
गोपपुर में हुआ मेरा आगमन।

"किसे बताऊँ, मैं क्या कहूँ?
मेरे मन की बात
लोग करेंगे मेरी निंदा,
चुकानी होगी इसकी कीमत।

सोचते-सोचते कान्हा को,
सूझा एक उपाय
गोपपुर की एक गोपी है;
बुद्धिमान और सर्वज्ञ ।

नाम उसका दुतिका ,
चारों विद्याओं में निपुण
यदि पहचहानी मुझे तो अवश्य,
करेगी मेरी इच्छा पूर्ण।

छिप रहे डंगर तल
उस समय सूर्य भास्कर
विचारों की उधेड़बुन में गोविंद
लौट रहे अपने घर।

गोपपुर में गरज रही सारी रात,
घोर झुमरावती
बैठे थे निर्निमेष नयन,
टकटकी लगाए श्रीपति।

चौसठ योग कलाओं के साथ जन्मे
योगेश्वर भगवान
योग मुद्रा में बैठकर करने लगे ,
दुतिका चतुरी का ध्यान।

आओ, दुतिका, भावरसिका,
इस समय करो मेरी सहायता
कान्हू की पुकार सुन
हुई वह उपकृता ।

वह निकली घर से बाहर
निस्तब्ध घोर रात,
छन छन मन जीवात्मा,
भाव रस से ओत-प्रोत।

नंदा के घर जाकर देखा,
कृष्ण बैठे पलंग पर
विचारों की दुनिया में खोए ,
मुस्कान भी नहीं उनके अधर।

मुरझाए चेहरे पर फूटी मुस्कान
जैसे गुलाब फूल
बिखरे हुए थे मोर-पंखी धारे
उनके घुंघराले बाल ।

सुरीली आवाज में चिढ़ाते ,
प्यार से बोली वह,
"अरे वनमाली, किसने दी तुम्हें गाली ?
मुरझाया है इतना मुँह !

" राजकुमार के पास मिठाइयों का
क्या कभी नहीं कम होता ढेर ?
चाहने पर क्या नहीं मिलेगा,
भरे हुए हैं भंडार ।

"किस पर कर रहे हो इतना विचार
क्या है बात? प्रिय, खुले मन से बता
मुझसे जितनी होगी,
अवश्य करूंगी मैं तुम्हारी सहायता।"

दुती बोली जैसे वह अनजान,
अत्यंत ही मृदुभाषी
कहो, नवघन, दैतारी
मुझे मानो अपनी विश्वासी।

"हे सखी! गोपपुर में लिया मैंने अवतार,
पाने को गोपी भाव
न वह मुझे जानती और न ही पहचानती,
मुझे क्या हुआ लाभ ?

सिर हिलाते बोली दुतिका,
अधरों पर लिए अल्प-मुस्कान,
" नाम बताओ, किस गोपी पर
रिझा है आपका मन ?

"एक पल में करूँगी हाजिर,
मंत्रों से कर सम्मोहन
तीन बार खाती हूँ सौगंध,
अवश्य होगा आपका मिलन "।

यह सुनकर बोले श्रीपति ,
"हे दुती, नाम उसका राधिका
कैसे करूं उसका वर्णन?
वह मेरे जीवन से भी अधिका।

"सोलह हजार गोपियों में,
वह है मुकुटमणि
मेरी आंखों की तारिका,
भाव-सरिता की तटिनी।

"जन्म मेरा होगा सफल
यदि करती हो उससे भेंट
उसके बिना संसार असार,
गोप-लीला तो दूर की बात।

दुतिका ने कहा, "बहुत छोटी-सी यह बात,
अरे किशन!
इस खोखली बात पर अनावश्यक
हो रहे आप परेशान ।

"इसी वक्त जा रही हूँ मैं ,
मेरे साथ लाने राधिका
कदंब के पेड़ के नीचे होगा मिलन,
जाकर वहां करो प्रतीक्षा।

मक्खी की तरह चली गई दूती,
चंद्रसेना के घर
बांस से बना द्वार,
ऊपर पुआल का छप्पर।

आवाज दी उसने, "सखी ओ सखी,
उठो, सखी राधिका, हो कहाँ ?
जल्दबाजी में एक काम के खातिर
आई मैं यहाँ।

दुति की पुकार सुन
राधिका ने खोली खिड़की
और कहा, "इस घोर रात में
क्यों आई बेशर्म दुतिकी?

दुतिका बोली, "आई हूँ सखी,
करने तुम पर अहसान
तुम्हारे लिए स्वर्ग से,
लाई हूँ दिव्य-सुमन।

"चंद्रसेना के लिए तुम हो
पका हुआ आम फल
बंदर के गले में मुक्ताहार,
यह जोड़ी पूरी तरह अनमेल।

"नंद राजकुमार ने भेजा संदेश
अभिनव हरि नटवर
तुम्हारी सुंदरता पर अभिभूत,
और मन अस्थिर ।

"हे सखी! कुछ किए होंगे तुमने पुण्य,
भाग्य दे रहा तुम्हारा साथ
कामदेव से भी ज्यादा सुंदर,
पुरुष पकड़ेगा तुम्हारे हाथ।

"तैयार हो जाओ जल्दी, सखी,
प्रतीक्षा में होंगे कान्हेई लाल
मैं भी हूँ अति आकुल
देखने को राधाकृष्ण युगल।"

सुनकर राधा हुई क्रोधित,
बोली, तेरी यह दुष्टामी !
नन्द पुत्र मेरा भाँजा किशन
मैं हूँ उसकी सगी मामी।

कैसे करती हो ऐसी अनैतिक बात ,
तुम झगड़ालू महिला
मजाक उड़ाने को तुझे
कोई और नहीं मिला।

मामी-भाँजे का संबंध बनाने में
तुझे नहीं आई लाज
तुम हो बेशर्म नारी
कह रही हूँ खुलेआम आज ?

दुतिका बोली, अच्छी तरह जानती हो,
तुम और गोपपुर निवासी
भले ही, गोपपुर में लालन-पालन
पर मथुरा में उसकी पैदायशी।

किशन नहीं है नंद-पुत्र,
वह वसुदेव की संतान
राजा कंस के डर से,
रखा गोपपुर में नवजात किशन।

राधिका बोली, भले ही, वह हो किसी के भी पुत्र,
मगर है पर-पुरुष की काया
विवाहित महिला राधिका को,
क्यों बनाना चाहती हो वेश्या ?

"हे व्यभिचारिणी, वर साधिका,
बारह पतियों पर मन!
देह तुम्हारी युवा-यौवन,
नहीं कोई साग या बैंगन ।

भाग, यहाँ से चरित्रहीन महिला,
इसी क्षण,इसी पल,
सुनकर राधिका की दुत्कार
दुतिका का चेहरा हुआ धूमिल।

कदंब के नीचे हरि प्रतीक्षारत,
लिए मन में आस
उसी समय दुतिका गोपी,
आई उनके पास ।

नीचे देखते हुए बोली, "हे कान्हू,
सहमत नहीं हुई राधा
किया मैंने भरसक प्रयास,
पर उसके मन में उठी बाधा।

जैसे-जैसे उसने कहे मुझे अभिशप्त शब्द
हे भगवान! कर भी नहीं सकती अभिव्यक्त
लौटी मैं होकर निराश पराजित,
मेरा चेहरा हुआ लज्जित।

"कान्हू' और मेरे पास नहीं कोई उपाय,
चकरा गया मेरा मन
प्लास फूल की तरह देखने में सुंदर,
मगर निंबोली की तरह स्वादहीन।

"सुंदर-सुंदर कई गोपियां हैं यहाँ,
करो कोई और चयनित
राधा की आशा छोड़ो, हे कान्हू,
नहीं सकते हम उसे जीत "।

"मैं जा रही हूँ," कहकर दुतिका ,
चली गई अति दूर
कृष्ण की आशाओं पर फिर गया पानी,
कैसे लौटे खाली हाथ घर ?

विपरीत धारा की मछली के सिर पर प्रहार की तरह,
आहत हुए रसराज
राधा भाव रस के नशे से,
खो गई डर और शर्म-लाज ।

पहुंचकर राधा राई के घर,
दरवाजे पर मारी लात
कुंडी समेत टूटा द्वार,
कान्हू के पाद आघात।

चौंक गइ राधा गोपालिन
हुई खड़ी उठकर
हे माँ, घुस आया कोई
घर में बदमाश चोर ।



संचित धन को चुराने
कैसे आए तुम मव्वाली
अच्छी लगती है तुम्हें ताजी मिर्च,
बिखरी पड़ी है गंदी नाली।

कल सुबह राजा नंद के घर,
करूँगी तुम्हें हाजिर
टूट जाएंगे तुम्हारे हाथ-पैर
ऐसी मारूँगी तुम्हें मार।

कृष्ण ने कहा, पहचाने देनेके लिए,
आया हूँ इस घर
मैं बिकने को तैयार हूँ, राधे,
खरीद लो मुझे अपने प्यार ।

"कृष्ण कन्हैई वनमाली मैं
निकुंज वनबिहारी
माधव, केशव, हरि, पीतवास,
मधुसूदन, मुरारी।

अच्युत, मुकुंद, श्री परमानंद
दैतारी, श्रीपति,
मदन मोहन, नंद के नंदन,
पहचानो मुझे राधा श्रीमती।

"भूल गई तुम राधा विनोदिनी,
हम क्यों गोपपुर में हुए पैदा
राधा माधव युगल मूर्ति
करने अहर्निश रासलीला।

" मैंने भेजी यह संदेश देने दूतिका,
बिना सोचे-समझे बाहर तुमने दिया निकाल
लौट आएगी अतीत स्मृतियाँ,
तोड़ोगी अगर मायाजाल ।


"मैं खुद आया हूँ तुम्हारे पास
देने को मेरी पहचान
पहचानो मुझे, रासेश्वरी,
मन में कर सुमिरन।"

राधिका बोली, "कौन लफंगा,
दलाल, जालसाज !
जल जैसी झलमल बातें,
लग रही मुझे निर्लज्ज।

"राधिका नहीं है कौड़ी का खेल
जिसे खेलों मन ही मन
शास्त्रों में देव दुर्लभ
नारी का सतीपन ।

"भंग करने मेरा शील,
आए हो तुम ठग
पड़ेगी जब तगड़ी मार,
भूल जाओगे मस्ती सब।

"तुरंत भाग जाओ यहाँ से बदमाश,
चाहते हो अगर अपना भला
राधा का रोष देखकर कृष्ण का,
सूख गया तालू गला।

मन मारकर निराश, हताश,
किशन लौटे कदंब तल
रंगावतार हो गया व्यर्थ,
टूटा उनका मनोबल ।

'जिसके लिए हुआ मेरा अवतार,
वह नहीं सकी उसे पहचान
भूल गई वह फँसकर,
मायाजाल, मिथ्याभिमान।

" देखकर मेरा भौतिक शरीर
सोचती है मुझे केवल इंसान,
कहलाएगी पापी,
अगर सौंपा परपुरुष को तन।


'राधा जो है, कृष्ण भी वही,
नहीं है केवल उसे स्मरण
मैं कैसे दूँ, द्वापर युग में,
अपनी प्रेम पहचान ?

"जैसे धरती झेलती भार,
वैसे राधा को घेरी माया
आधा रह जाएगा मेरा अवतार,
तज दूँगा मेरी काया।'

निराश मन कदंब तल
सो गए हरि पेट के बल,
स्वर्ग में देवता हो गए चिंतित
धरती पर होने लगी हलचल।

वेद ब्रह्मा का काँपा आसन,
दौड़कर गए वृंदावन
देखा, औंधे मुँह भगवान,
शोकाकुल मन से कर रहे शयन।

बोले- हे हरि, आनंदपुर में,
विराजता परमानंद
क्यों उदासी की लहरें,
उफनी इस बांध !

"जानता हूँ,भूल गई है राधिका,
फँस माया-मोह के पाश
हे प्रभु, इसका उपाय है मेरे पास
मन में रखो उल्लास।

सत्य युग में किया था मैंने यज्ञ;
जिससे निकला एक बांस
यज्ञ के घी-आहुति का सेवन कर,
बढ़ा वह छत्तीस हाथ ।

पैंतीस हाथ के पाँच धनुष
बनाए मैंने यज्ञ धाम
पिनाक, सारंग, कोदंड,
गाँडीव, अजगव उनके नाम।

"उसके अग्र शीर्ष को काटकर,
बनाई मैंने मोहन बांसुरी
द्वापर यागा में वह
कृष्ण की बनेगी अंशी।

"स्थमन, मोहन, वश, उच्चाटन
आकृष्ट पांच सुर
उसका लेकर नाम बजाओ बांसुरी,
टूटेगी माया डोर ।

"देखेगी वह आपका असली रूप,
लौट आएगी उसकी स्मृति
प्रेममय हरि मूर्धन्य रसिक
और प्रेम मूर्ति ।

कदंब तल मोहन बांसुरी में
बज उठी ‘राधा,राधा’ की धुन
चारों दिशाएं, चारों युग, चारों मेघ
करने लगे नृत्य ताक धिन्न् ताक धिन्न्।

बही पवन, बही यमुना ,
उनकी गति हुई जब मंथर
सूखे पेड़ों पर नई पत्तियां
निकालने लगी अपने सिर ।

जीव जन्तु हुए पुलकित
अपूर्व उन्माद
पत्थर लगे पिघलने,
सुनकर बांसुरी की नाद ।

खाट पर सोई राधा ने
सुनी ‘राधा, राधा’ बांसुरी की पुकार,
ताल देकर नाचने लगी आत्मा
तोड़कर माया की डोर ।

पता चला, जब खुले नयन,
वह थी कृष्ण का अंग
मन में उसके फूटा उद्वेग
कैसे करूँ अब कृष्ण का संग ?

दौड़ पड़ी असंयमित राधा ,
बिना संभालें अपने परिधान
ऊबड़-खाबड़ रास्तों में,
काँटों से हो गई लहूलुहान।

दौड़ती गई वह
सुनकर धुन बांसुरी
कदंब के पेड़ के नीचे,
खड़े थे परमपुरुष बांसुरीधारी।

मायामोह में फँसी थी राधा
समझ गए श्री कृष्ण
बांसुरी के मधुर स्वर सुन वह,
भागी आई इसी क्षण।

बाहें फैलाकर प्रभु ने पुकारा,
"आओ,रासेश्वरी, आओ।
राधा माधव की युगल मूर्ति
रासलीला अवतारी।

धीरे-धीरे कृष्ण के अंगों में,
समा गई किशोरी राई
राधा कृष्ण के दिव्य प्रेम में,
बंध गई वह भावग्रही।





12.

कदंब के नीचे रंग-बिरंगे रंगाधार,
खड़े हुए त्रिभंगी आकार
मोहन बांसुरी को अपने होंठों पर लगाकर
बजाने लगे जोरदार ।

गोप ग्वालिनों का भाव रस से
पुकारने लगे एक-एक नाम,
ब्याज रही बांसुरी वृंदावन में
जल्दी आओ, प्रियतम।

"ललिता, विशाखा, इंदु, चित्ररेखा
सुमेधा, पद्मावती,
तुंगविद्या, इला, चम्पा, रंगावती,
चंद्र, उजलमती।

"मरुआ, मंदार, सुरुबाली, झार
बेलमती, लाएवान
नियाली, मालती, उदिआँ, केतकी,
सरोजिनी, घएसान।

लवंग, लतिका, कुंद, मालविका,
सुकेशी, वृंदावती
माधवी, रहेला, छाया, शशिकला
सूर्यमुखी, सुमति।

कमला, विमला, मधुमती, माला,
सपना, सरग तारा,
उकिया, सचला, भार्गवी, नीला,
चंचला, सुजाता, हारा।

मदना, मोहिनी, धीरा, कुमुदिनी,
उपासी, दिरबाबली,
रमा, मनोरमा, श्यामा, प्रतिमा,
वसंत, मंझरीमली।

गोपपुर की सारी गोपियां
कर रही काम अपने घर
बाँसुरी के सुनकर सुर
हो गई वे अधीर ।

कोई दूह रहा था गाय
कोई मथ रहा था दही
कोई निगल नहीं पाया रोटी का कोर
आधे रास्ते फँस गया कहीं।

कोई बच्चे को पिला रही दूध
चली गई उसे नीचे रख कर
कोई दबा रही थी पति के पैर
निकली दबे पांव बाहर।

कोई पहन रही थी कपड़े
भागी उन्हें लेकर साथ
कोई कर रही थी कंघी
छोड़ भागी खुले बाल ।

किसी को उफनते दूध ने
गिरकर बुझा दिया चूल्हा
गांव की गली-गली उन्मत्त
गोपियां भाग रही एक मुंहा।

विकल होकर भागी गोपियां
अपनी-अपनी बाट
नहीं तो फट जाता उनका हृदय
लग रही उत्हाट।

किसी को नहीं था सुध-बुध
मदमस्त सभी सुन बंसी धुन
सोलह हजार गोप ग्वालिनें
यत्र-तत्र भाग रही अपने जुनून।

वृंदावन दिखने लगा जैसे
उड़न चींटियों का झुंड ही झुंड
टकराई, लड़खड़ाई, कांटों में गिरी
फट गए जहां-तहाँ कपड़े

विधवाओं की तरह तोड़ी चूड़ियां
कंठ से निकले कर्कश स्वन
कोई ठोकर खाकर गिरी जमीन
घुटने जोड़ों से बहने लगा खून।

कदम पेड़ के चारों ओर
सौ वृत्तों में गोप-ग्वालें
केंद्र बिंदु पर बांसुरी बजाते
नीलमणि वनमाली।

बांसुरी के स्वरों का मधुर आकर्षण
सभी देख रहे एक नजर
गुड में खींची आती चींटियाँ
वैसा ही दिख रहा मंजर।

हाथ फैला कर बोली गोपियाँ
हे प्रभु हमारे संताप हर
तुम नहीं हरोगे तो सारी गोपियां
मर जाएगी एक-एककर ।

एक सूर्य की रश्मियों से
जैसे रोशन होता सारा संसार
सोलह हजार गोपियों के मन
जीत लिए एक ही बार।

छप्पन करोड आत्माओं ने जैसे
प्रभु परमात्मा एक
सोलह हजार गोपियों को प्रेमार्पण करते
कृष्ण लग रहे अनेक ।

सहलाते गोपियों के गाल
कहीं मधुर मीठी बात
लौट आओ अपने घर
बीत चुकी आधी रात।

विवाहिता छोड़ आई
पीछे अपने वर
रो रहे होंगे बच्चे
जाओ जल्दी घर।

अंतरात्मा से किया उद्योग
नहीं जाता कभी विफल
जैसा बोओगे बीज
अवश्य वैसा मिलेगा फल।

जाओ, हे गोपियों!
प्राणियों का मंगल करेगा भगवान
तुम्हें भक्ति प्रीति में बांधकर
दे रहा हूँ अपनी प्रेम पहचान।

13.

विस्मादित होकर सिंहासन पर
बैठे राजा कंस
जितने भेजे वीर असुर
सभी हो गए ध्वंस ।

कितने बलशाली है
वे दो ग्वाल
जितने वीर भेजे थे गोप
खा गया उन्हें अकाल काल।

'शकटा, पूताना, धेनुका, तूरना,
अघा, बका, केशी, शंढा, जैसे असुर
व्योमा, प्रलम्बा, और वत्स जैसे वीर
हुए सब पृथ्वी पर ढ़ेर ।


क्या ग्वाल के भांजों को आता है
जादू तंत्र
बिना हथियार बलवान वीरों को
मारने के मंत्र ।

भिशप्त हूं मैं, गोपीपुर जाने से
फट जाएगा मेरा दिल
अन्यथा गोपपुर का कर देता
नष्ट इसी पल ।

कृष्ण बलराम किस खेत की मूली
उखाड़ देता दोनों के पाँव
अगर न मिला होता मुझे शाप
इसलिए दे रहे अपने मूछों पर ताव।

उसी समय वीणा यंत्र बजाते
पहुँचे मुनि नारद
बोले, हे कंस राजा
क्या झेल रहे हो दर्द ?

बता देता हूं तुम्हें उपाय
चाहो तो उसे लो मान
क्यों जाओगे तुम?, आएंगें वे
छल से दो उन्हें निमंत्रण।

पौष मास में आता है
त्यौहार ‘धनु-यात्रा’
आमंत्रित करो राजा-महाराजा
दूर-दूर से मथुरा।

बुलाओ नंद राजा को
गोप से लाए सब ग्वाल
भेजो दूत समेत रथ
लाने को बलराम, गोपाल।

अक्रूर के सिवाय नहीं ला पाएगा
उन्हें कोई और दूत
आएंगें वे सुनिश्चित
कोई काट नहीं पाएगा उनकी बात।

अपने दोनों भांजों को
तभी जाकर पाओगे मार
अगर तुमने नहीं मानी मेरी बात
तुम पर आएगी विपदा घोर।

नारद मुनि की सलाह
भा गई कंस के मन
करने लगा धनु-यात्रा की तैयारी
बिना खोए एक क्षण।

कोसल, कलिंग, चुडंगा, उडंग,
सिंधु, मघ, मत्स्य, अंग,
सौराष्ट्र, कर्नाटक, मराठा,
विदर्भ, उत्कल, बंग।

मालव, नेपाल, मगध, रसाल
कुंज,गल,बेला,ऊल
जम्बू द्वीप के सारे राजा-महाराजा,
बैठेंगे यहाँ गोल-गोल।

चारों दिशाओं में भेजे दूत
लेकर निमंत्रण पत्र
दलबल सहित ठाठ-बाट से
पधारे धनु-यात्रा।

कंस राजा स्वयं पहुंचे
अक्रूर मंत्री के भवन
हार्दिक अभिवादन कर
उसने बैठने को दिया आसन।

कंस बोले, अक्रूर मेरे दास
तुमसे है मुझे आस
कर दोगे मेरा एक काम
शत-प्रतिशत ऐसा मुझे विश्वास।

जिसका हो ससुर असुर जरासंध
और भाई असुर बाणासुर
नारका जिसका लंगोटिया यार
और राज्य मथुरापुर।

कर रहा धनु यात्रा का आयोजन
अवश्य होगा तुम्हें मालूम
जंबू दीप के राजा-महाराजा
पधारेंगे इस रंग धाम।

मैं तुम्हें देता हूं आदेश
रथ लेकर जाओ नंद के घर
नंद के पुत्र कान्हा बलराम
ले आओ मथुरापुर ।

सौ मटके दूध-दही
लाएगा नंद ग्वाल
नहीं मानेगा तो
गोपपुर देना जला।

अक्रूर बोले, धन्य-धन्य
कंस राजा बुद्धिमान
सात जन्मों तक भूल नहीं पाऊंगा
तुम्हारे गुण महान।

कल-बल-छल से पहले
जो करता दुश्मन का नाश
उसका मन रहता शांत
राज्य में रहता सुख का वास।

हरि, बलराम को ले आऊंगा मैं
चिंतित नहीं हो राजा
रात होते ही करूंगा प्रस्थान
रथ को स्वयं सजा।

जैसे सूर्योदय होते ही
हट जाता कोहरा
कंस का मन हुआ शांत
लाएगा अक्रूर नया सवेरा।

अक्रूर कंस की, कंस अक्रूर की
करने लगे प्रशंसा कोरी
अपने-अपने उद्देश्य से वे
चाह रहे थे देखना बलराम, हरि।

खिलखिलाती हंसी अक्रूर के घर से
पहुंची राजा कंस के पास
खुशी से उछला उसका मन
जैसे जल में उछलता हँस।


वैद्य कहता, हो जाओगे ठीक
अगर पीओगे जल शीतल
बेहतर होगा उसे पिला दो
एक प्याला पखाल जल।

अक्रूर का मन उड़ने लगा आकाश
कंस को दिया धन्यवाद मन ही मन
शुक्र है तेरा, गोपपुर जाकर
करूंगा भगवान के दर्शन।

जिनके चरणों की सेवा नहीं कर पाते
ब्रह्मा, इंद्र, शिव
जिनका नाम जपने से
तर जाते भी जीव।

जन्मों-जन्मों के तप-पुण्य के कारण
मिले मुझे यह फल
आज करूंगा भगवान के दर्शन
देखूँगा उनके नयन कमल।

जन्म-जन्म के तप-पुण्य
आज हुए फलीभूत
तभी मिला मौका मुझे
कृष्ण को बिठाने अपने रथ।

हाथ फैलाकर पकड़ लूंगा आज
आकाश का चांद
माया बंधन से मुक्त अक्रूर
मन में उठा आह्लाद।

रथ को सजाया अपने हाथों
कर प्रभु का स्मरण
देहना तुलसी की मालाएँ
लगाई रथ के चारों कोण।

कपूर, अगरबत्ती, चंदन पानी से
सींचे अपने रथ के कोण
भीतर रखी सोने की कुर्सी
और मखमली आसन।

मंगल घड़ी में घोड़े बांधकर
बाहर निकाला रथ
शिव मंदिर में शंख घंट ध्वनि
और पेड़ों पर चिड़ियों का कलरव।

बहती हल्की-हल्की
सायं-सायं करती शीतल पवन
मधु चूसते भ्रमर और
सुगंध बिखरते सुमन।

दाएं तरफ लोमड़ी का दिखना
माना जाता शुभ शकुन
कोई गा रहा रागमय
सुंदर प्रभाती भजन।

पूर्व दिशा में उगा सूरज
मंदार फूल जैसे रक्तिम वर्ण
अक्रूर का उत्कंठित मन
कब पकड़ूँ भगवान के चरण।

यमुना पार कर पहुंचा गोप
पश्चिम चढ़ा सूरज
वृंदावन की प्रकृति देखते
दौड़ने लगा रथ।

फल-फूलों से लदे पेड़
शोभा दे रहे बरहमास
बुला रहे जैसे, आओ
ले जाओ, जो है मेरे पास।

पक्षियों के कलरव में
सुनाई पड़ रहा ‘राधा-माधव’
अपनी पूँछें उठाकर
नाच रहे मयूर सब।

हिरण चीतल कर रहे विचरण
ऊपर नीचे करते कान
पेड़-पौधों से टकराकर जैसे
शीतल पवन कह रही ‘हरेकृष्ण’।

अक्रूर को दिखी कुछ दूर
साफ-सुथरी जगह
बालू के टीले पर दिखे
प्रभु के चरण कमल चिन्ह।

कूद पड़े अपने रथ से
होकर भाव-मग्न
चरण रज पर माथा नवाकर
जपने लगे, ‘कृष्ण, कृष्ण’।

पास में दिखाई दी लोगों की भीड़
कदम बढ़े उस ओर
इधर खेल रहे ग्वाल-बाल
चर रही थीं गायें उधर।

सभी दिख रहे एक समान
मयूर पंखों से शोभित बाल
कलाई में चांदी की चूड़ियां, बाजुओं में भुजबंद
पाँवों में छम-छम पायल ।

कानों में कुंडल आकर्षक
गले में मोतियों के हार
देह पर रंग-बिरंगे वसन
मोहन बंसी को चूमते अधर ।

धूल में लेटे-लेटे
बोले, हे भगवान!
असुरपुर का सोचकर
क्या कर रहे माया प्रदर्शन?

पहचानूंगा कैसे, हे जगत कर्त्ता !
इन चर्म नयन
अंतर्यामी जान रहे हो न?
अक्रूर तुम्हारा ही सर्जन।

भक्तवत्सल, कृपासिंधु
भक्त-भाव से बँधा
कर रहे हो माया
कंस के लिए ले जाऊंगा कंदमूल कंधा।

प्रभु दयासागर
जानकर भक्त अक्रूर का मन
सामने आकर खड़े हुए
दोनों भाई कृष्ण और शंकर्षण।

उन्हें देखकर अक्रूर
साष्टांग हुआ उनके चरण-पद्म
धूल में लौटते-लौटते पुकारा
हे प्रभु कान्हू बलराम।

नीचे से उठाकर लगाया गले
बलराम और दामोदर
बोले, रिश्ते में लगते हो काका
भतीजे हैं हम तुम्हारे।

वसुदेव आपका भाई
और देवकी आपकी भाभी
उनके अंश से पैदा हुए हम
बने गोपपुर के निवासी।

बेड़ी पहनाकर कारागार में डाले
कंस राजा ने हमारे माता-पिता विपन्न
देवकी के गर्भ से मैं, रोहिणी के गर्भ से
बलराम हुए उत्पन्न।

सातवें गर्भ से भाई बलराम
आठवें गर्भ से हुआ मैं उत्पन्न
काका! बताओ कारागार में
कैसे काट रहे मेरे माता-पिता जीवन?

कैसे हैं मामा कंस
और दादा उग्रसेन
भांजा को मामा भूल गए
या कर रहे स्मरण ?
काका ! कैसे पधारे आप
भतीजों की लेने खबर
पता चला, अगर मामा कंस को
काट देगा तुम्हारा सिर।

भाव-प्रवण अक्रूर बोले
हे प्रभु, कैसा रिश्ता-नाता
कौन मामी-मामा
कौन काका-बाबा, कौन माता-पिता।

सृष्टि कर्म भगवान के लिए
मेरा हृदय हुआ निर्मल
क्यों फिर से भरना चाहते हो
उसमें सांसारिक मल ?

मेरे आने का मुख्य उद्देश्य
सुनिए, दामोदर
जितने भी वीर आए गोप
सब गए परलोक सिधार।

नारद की बात मान कंस राजा
कर रहे धनु यात्रा का आयोजन
इसलिए भांजों को भेजा है
मेरे हाथों सादर निमंत्रण।

दूत बनकर आया हूं मैं
अपने साथ लिए रथ
नंद राजा, रानी और गोपवासी
आएंगें तुम्हारे साथ।

उसने पश्चिम दिशा में
डूब गया भास्कर
पक्षी विहंग लौटे
अपने-अपने घर।

गाय-गोरुओं के रंभाने की
ध्वनि से गुंजायमान वृंदावन
थाली की तरह गोलाकार
उदय हुआ पौष का जह्न।

बिखरी गायें हुई एकत्रित
सुनकर बंसी के स्वर
गले में टँगी घंटियों की घनघन
पूँछ हिलाते लौट रही घर।

आकाश में उड़ने लगी गोधूल
नवरंगों से भर गई शाम
अक्रूर के रथ से लौटे गोपपुर
कान्हू और बलराम।

स्वागत-सत्कार हुआ अक्रूर का
नन्द के राजभवन
रात्रि-भोजन के बाद पूछा
बैठाकर अतिथि सिंहासन।

अकाल समय आए कैसे
तुम मेरे गोत्री भाई ?
साफ-साफ बताओ,
अचानक क्या जरूरत पड़ गई ?

अक्रूर बोले, कहता हूं
सुनो, गोप राजा नंद
कितने आए दुख, कितने आए सुख
कितनी भली खबरें और कितनी मंद ।

धनु-यात्रा का आयोजन
कर रहा राजा कंस वीरवर
भेजा उसने मुझे
भाँजों को लाने अपने घर।

साथ में सौ भार गो-दूध
रानी,कान्हू, हलधर
बता देता हूं कल सुबह
मथुरा होना है हाजिर।

नहीं तो सभी का सिर कर देगा अलग
और गोपपुर का विध्वंस
बता देता हूं, अकाट्य आदेश
दिया है राजा कंस।

कान्हू बलराम बोले, पिताजी
मत रखो संकोच अपने मन
धनु-यात्रा का मिला है आमंत्रण
जाएंगें हम सभी जन।

तैयार हो जाओ गोपालो
लेकर दूध के ‘भार’
भोर-भोर निकलेंगे
गोपपुर से बाहर ।

मुर्गा बोलने से पहले
गोप गांव के गली-गली में हुआ हल्ला
अक्रूर ले जा रहे मथुरा
गोपपुर के गोपाल-ग्वाल।

साथ जा रहे भाई बलराम
राजा, रानी, ग्वाल-बाल
अगर राजा कंस ने किया कल-छल
फिर नहीं मिल पाएंगे हमें गोपाल।

असुर कंस के छल-कपट का
क्यों नहीं हो रहा उन्हें ज्ञान
राजा-रानी ले जा रहे अपने पुत्र
मथुरा में होगा उनका मरण।

हे गोप के गोपाल गोविंद
देर मत करो, जल्दी से चलो बाहर
अपने साथ गोप का अभिमान
कैसे ले जाएगा अक्रूर ?

रोकेंगे रास्ता, छोड़ेंगे घोड़े
तोड़ देंगे रथ के खंजा
अक्रूर के बाल नोंच-नोंचकर
कर देंगे हम गंजा ।

कहां से आ गया हरामी अक्रूर
गंदी नाली का कीड़ा
मर जाएंगें कान्हू बलराम
झेलेंगे राजा रानी घोर पीड़ा।

अक्रूर को खा जाए सांप बाघ
दुष्ट! नहीं लौटोगे सकुशल घर
तुम्हारी पत्नी हो जाए विधवा
भीख मांगेगी दर-दर।

इकट्ठे होकर मारेंगे पीटेंगे
कर देंगे लहूलुहान
खाली रथ जाएगा मथुरा
अपने रास्ते सुनसान।

सज-धजकर बैठे कान्हू बलराम
अक्रूर के रथ
स्वर्ग देवताओं ने बरसाए फूल
मथुरा जाने के पथ।

सुनाई देने लगी गगन में चहुं ओर
शुभ शंखों की प्रतिध्वनि
गंधर्वी और अप्सराओं ने की
हुलहूली की जोरदार ध्वनि ।

ऐसे समय गोपियों ने
घेरा रथ को वर्तुल
किसी के खुल गए वस्त्र
किसी के उड़ रहे बाल।

रोते-रोते किसी की सूजी आंखें
किसी की आंखों का सुख गया वारी
कुछ लड़खड़ाती बढ़ाती कदम
जैसे कोई पागल नारी।

रोते-रोते कोई हो गई अचेत
धड़ाम से गिरी धरती पर
कोई रथ डंडे से पीटते-पीटते सिर
बहाने लगी रक्त-धार।

कोई रथ का पहिया पकड़कर बोली
क्यों जा रहे हो मथुरा, गोपाल ?
गोपियों का भाव विनोद
क्या गए हो भूल ?

क्या अक्रूर ने किया ऐसा जादू
जिससे लगने लगी तुच्छ गोपियाँ
मथुरा जा रहे हो तुम
डुबाकर हमारी आशा की नैया।

हे कन्हैई ! कैसे रहेंगी हम जीवित
किसका मुंह देख कर
खाने को दे देते जहर
हम सभी जाती मर।

हाथ पैर तोड़ कर हमें
फेंक रहे हो किसी खंजा
क्या दोष किया हम गोपियों ने
जो दे रहे हो इतनी बड़ी सजा।

किसके सहारे रहेंगीं हम गोपियां
तुम तो हो गोपीनाथ
गोप की गोपियों के आंखों के तारे
हमें कर रहे हो अनाथ।

मोहन बंसी बजाकर
हमको बांधा प्रेम की डोर
वचन विमुख पलायनवादी
जा रहे हो मथुरापुर।

पड़ते ही पहली नजर
मथुराबालाएं दे देगी मन
तुम्हारा रूप सौन्दर्य देखकर
भरेगी आहें रात-दिन।

खोजेंगे यमुना के कदंब
खोजेगा वृंदावन
खोजेंगे गोप के गाय-गोरू
मत जाओ, हमारे प्राण-धन।

कान्हू ने कहा, सुनो गोपियों
मन चित्त रखो स्थिर
मेरे आने तक गोपपुर में
रहो तुम निडर।

धनु यात्रा का आयोजन
दीर्घावधि बाद कर रहे कंस मामा
अनेक राजाओं की उपस्थिति में
क्या भांजों की अनुपस्थिति देगी शोभा?

प्रेमपूर्वक मामा ने
दूत समेत भेजा रथ
धनु-यात्रा देखने आएंगे दोनों भाई
ऐसा किया अनुरोध।

लौट आऊंगा गोपपुर
चार दिन के बाद ही
मन उदास मत करो गोपियो
तुमसे अलग नहीं रह सकता कभी।

रंगावतार गोपियों और कृष्ण के
प्रेम का लेन-देन
गोपपुर में रहकर गोपी-गोपालों को
दी मैंने अपनी प्रेम-पहचान।

गोप गांव की गलियों से चला रथ
करते आवाज घर्र घर्र घर्र
छाती पीट-पीटकर रोने लगी गोपियाँ
एक दूसरे को पकड़-पकड़कर।

पीछे राजा रानी गोप के गोपाल
ढोते दूध के भार
सूर्योदय के समय पंक्तिबद्ध
की यमुना नदी पार।

बोले अक्रूर, हे प्रभु
यहाँ रुको एक पल
जाएंगें मथुरा शीघ्र
कर लूँ स्नान निर्मल जल।

रथ से उतरकर अक्रूर
ज्यों ही डुबकी लगाई यमुना नीर
देखा भीतर पहले से ही
मौजूद कान्हूँ हलधर।

राज मुकुट सिर पर
देह पर शोभित अष्ट रत्न
ताल पेड़ जितने गहरे जल में
पहने सुंदर पाट पीतांबर परिधान।

हल मूसल बलराम के हाथों
और हरि के पास शंख सुदर्शन चक्र
अक्रूर हुए चकित अति
गुप्त रूप से प्रभु आए यमुना नीर ?

ऊपर देखा रथ में विराजमान
दोनों बाल गोपाल
मंद-मंद मुस्कुराते कह रहे हो
काका, आओ चले इसी पल।

भाव प्रवणता से रोते-रोते
अक्रूर ने जताई अपनी भक्ति
मायाधर तुम्हारी माया
जानने की नहीं मेरे पास शक्ति।

तुम हो महाप्रभु जगत विधाता
मैं तो मात्र मानव मूरत
इंद्र, ब्रह्मा,शिव के लिए भी अगोचर
तुम्हारा न आदि, न अंत।

हे प्रभु! मेरे अन्य जन्मों में भी
देना अपने चरणों में स्थान
अपने बारे में भी मुझे नहीं ज्ञान
दीजिए मुझे बुद्धि ज्ञान।

दुर्लभ है यह मनुष्य जन्म
नहीं फँसू किसी पाप जाल
दो मुझे शक्ति अलौकिक
काट दूं मैं माया जंजाल।

अक्रूर की भक्ति-प्रीति देखकर
भगवान हुए प्रसन्न
बोले, भक्त! यह नहीं माया
दे रहा हूं अपनी प्रेम पहचान।
अच्छे से चलाओ रथ ,
देखो, सूरज ढल रहा पश्चिम दिशा
आम बगीचे में बिताएंगें हम रात ;
पर नहीं जाएंगें मथुरा प्रदेश।

"मामा को आप जाकर बताना,
दोनों भाँजें गए हैं पधार
कल सुबह हम कारेंगें मुलाकात,
करें हमारा आदर-सत्कार"

"साष्टांग दंडवत होकर
अक्रूर ने छोड़ा वह स्थान,
रात में रुके सारे गोपवासी
उस आम्र-उद्यान।


14.

नाचती आई मंगल ऊषा नर्तकी
पहन सुंदर परिधान
चिड़ियों की कल-कल जैसे
नूपुर ध्वनि छन-छन।

टाय टाय टाय टिहा गीत गाता
सुनाई देती आवाज आधे रास्ता
कुंभाटी मर्दल ढोल बजाता दादा
दहँ दहँ ध्वनि से मिटाता नीरवता।

गुलिहा की पूंछ सिंगल चिंगल-पंगल
तालमय होती नीचे ऊपर
भ्रमर करते हिन नाँग नाँग
पकड़कर जैसे गुप्त वाद्य यंत्र।

भाभी का नृत्य देखने के लिए
धीरे से सूर्य उठाता सिर ऊपर
शर्म के मारे भागी सरपट
सुबह की वेला मधुर ।

आम बगीचे में हुई सुबह
उठे गोप गोपियां सारी
तजकर शाखों की शैया
करने लगे मथुरा जाने की तैयारी ।

दांत माँज, नहा धोकर
सारे दैनिक कर्मों से होकर संपन्न
मथुरा के लिए लगाई कतार
आगे चल रहे बलराम किशन।

बीच मार्ग में कदली के पत्तों के स्तंभ
जगह-जगह लगे बाँस द्वार
आगे आम पत्तों के तोरण
रास्ते में आती प्रकृति सुंदर ।

द्वार-द्वार पर रंग-बिरंगी रंगोली
तरह-तरह के जलती दीप-ज्वाला
मथुरा की नारियां करती हुलहूली
तोरण पर सजाती फूलमाला।

चलते जा रहे थे कान्हू बलराम
जो देख लेता उन्हें एक बार
मोहित होकर चलता पीछे
लगकर उस सीधी कतार ।

चौराहे पर देखा एक आदमी
ढो रहा था अपनी पीठ पर भार
लड़खड़ा रहा था बार-बार
आगे की ओर झुकाकर कमर ।

क्या ले जा रहे हो, भाई ?
पूछने लगे बलराम
नीचे रख दो भार
कर लो कुछ विश्राम ।

क्या नहीं जानते तुम मुझे ?
मैं हूं धोबी, राजा का नौकर
धोता हूं मठा,जथा,पाट,वस्त्र
राजा करता जिससे शृंगार।

कान्हू बोला, सुन भाई रजक
राजा के भांजे हम
आए गोपपुर
धनु यात्रा के शुभ काम।

जो जो फबें हम पर
दे दो ऐसे पीतांबर
जिन्हें पहन जाएंगे
हम मामू घर।

गुस्से से बोला धोबी,
गोप के ग्वाल दूर हट
तुम्हारे बाप ने कभी पहना पीतांबर ?
क्यों कर रहे हो हठ?

पीतांबर समेत काट डालेगा राजा
अगर रुके एक पल भी यहां
आ रहा है यम घर नजदीक
बेहतर होगा,जाओ अपने मुँहा।

देख धोबी का दुर्व्यवहार
हलधर ने मारी चटकन
धरती पर गिरते ही
पल में उड़ गए उसके प्राण।

पोटली में भरे हुए थे उसके
सोना चांदी से जड़े रेशम वस्त्र
सभी ने निकाल कर अपने कंधे पर
लटकाए सारे अंग-वस्त्र।

तेजी से बढ़ने लगे गोपाल
कंस के राज द्वार
रास्ते में रुके कन्हैया
सुदामा माली के घर।

प्रतीक्षारत था सुदामा सपरिवार
हाथ जोड़ किया अभिवादन
परात में पानी डालकर
दोनों के किए पाद प्रक्षालन।

रेशम परिधान पहनाए उसने
जैसे चाहते थे दोनों भाई
गले में पहनाई फूल-माला
टगर, कनेर, जुई, जाई।

सिर पर सजाया फूलों का गजरा
केतकी पंखुड़ियों की शिखा
प्रसन्न मन में हंस रहे थे
कान्हू बलराम खाँ-खाँ ।

जा रहे हैं हम, भक्त सुदामा माली
तुम सखा सुदामा समान
तुम्हारी भक्ति अंतहीन
इसलिए दे रहा हूँ अपनी प्रेम पहचान।






15.

स्वर्ग सुंदरी कुब्जा नारी
तीन कुब्ज उसके पीठ
मुंह देखकर तो योगी भी
हो जाते आकर्षित।

खिल रही थी धाँगड़ी वयस
नवयौवना उसकी देह
सामने से दिखाई देती सुंदरी
जैसे उसके सम नहीं कोई।

मन आह्लादित नवरत्ना सोचती
मिल जाए कोई साथी कहीं
सोते, उठते, बैठते हर समय
उसके मन में रहती बात वही।

फटे कपड़ों की गठरी में भी
सोना चमकता दप दप
सात पेटियों में रखा पीतल
नहीं कोई नाप-माप।

कभी सुना था गोपपुर का कान्हा
रसिया बंसीधारी
सोलह सहस्र गोपियों का मन
चुराने वाला मुरारी।

तीन लोकों में रूपवान,गुणवान
नहीं कोई ऐसा सुंदर
गोपियों की तरह मिलूँ उसे
मगर जाना होगा गोपपुर।

सोलह सहस्र गोपियों के संग
मुझसे भी करेंगे प्रेम-लीला
मगर देखकर कूबड़ मेरे
नहीं करेंगे मुझसे मेल।

मयूर पंखधारी तिरछी चोटी वाला
रसाली का मन जाएगा भांप
मन चाहने पर क्या मिलता हमेशा
कूबड़ देखकर देंगे अभिशाप।

दैव ने क्यों दिया मुझे नारी
नारी जन्म निरुद्देश्य
इस युवा उम्र का क्या फायदा
जिंदा जीवन भी मरण तुल्य।

फिर जाकर देखने लगी दर्पण
ऊपर नीचे ठीकठाक
मगर पीठ पर तीन कूबड़
बना रहे मेरा जीवन नरक।

राजमहल में किया तिलक
घोलकर गेरू चंदन
सुनी हूँ, धनुयात्रा देखने आ रहे
मुरलीधारी मोहन।

दिनभर प्रतीक्षारत कुब्जा
लेकर पेटी भर गेरू, चंदन
जिसका जो कहना है कहें
मगर मैं ललाट पर करूंगी लेपन।

कोई मारेगा, दें मुझे मार
कान्हू के चरणों में जाए जान
अगले जन्म में रसिया किशन
देंगे मुझे अपनी प्रेम पहचान।

लंगड़ाते-लंगड़ाते, पांव घसीटते
कुब्जा जाने लगी राजसदन
अंतर्यामी किशन ने
पढ़ लिया उसका मन।

पीछे से पुकारा, हे सुंदरी
रूपवती हाटूआरी शृंगारी
क्या तुम्हें मालूम नहीं ?
आए हम रसियाकुंज बिहारी।

तुरंत कूजी ने पीछे मुड़कर देखा
सामने थे किशन
जिसके रूपरंग पर रात-दिन
न्योछावर कर रही थी अपना मन।

काँख से गिरी चंदन पेटी
मजबूती से पकड़े पाद
किशन ने किया आलिंगन
देकर आशीर्वाद ।

पीठ पर घुमाया हाथ
स्नेह से करते हुए बात
तीनों कुब्ज हो गए गायब
बन गई अप्सरा साक्षात्।

चिपककर किशन की छाती
बोली रूपवती, रसिया नागर
तुम्हारी बाट जोहते-जोहते
कई रातें की उजागर ।

मेरा मन जानकर आए हो, प्रभु
पधारो मेरे घर
मैं बनूंगी तुम्हारी दुल्हन
और तुम बनोगे मेरे वर।

कान्हू का मन देखकर
बोले लजाकर हलधर
ऐसे समय में नटखट कान्हा
क्यों कर रहे हो रसिया रार ?

यह सुन बोले रंगाधार
सुंदरी, जा रहा हूं धनु यात्रा
तुम्हें देख कर मन हुआ बेकाबू
इसलिए रोका तुम्हारा रास्ता।

साथ में है माता-पिता, ग्वाल-बाल
बड़े भैया हलधर
अवश्य आऊंगा रात को
मिलते ही कोई सुअवसर ।

तिलक चंदन, कपूर चूर्ण
लेपन कर दो मेरे अंग
जान लो, रूपवती युवती
आज से तुम मेरे संग।

तुम्हारे घर अकेले समय
होगा हमारा मिलन
अकेले जन्म क्यों इस जन्म में
दूंगा प्रेम पहचान ।

कूजी से लेकर विदा
कृष्ण पहुंचे धनु घर
पीछे कर कृष्ण को
आगे हुए हलधर ।

अपूर्व शोभायमान धनु घर में
नीलम, सोना, चांदी, हीरे
चौंधियाँ जाएगी आंखें
देख मोतियों के सुंदर हार।

बड़े-बड़े सात खंभों में
टंगे हुए थे धनु
बलराम बोले, किशन
उठाओ तरकश-धनु।

धनुष भाई के कहने पर लिया
कृष्ण ने धनु अपने दाएं कर
पतली प्रत्यंचा तान कर
कान तक धनु किया वक्र।

हुंकारकर और तानने पर
टूट गया धनुष प्रचंड
धरती पर गिरते ही
हो गया खंड-खंड।

सिंहासन तक पहुंची गर्जन
भयभीत हुआ कंस मामा
मत्ताल हाथी चिंघाड़ा राजद्वार
कुवलया उसका नाम।

चाणुर और मुष्टिक पहलवान
खड़े दाएं-बाएं दोनों ओर
आदमी तो क्या हाथियों को भी
पहुंचा दे स्वर्गद्वार ।

धनुष तोड़ कान्हू बलराम
भागे राज सिंहासन
हाथी को रास्ते से हटा
महावत से बोले किशन।

महावत ने अनसुनी
कर दी उनकी बात
हाथी के सिर पर घोंपा अंकुश
ताकि मारे अपने दोनों दांत।

चिंघाड़ते हाथी के पेट के नीचे
खिसक गए बालकिशन
पीछे जाकर पकड़ी पूँछ
जैसे कोई रस्सी रहा तान।

बलराम ने पकड़े दोनों दांत
करने लगे खींचतान
धड़धड़ाकर गिर गया हाथी
मुड़ गई उसकी गर्दन।

हाथी की सूंड को नीचे कर
हलधर ने खींचे बाहर गजदंत
गोप-मथुरा के सारे दर्शक
हो गए खुशवंत।

करने लगे उनकी जय-जयकार
फहराए गौरव पताका निर्विवाद
डूब जाए राजा कंस का वंश
हम चढ़ाएंगे भगवान को प्रसाद।

राज सिंहासन के पास
खड़े पहलवान चाणुर, मुष्टिक
बाहें घुमाते, जांघें पीटते
लग रहे थे खतरनाक ।

मूंछें मरोड़ते कर रहे उछल-कूद
आ जाओ, ग्वालो ! बलराम कुशन
चिंगड़ी मछली की तरह मसल दूंगा
मर जाओगे दोनों इसी स्थान।

दौड़कर किशन ने पकड़े चाणूर के बाल
और मुष्टिक के बलराम
मल्ल हो गए शक्तिहीन
पुकारने लगे अपने इष्ट का नाम।

दोनों भाइयों ने दोनों मल्लों पर
किया घूसों से प्रहार
नाक से बहने लगा खून
दर्द से थर्रा उठा शरीर।

ऊपर से नीचे कांप गया कंस
देख खतरे में अपना जीवन
दो मुझे तलवार अभी
मार दूंगा बलराम, किशन।

मामू मेरे ! कहकर भागा किशन
हाथ फैलाकर
कान्हू बलराम को मारने के लिए
नहीं है तुम्हारे तलवार में धार।

अकाल सकाल आए हम
मामू ! भांजों को लो अपनी कोल
धनु उत्सव देखने आए
मानकर तुम्हारे बोल ।

मामू!मामू! कहते झपट पड़े हरि
कंस राजा के शरीर पर
गला सूख गया उसका
भांजों से वह गया डर।

सिंहासन से लुढ़ककर
गिर गया कंस धरती
मामू, मामू,- कहते कंस के पास
पहुंच गए किशन कन्हैई।

वह बोले, तुम्हारी जीवन आत्मा
मांस-मज्जा,रक्त
शिरा,प्रशिरा,मस्तिष्क,पेट
दस द्वार और स्नायु तंत्र ।

कान्हू-बलराम, कान्हू-बलराम
रहते सभी के नस-नस
मगर हमारे कंस मामा
चाहते भांजों का नाश।

भांजा नहीं है धूल-कचरा,
वह तो है भगवान
भांजों के पांव धोकर पीने से
मिलता बैकुंठ स्थान।

भांजों की सेवा करने से
कष्ट अनिष्ट जाते कट
भांजे को देना महान दान
पाप जाते हट ।

शत्रु नहीं हो, गुरुजन मामू
तुम हो बाप समान
मारने नहीं आए तुम्हें
देने आए अपनी प्रेम पहचान।






16.

रानी के अंतपुर में सोने के पलंग पर
मुलायम बिस्तर था बिछा
सत्यभामा के संग द्वारिकाधीश
जहां खेल रहे थे पासा।

इत्र,कपूर,चंदन,अगरू का
फैल रहा था शयन-कक्ष में सुवास
पहने हुए थे रेशम वस्त्र
चामर झूला रहे थे दास।

चांदी के खंभों पर रेशमी चांदुआ
उकेरी हीरो की फूलवाणी
लटक रहे मोती माणिक के झालर
उसके नीचे मुक्तामणि।

खुशी-खांसी-हंसी के बीच
वे थे खेल में व्यस्त
जैसे ही सत्यभामा लगी जीतने
कृष्ण हुए अस्त-व्यस्त।

अचानक देवी को सुनाई पड़ा
किसी का विकल क्रंदन
हाथ से गिरा अचानक पासा
शुष्क लकड़ी की तरह अचेतन।

कौरवों की महासभा में
हे द्वारिकानाथ ! हे चक्रधर
दुशासन कर रहा मुझे विवस्त्र
जबरदस्ती घर से लाया खींचकर।

भीष्म,द्रोण और अभिजात्य वर्ग से
भरा हुआ है यह दरबार
उन सबके सामने मेरी बेज्जती!
दुशासन खींच रहा मेरे वस्त्र।

पांच पतियों की पत्नी होकर
झेल रही हूं यह असहायपन
सभी देख रहे मूर्तिवत
उतारते मेरा परिधान।

सुनकर रानी की आंखें
हो गई लाल-लाल रक्तिम
लगी कहने, इतनी नीच हरकत!
कर रहे गांधारी पुत्र खुलेआम ।

परस्त्री दुष्कर्म करने से
समाप्त हो जाती आयुष
क्या पशुओं ने धारण किया
मनुष्यों का वेश।

कृष्ण बोले, सत्यभामा
पागलों की तरह क्यों कर रही बकवास
जानकर कि मैं रहा हूं जीत
इसलिए खेल रही हो ऐसा दाँव-पेश।

पकड़कर पासें, बैठो चुपचाप
अभी खेल जाओगे हार
नहीं तो मैं होऊंगी इतनी नाराज
भाग जाओगे बिना मचाए शोर।

तुम्हारी इधर-उधर की
अनर्गल बातें अर्थहीन
दाल में पड़े चींटी मकोड़े
ऊपर से ज्यादा लूण।

प्रभु के ताने सुनकर
सत्यभामा का पारा उठा भभक
द्रौपदी की दुर्दशा जानकर भी
क्यों कर रहे हैं ऐसा मजाक ?

बोली, समझी अब प्रभु खुद पहले
निभा चुके हो दुशासन की भूमिका
परनारी गोप की गोपियों को
निर्वस्त्र करने की उड़ा चुके पताका।

ऊपरी मन से कहते हैं उसे
मेरी सखी हो तुम
इस वक्त सखी पर आई आपत्ति
कहां चले गए तुम ?

पांडव पति, पांडव रक्षक
उड़ा रहे यही बाना
विपद के समय मुंह छुपाकर
पकड़ लिया घर का कोना।

द्रौपदी न होकर अगर
होती सुभद्रा बहन
बचाने जाते सबसे पहले
नहीं कर पाते सहन ।

सत्यभामा का रोष देख
बोले दैतारी, अरे पटरानी !
क्यों कर रही इधर-उधर की बातें
बताओ, क्या हैं माजरा-कहानी ?

जागते सोने वालों को उठाएगा कौन
जानकर भी जो बनता अनजान
मायाधर होकर क्या नहीं जानते ?
तुम तो हो गोपी किशन।

विकल भाव से पुकार रही द्रौपदी
मानकर तुम्हें आराध्य
निर्वस्त्र कर रहा दुष्ट दुशासन
राज्यसभा के मध्य ।

क्या यह क्रंदन नहीं पहुंच रहा आपके कान
हे प्रभु! क्या हो गए बहरे आप ?
झलका, गँठिया, सिलका पहनने के बाद
सुनाई दे रहा मुझे साफ-साफ।

मंद-मंद मुस्कुराकर बोले प्रभु,
सुन, सत्यभामा, सुन
भारत का भार हल्का करने
जन्मे कृष्णा-कृष्ण ।

द्रौपदी की देह का उपभोग कर रहे
उसके पति, पांच पांडव भाई
बुला-बुलाकर गई थक
मगर बचाने नहीं आया कोई।

साड़ी का एक भाग खींच रहा दुशासन
दूसरा भाग रही खींच रही सखी
अपनी ताकत के बल पर
वह नहीं हारेगी कभी ।

एक-एककर अपने पति को
बुला रही बार-बार
बीच में पुकारती मुझे भी
यह नहीं आर्त-पुकार ।

जानता हूं, सुन रहा हूं, गिन रहा हूं
देवी, यह नहीं मेरे लिए पुकार
तुम्हें जरूरत नहीं मुझे भड़काने की
निभाऊंगा मैं अपनी भूमिका समय पर।

धीमा पानी काटता पत्थर
हड़बड़ी से होते दुर्घटनाग्रस्त
महिलाएं होती अक्सर जल्दबाज
बीच में ही हो जाती चिंतित।

तर्क-वितर्क कर रहे
सत्यभामा श्रीपति
कुरुसभा में देवी द्रौपदी की
हो गई आधी बेइज्जती ।

पतियों को पुकार-पुकार गई वह थक
सारे पति देख रहे जैसे पत्थरवत
आशा-विश्वास, जान-पहचान
कुछ काम नहीं आए वे सब।

आसरा देना तो दूर की बात
मुंह से निकला नहीं कोई अक्षर
कैसे जागरूक है भारत के लोग !
नहीं कर पाते अपनी मर्यादा की रक्षा।

जिस देश में नहीं होता
महिलाओं का सम्मान
उस देश में नहीं शांति-सद्भाव
वह देश है नर्क समान ।

जिस देश में राजा चरित्रहीन
उस देश में नहीं मिलता न्याय
जिस देश में नहीं महिलाओं का सम्मान
उस देश में बढ़ता है अन्याय।

महिला दुर्गा, महिला लक्ष्मी
सरस्वती महाकाली महिला
अबला मतलब दुर्बला नहीं
संसार को सकती है वे जला।

घसीटा मुझे बालों से पकड़
दुष्ट दुशासन अहंकारी
नहीं जानते हो मुझे
मैं हूँ सर्वभक्षिणी याज्ञसेनी माहेश्वरी।

स्वर्ग देवता पाताल नाग
साक्षी रहो दस दिग्पाल
इस कुरु सभा में लेती हूं प्रण
दुशासन, जिसने खींचे मेरे बाल।

जिन हाथों से खींचे मेरे बाल
अरे दुष्ट दुशासन !
उस हाथों के रक्त से धोऊँगी बाल
फिर बाँधूँगी बेणी-बंधन।

केवल दुशासन नहीं, इस कुरु सभा में
दोनों कुल के लोग दोषी
चंडी होकर पिऊँगी मैं रक्त
जो बने इस दृश्य के साक्षी।

मैं रणचंडी कराल कालिका
कटार खपराधारी
कोई नहीं बच सकता मुझसे
खाऊंगी मैं उन्हें चीरी।

वीर नहीं भारत भूमि में कोई
वीर केवल द्वारिकानाथ
आंख मूंदकर द्रौपदी ने
जोड़े अपने हाथ ।

देह,मन,चित्त,जीवन,आत्मा
सब सौंप दिए प्रभु के चरण
पुकारती आर्त भाव, हे द्वारिकानाथ
इस विपदा का करें तुरंत मोचन।

मछली की आंख बिंधते समय
राजा खड़े रहते थे मेरे पीहर
उस द्रौपदी की झलक देखने
तरस जाती थी उनकी नजर ।

गर्वभंजन, आर्तरंजन
ध्वज-वाहक हे हरि !
रखो मेरा अक्षुण्ण शील
हे दैतारी कृष्ण मुरारी !!

मेरे लिए जो रहे थे लड़-झगड़
कोई नहीं हुआ मेरा
तुम ही अकेले मेरे
आई है विपदा घोर ।

हे चक्रधारी, तुम्हारे हाथों में
चक्र सुदर्शन
मुझे है पूरी आशा
द्रौपदी कभी नहीं होगी विवसन।

खिलखिलाकर हँसे प्रभु
सत्यभामा का मुंह देखकर
इस समय समर्पण भाव से
सखी लगा रही आर्त-पुकार।

दुशासन क्या अपने बल से
द्रौपदी को कर पाएगा नग्न ?
उग्र-चंडी का रूप धरकर देवी ने
देखे अपने लाल-लाल नयन।

यज्ञ से जननी आदिशक्ति वह
नाम जिसका याज्ञसेनी
दुनिया मानती पांचाली
रंभा,उर्वशी, मेनी।

जा रहा हूं देवी सत्यभामा
रखने सती का सम्मान
गरुड पर सवार होकर
बाहर निकले श्री कृष्ण भगवान।

आधे स्वर्ग से नारायण ने
‘तथास्तु’ कहकर उठाया हाथ
जगतकर्ता मायाधर
देव द्वारिका नाथ।

हाथ लंबे होकर हो गए वस्त्र
और कृष्ण का शरीर यंत्र
गुलाबी, सफेद, आसमानी
काबरा,कसरा,काला,धूसर।

नारंगी,माटिया,हल्का गेरुआ
हल्दी रुपरंगिया
गहरा बैंगनी, लाल फगुआ
गुलाबी, साग रसिया।

मंजरी के फूलों और कंगनाकार
नाग की धारियों जैसा
गिलहरी धारी, हीरेनुमा
पद्म फूल वैसा।

धामणधाडी, चंदन बिंदु
दस फूलों की आकृति
पूरे कपड़ों पर मंदिरनुमा
गहरी-गहरी सुकृति।

दुशासन लगा खींचने
कृष्णा के रंग-बिरंगे वसन
एक छोर से खींचता
पर दूसरे छोर पर होता मिलन।

खींचते-खींचते थक गया बुरी तरह
लगा हाँफने जोर-जोर
पहाड़ जैसे कपड़े हुए जमा
दुखने लगे हाथ-पैर।

इस औरत ने किया शायद
तंत्र-मंत्र या सम्मोहन
इतना बड़ा वीर दुशासन
नहीं कर सका उसे नग्न।

सभा के भीतर से बोला कोई राजा
अरे, दुशासन भाई !
वेश्या है वह, पांच पतियों की पत्नी
एक पति की नहीं है माई।

पाँच-पाँच वस्त्र पहनाता एक पति
तो भी होंगे पच्चीस वसन
हम देखेंगे वेश्या की लाज
मत छोड़, कर उसे नग्न।

यह देखकर क्रोधी दुशासन
बोला- अरी वेश्या, छिनार !
काला जादू कर सोच रही हो
मैं जाऊँगा हार ।

तेरे पांच पतियों ने
कितने पहनाए कपड़े, लफंगी ?
सच में अब नंगा करूंगा,
पदाचारी नवरंगी।

पांचाली तुम्हारी नग्न देह
देखेगी सभा सारी
जाकर दुशासन खींचने लगा
रंग-बिरंगी साड़ी।

सती साध्वी देवी द्रोपदी
साक्षात् काली मां
यज्ञाग्नि से लिया जन्म
यागसेनी पड़ा नाम।

खोया आपा, कांपे अंग
हो गया अति अनाचार
सिर से नख तक कांपी काया
आंखों से निकली अग्नि बाहर।

कोप दृष्टि से देखा देवी ने
हस्तिनापुर के अंतपुर
रानी भानुमति के कपड़ों में
आग भभक उठी दूर-दूर।

कपड़ा फेंककर पूरी नंगी
विकल हुई जान
‘हे माता, हे पिता!’ कहती-कहती
भागी सभा स्थान।

खिलखिलाकर हँसे सभी
मौजूद सभाजन
कोई कह उठा, अहंकारी
निर्लज्ज दुर्योधन।

जो खोदता दूसरों के लिए कुआँ
खुदती उसके लिए खाई
दूसरों का करोगे शीलभंग
तुम्हारी शील रहेंगी कहीँ ?

अनीति, अन्याय कर्म करते
और सोचते पर नुकसान
भगवान करता उसका नुकसान
जीवन बनता नरक स्थान तुम।

तुम ओ पापी
धन-रुतबे पर जताता अहंकार
उन्हें ढक नहीं पाता पाप
सत्य धर्म की होती जय इस संसार।

तुम्हारे जैसे महापापियों को मारने के लिए
अवतरित हुए भगवान
शांति की स्थापना कर भक्तों को देंगे
अपनी प्रेम पहचान।


17.

अंग राजा महादानी कर्ण
त्रिपुर गाता जिसका यश
जो मांगता देता, मन भर
दान देने में हरदम खुश।

भोजन, गोधन, सोना, वस्त्र
जिसने जितना चाहा
कोई नहीं लौटा उदास मन
मुंह से नहीं निकली कभी आह ।

प्रभात से उठते ही देता दान
फिर करता अपना भोजन
सभी के अधरों पर एक ही गान
धन्य, धन्य महादानी कर्ण ।

राजा जैसे ही रानी
नाम उसका पद्मावती
कभी न काटी राजा की बात
वह थी पतिव्रता स्त्री ।

तेज-तर्रार अलौकिक सुंदरी
रंग जैसे उत्तप्त सोना
नाम की भले, अर्धांगिनी पद्मा
मगर गुणों में राजा से दुगना ।

पता नहीं, किस लग्न में रखा
उसके माता-पिता ने नाम पद्मा
सच में उसके शरीर से
पद्म फूलों की फूटती वासना ।

पता नहीं, कितने देवी-देवताओं की पूजा से
पाया पुत्र-रत्न
कदली के तने की तरह इकलौता
नाम बिशिकेसन।

जैसा वंश, वैसा ही अंश
जैसा वृक्ष वैसा फल
राजा रानी के सारे गुण
आगे उसमें अविकल।

देखने में सुंदर मनोहर
जैसे खिला कोई फूल
देव ने गढ़ा हो जैसे
लेकर अखिल उपादान ठूल।

थर्राया पाताल में वासुकी
और स्वर्ग में इंद्र राजा
दानी कर्ण की तीनो लोकों में
उड़ने लगी कीर्ति ध्वजा।

खबर पाकर प्रभु जगतकर्त्ता
श्री कृष्ण भगवान
प्रशंसा के बांधे पुल
धन्य हो कर्ण, महान तुम्हारा दान।

देवता,असुर, माया कर तुम्हें
करा देंगे भूल
धर्म में भी रहता छल-कपट
नहीं पाओगे जिसका मूल।

धर्म-ध्वजा नहीं झुकेगी कभी
रखना उसे सदैव उच्चतम
धर्म स्थापना के लिए मैंने
अवतार लिया इस भारत भूम।

मन परखने के लिए भगवान ने
धरा ब्राह्मण भिखारी रूप
दानी कर्ण के सिंहद्वार
प्रकट हुए माया कूप।

शरीर पर बारह धारियां और जनेऊ
साथ में सियाली पत्तों का छत्र
मूंद रही आंखों की पलकें
हाथ में ताम्र कमंडल और कुश पत्र।

बांध ली गठरी पोटली
एक गज लंबे वसन
पक्के ब्राह्मण की तरह
कर रहा वेद मंत्रों का उच्चारण।

पढ़े गुसांई ने चारों वेद
और ऋषि वाणी
सिहरित हो उठे अंतपुर में
राजा और रानी।

रानी बोली, क्या हुआ महाराज?
कांप रहा सिंहासन
सिंहद्वार पर जाकर देखो
क्या किसी विपदा का हुआ आगमन ?

तुरंत राजा पहुंचा सिंहद्वार
क्या कोई हुई अपघटन ?
अनजान गुसाईं आकर
कर रहा वेद मंत्रों का उच्चारण।

ऊंचे कुल के ब्राह्मण की
लग रही शक्ल-सूरत
शंख,चक्र,गदा,पद्म
उसके शरीर पर अंकित।

उसे देखकर साष्टांग दंडवत
हुए कर्ण
बोले,ऐसे समय में
प्रभु! कैसे हुआ आगमन।

प्रभु बोले, दानी कर्ण
जगत में फहरा रहा कीर्ति-ध्वजा
दान मांगने आया हूं मैं
क्या दे पाओगे राजा?

बोले कर्ण, दान देने का
आज खत्म हुआ समय
कल सुबह आओ गुसाईं
दूंगा दान खुले हृदय।

बोले नारायण, हे राजा
नरसिंह मेरे गुरु
एक द्वार से दूसरे द्वार जाने को
किया है मना महाप्रभु।

कर्ण बोले, आज कराता हूं भोजन
अतिथि रूप में कर आदर
कल सुबह ले जाना दान
आज इतनी क्यों हरबर ?

करबद्ध करता क्षमा-याचना
मन से विनती कर विकल
कृपया आज रहे हो मेरे घर
दान ले जाओ कल ।

प्रभु बोले, हे राजा कर्ण
क्या दोगे मुझे भोजन ?
कर्ण ने कहा, यह तो छोटी-सी बात
करो भोजन, जो चाहो अपने मन।

शंख में जल भरकर खाओ सौगंध
खिलाओगे, जो मैं चाहूँ अपने मन
तुम्हारा दातापन, सत्य या असत्य
तभी तो होगा उसका परीक्षण।

शंख में तीन बार जल भरकर
राजा ने खाई कसम
‘सुनो, हे राजा’ बोले प्रभु
होकर पूरी तरह नरम ।

कई दिनों से मांस खाने का
कर रहा है मेरा मन
हर्षित मन से पूरा करोगे प्रण
तो प्रसन्नचित्त बैठूंगा करने भोजन।

कर्ण बोले- भेड़, बकरी
वाराह, सांभर, नीलगाय
कहो गुसाईं, कौनसा मांस
लगता तुम्हें प्रिय।

प्रभु बोले, तड़प रहा मेरा मन
खाने को मानव-माँस
छोटे किशोर बच्चे का
जिसके न उगी हो दाढ़ी-मूँछ।

और कोई नहीं, तुम्हारे बिसिकेसन कप
मारकर खिलाओ, राजन
तेरे बेटे के सिवा किसी और के
मांस खाने का नहीं मन।

कर्ण के शरीर में उठी सिहरन
बोले, सुनो गोसाईं
वह मेरा इकलौता पुत्र
दो चार नहीं।

प्रभु बोले, हिचक रहे हो
रहने दो अपना दान
तुम्हारे द्वार से खाली हाथ
चला जाऊंगा अपने स्थान।

कर्ण बोले, शंख में जल भरकर
खाई है मैंने कसम
असत्य होने पर मिलेगा नरक
हो रहा मुझे भ्रम ।

पुत्र नहीं, वह केवल मेरा
कैसे करूं उसका त्राहिमाम
दस महीने के गर्भ में रखकर
दिया उसकी मां ने जन्म।

जल्दी से लौटा वापस
पद्मावती के पास
सिर पीटते बोला, रानी
हो गया सर्वनाश।

कहां से आया अनजान गुसाईं
असमय मांगने दान
मैंने कहा, रुक जाओ महाराज
दान करूंगा कल प्रदान।

गुसाईं बोले, मुझे दो वचन
तुम कराओगे भोजन
शंख में जल भर खाई सौगंध
भोजन से संतुष्ट होगा मन।

गुसाईं बोले, अपने पुत्र को मारकर
खिलाओ उसका माँस
क्या करेंगे बताओ, पद्मा
मैंने खो दी अपनी साँस ।

चतुर पद्मा के मन में आया विचार
यह बात बहुत गहन
क्या एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के
मांस को खाने का कर सकता मन ?

असुर भी नहीं मांगते माँस की भीख
बाहुबल से मारकर खाते माँस
अवश्य, कोई देवता ले रहा परीक्षा
धारण कर मायावी भेष।


विद्यालय से होने पर छुट्टी
दौड़कर आया बिशिकेसन
बाएं हाथ में किताबों का बस्ता
दाएं हाथ में पेंसिल-पेन।

सिंहद्वार पर गुसाईं को
देखकर किए चरण-स्पर्श
आशीर्वाद दिया उसने
‘लंबी हो तुम्हारी आयुष’ ।

अंदर जाकर देखा,
माता-पिता के चेहरे के भाव
खोद-खोदकर पूछा,
आप दोनों क्यों है नीरव?

रानी बोली, पुत्र पिता का उत्पाद
माँ का क्या अधिकार ?
दस महीने,भले ही, रखती गर्भ
मगर बीजारोपण करता पिता।

सच पालन से आते-जाते हैं
चंद्र,सूरज,छह ऋतु, बारह मास
सच छोड़ने से जन्मों-जन्मों तक
करना पड़ेगा नर्क में वास।

खाई हो सौगंध गुसाईं के आगे
अब क्यों डगमगा रहे पाँव
गुसाईं अगर करेगा भोजन
पुत्र को मार दो, बिना देखे ताव।

अगर पेड़ सुरक्षित है तो मिलेगा फल
हम दोनों हैं तो मिलेगा पुत्र रत्न
सत्य मार्ग से अगर भटके हम
तो भोंगेंगे यम कषण।

पारस पत्थर छूने से बनेंगे सोना
हम महान भाग्यवान
गुसाईं खाएगा हमारे पुत्र का मांस
उसे मिलेगा बैकुंठ स्थान।

जन्म हुआ है तो अपरिहार्य मरण
आज नहीं तो कल
ब्रह्मलोक मिलेगा मुझे
कोटि पाप जाएंगे धूल।

सब सुनकर प्रसन्न मन
बोले बिशिकेसन
दि गोसाईं खाना चाहता है मेरा तन
करने दो उसे भोजन।

हे माँ, हे पिता,
आ गया वह शुभ क्षण
परोस दो मुझे मारकर
गुसाईं खाएगा उत्फुल मन।

सुनकर राजा रानी पुत्र संग
गए गुसाईं के पास
सौंप रहे यह पुत्र
कर दो उसका नाश।

गुसाईं बोले, क्या कह रहे हो
तुम दोनों जन?
हरड मांगने से दिखा रहे हो पेड़
समझ गया तुम्हारा दातापन।

इतना अगर मन है खराब
तो क्यों देते हो दान
‘रहने दो, रहने दो’ खाली हाथ
चला जाऊंगा अपने स्थान।

राजा खुद मारेगा अपने बेटे को
और मांस पकाएगी रानी
तब जाकर तुम्हारे घर
ग्रहण करूंगा भोजन पानी।

गुसाईं के कटु वचन सुन
कर्ण ने पकड़े बेटे के बाल
इष्ट देवता का सुमिरन करो, बेटा
पूरा हो गया तुम्हारा काल।

बिशिकेसन को चक्र की
आड़ में छुपा लिए भगवान
माया के पुतले के बाल खींच कर
कर्ण ले गया वध-स्थान।

म्यान से निकालकर तलवार
किया जोर से प्रहार
धड़ से अलग हो गया सिर
बहने लगी रक्त-धार ।

‘बेटा,बेटा’-कहकर
रानी करने लगी क्रंदन
दस महीने गर्भ में रखकर
सहे असंख्य कषण।

गोद में लेकर दूध पिलाकर
बड़े दुखों से पाला पोसा, बेटा
माता-पिता होने के बाद भी
डूबा दी तेरी जीवन नौका।

राजा बोले, मत रो रानी
गुसाईं चला जाएगा बेमन
व्रत उपवास जाएंगे व्यर्थ
अनावश्यक दोषी होंगे हम।

छाती पर रखकर पत्थर
पका दो जैसे-तैसे भोजन
गुसाईं के जाने के बाद
आत्म-दाह कर लेंगे दोनों जन।

राजा की बात सुन
उठाई पंखी पद्मावती
बोटी-बोटी काट माँस
बिछा दी पराती।

सिर को अति गुप्त रूप से
कुठुली में दिया भर
गुसाईं के जाने के बाद
मुंह देखकर रोऊँगी जी भर।

आलू,सारू,भिंडी,बैंगन
झुलता पातालघंटा
करेला, कुंदरू, मूली,लौकी
बाघनखी फटाफटा।

कदली,मुनगा,करड़ी माखन
जहनी ताई बरिचना
भांजी,लेंहेटिया,नलता पालक
खड़ा शाग खरड़ना।

छह सब्जियाँ, नौ व्यंजन
खास मिठाई खुशबूदार
पातालघंटा,मिर्ची,हेंडुआ
सभी बड़े जायकेदार।

पतले चावलों का संपुरभात
दिखता धवल-श्वेत
मोटी-गाढी भजा मूंग-दाल
ऊपर मलाई की परत।

रसोई का काम पूरा होने पर
तेल शीशी देते राजा ने कहे वचन
गुसाईं, तैयार हो गया भोजन
नहा-धोकर ग्रहण करो आसन।

क्रोधित गुसाईं खड़े होकर
बोले, हे राजा सुन
छिपा दिया है सिर
यह तेरी रानी का अवगुण।

खंडित मास कौन खाएगा
नरसिंह होंगे क्रोधित
इतनी चालबाज तुम्हारी पत्नी
हम हैं विस्मित।

निराश होकर लौटे राजा
बोले, हे रानी
चोर बिल्ली की तरह क्या करती हो?
क्या हम हैं इतने हीनमानी?

सिर को छुपा रखी हो तुम
ऐसा रहा गुसाईं है मान
क्या सोच रही हो फिर से
हमारे बेटे के लौटेंगे प्राण?

राजा की बात सुनकर
धड़क उठा पद्मावती का हृदय
सोचने लगी,सिंहद्वार पर गुसाईं
फिर कैसे पता चला उसे रहस्य !

सूर्य-चंद्र को नहीं होगा पता
छुपाया मैंने इतना गुप्त
भगवान आकर ले रहे परीक्षा
हम केवल मानवमूरत।

सिर के टुकड़े-टुकड़े कर
मसाला देकर बनाई रसोई
सोने का आसन बिछाकर बु
लाने गई गुसाईं।

राजा रानी के साथ
राजमहल पधारे भगवान
धन्य, धन्य! दानी कर्ण
प्रशंसा करते मन ही मन।

मारकर अपना पुत्र, दे रहे हो भोजन
त्याग तुम्हारा महान
काश! साथ होती लक्ष्मी
देखती मेरे भक्त का दान।

भीतर सोने के आसन पर
बैठे चक्रधर
रानी से बोले, परोसो भोजन
चार पत्तर ।

बिछाई चार पत्तर
प्रभु का आदेश मानकर रानी
भूखे की तरह बैठे
एक पत्तर पर चक्रपाणि।

दूसरे पत्र पर तुम बैठो राजा
कूद रहे चूहे मेरे उदर
सुबह से कुछ खाया नहीं
नहीं कर सकता, और इंतजार।

करबद्ध बोले राजा,
मुझे करो माफ
अपने बेटे का मांस खाऊँगा
इससे बड़ा क्या होगा पाप!

प्रभु बोले, समझ गया कारण
तुम्हारे मन में मेरे प्रति रोष
इसलिए तुम्हारे पुत्र के मांस में
खिला रहे हो मुझे विष।

यह सुनकर राजा दुखी मन
बैठ गए भोजन के आसन
तीसरे आसन पर बैठेगी रानी
हंसते प्रभु ने कहे वचन।

रानी बोली, ऐसी बात
कह रहे गुसाईं किस भाव
जन्म दात्री होकर खाऊंगी माँस
यह कैसे संभव ?

कहेंगे मुझे सर्वजन
पुत्र भक्षिणी,राक्षसिन,खल्वाट
जादूगरनी, चुड़ैल, डायन
निंदा-अपमान-भर्त्सना आजीवन करूंगी सहन?

प्रभु बोले, तुम खाओगी तो
मैं भी खाऊंगा प्रसन्न मन
नहीं तो, रहने दो तुम्हारा भोजन
जाऊंगा मैं अपने वन,

छाती पर पत्थर रख
रानी बैठी भोजन के आसन
बोली, गुसाईं ! चौथे पत्तल पर
किसे दोगे निमंत्रण?

प्रभु बोले, बुला लाओ
तुम्हारा बिशिकेसन
कर्ण बोले, गुसाईं महाराज!
क्या हो गई तुम्हारी स्मृति-हरण?

तुम्हारे सामने तो मारकर
उसके मांस के बनाए व्यंजन
यम डोर से बांधकर
जैसे कर रहे हो हमें परेशान।

प्रभु बोले, राजा रानी
सिंहद्वार जाकर लगाओ पुकार
जहां भी होगा, अवश्य दौड़कर
आएगा तुम्हारा पुत्तर।

सिंहद्वार पर राजा रानी देने लगे पुकार
बेटा बिशिकेसन
मेरे इकलौते बेटे, अंधे की लाठी
आजा, मेरे पुत्र धन।

अनेक जप-तप के बाद पाई थी
तुझे हे बिशिकेसन
पेट की खोली, गर्भ की झोली
क्यों छोड़कर चले गए मेरे धन?

मेरे बेटे, तुम्हारे बिना अंधकार
तुम हो मेरे नयन
मैं निर्लज्ज कैसे जी रही
तुम्हारे बिन।

देव हरि ने खींचा अपने पास
धीरे-धीरे सुदर्शन
किताबों का बस्ता लेकर
भागता आया बिशिकेसन।

माता-पिता के चरणों में गिरकर
उसने किया जुहार
बोला, आप लोगों ने कर लिया भोजन
बिना किए मेरा इंतजार।

राजा रानी दोनों ने लिया
बार-बार बिशिकेसन को अपनी कोल
मायाधर की माया नहीं जानकर
हमने की बड़ी भूल।

मां-बाप-बेटा तीनों आकुल भाव से
दौड़े घर के भीतर
देखा कहीं नहीं प्रभु
केवल पड़े हुए थे भोजन के पत्तर।

हे भगवान, हे भगवान, हे भगवान!
कहते-कहते
भक्ति भाव से माता-पिता-पुत्र तीनों
भूमि पर हुए साष्टांग दंडवत।
दीवारों पर दिखाई दिए
शंख, चक्र, गदा, पद्म, हाथ
धन्य-धन्य दानी कर्ण
कह रहे हो साक्षात।

दान देकर कहलाए दानी
मगर मत देना पुत्र दान
दान मांगने के बहाने आया था
तुम्हें देने अपनी प्रेम पहचान।

18.

सुरक्षा प्रहरी से सुने एक दिन
मधुसूदन मुरारी
द्वारिकापुर के शंकराजित
तप कर रहे थे भारी।

उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए
छाया देवी के वर
खुशी से उपहार दी सुमंतक मणि
जिसका तेज प्रखर।

सुमंतक मणि की चमक
सूर्यदेवता के तेज से भी महाप्रखर
कृष्ण के मन में उठी जिज्ञासा
देखने को मणि एक बार।

स्वयं द्वारिका नाथ ने
पहना कौस्तुभ मणिहार
सोचने लगे, क्या सुमंतक मणि
इससे भी होती सुंदर।

राजसभा में शंकराजित को
बुलाकर पूछने लगे हरि
क्या तुम्हें मिली ऐसी मणि
छुपा कर रखे अपने भरि?

दिखाओ मुझे, कैसा दिखता
उस मणि का तेज वर्ण
पहनने से ज्यादा देखने का
बहुत हो रहा मन।

यह सुनकर शंकराजीत के
मन में उठा पाप
देखने के बहाने मणि को
कहीँ कृष्ण नहीं लें हड़प।

चुपचाप लौटा अपने घर
पश्चिम में डूबते भास्कर
कांप रहा जैसे अचानक
बकरी के सामने आ गया शेर।

कहाँ रखूँ, कहाँ छिपाऊँ
नजर आने लगी सामने मौत
जहां भी छुपाने से,खोज लेंगे किशन
ले जाएंगे किसी भी कीमत।

बुलाकर अपने पुत्र प्रसन्नजीत को
फुसफुसाने लगा उसके कान
कृष्ण को लगी मणि की भनक
छुपा ले उसे किसी गुप्त स्थान।

वह वस्तु क्या रख पाएगी प्रजा
जिस पर आ गई राजा की नजर
रात-ब-रात देखे बिना जा भाग
मणि को लेकर कहीं और।

अंधेरी रात में प्रसन्नजीत
भागा करते घुड़सवारी
कमर के चारों और सात परतों में
मणि को बाँधा गठरी।

अंधेरे में सरपट बढ़ाया घोड़ा
पवन गति से प्रसन्नजीत
पहुंचा महाघोर जंगल
अपने अस्थिर चित्त।

जाते-जाते जंगल भीतर
नजर आया एक झरण
पानी को पाकर सुराग
घोड़े के पिलाने का हुआ मन।

स्वयं ने भी शांति से पिया
पानी भर पेट वहां
महाखूंखार नवगुंजर
छुपा हुआ था जहां।

झपटा प्रसन्नजीत पर अचानक
और बनाया उसे अपना आहार
भयभीत घोड़ा लौटा घर
बिना किसी घुड़सवार।



रोते-रोते बलराम के आगे
शंकराजीत ने की शिकायत
मणि के प्रलोभन में कृष्ण ने
मारा मेरा पुत्र अविहित।

कल राज सभा में बुलाकर
मणि रहा था मांग
रात में मेरा बेटा घोड़े पर चढ़
मणि लेकर गया था भाग।

आधे रास्ते में कृष्ण ने उसे
मारकर मणि ली अपने हाथ
घोड़ा उसका लौटा आया, प्रभु
खून सने लिए दाग।

शंकराजीत की सुनकर कथा
कामपाल हुए क्रोधित
भींचकर दाँत
आंखें हुई रक्ताक्त।

राज सभा की ओर तेजी से
हलधर ने बढ़ाए कदम
कृष्ण ने देखा रौद्र रूप में
क्रोधित बलराम।

साष्टांग दंडवत होकर
करने लगे प्रार्थना
मेरी किस गलती पर
मांगू शमा याचना।

जाने-अनजाने में तुम्हारे भाई से
अगर हुआ हो कोई पाप
दयावतार, ज्येष्ठ भ्राता
कर दो मुझे माफ।

गरज कर बोला शंकर्षण,
तुम हो द्वारिका नाथ
प्रजा धन पर राजा की कुदृष्टि से
क्यों नहीं काफी तुम्हारे हाथ।

शंकराजीत से मांगी थी तुमने
सुमंतक मणियान
प्रजा धन पर राजा की नजर
उससे ज्यादा क्या हीनमान !

कृष्ण बोले, सुनो शंकराजीत
माँगी मणि मैंने, यह सत्य बात
मगर तुम्हारे बेटे को मारकर
किसने चुराई मणि मुझे नहीं ज्ञात।

कृष्ण के उत्तर ने बलराम की
क्रोधाग्नि में जैसे डाला घी
गरजकर बोले इतना नीच !
छि:! छि:! कृष्ण! छि:!

मणि के लिए मर रहे थे तुम
फिर चुराएगा दूसरा कौन लाल?
तुम्हारे बातों में झलक रहा
छल-कपट, गोलमाल।

तुम नहीं मेरे भाई- सुन ले कान खोलकर
मेरी यह बात
शंकराजीत की मणि
अगर रही अज्ञात।

खोज कर ला वह मणि
सात दिन का देता हूं समय
फिर खुलेगा प्रसन्नजीत की
मौत का रहस्य।

अन्यथा नंगल से पूरा
खोद डालूंगा द्वारिकापुर
और फेंक दूंगा किसी सागर
देखना तुम, मणि चोर।

कृष्ण बोले, तुम्हारे चरणों की सौगंध
लेता हूं आज प्रण
नहीं लौटूंगा द्वारिका
अगर नहीं मुझे वह मणि।

स्वर्ग, पाताल, सुतल,वितल
अतितल, रसातल
जहां भी होगी मणि, लाऊंगा खोज
पता चलेगा किसका छल।

अग्नि भी नहीं छुपा सकती सत्य
होता प्रकट यथा
सत्य ही शिव, सत्य ही सुंदर
सत्य ही कवि की कथा।

सात दिनों में अगर नहीं लौटा
समझना कृष्ण गया है मर
दसवें दिन सारा परिवार
करेगा मेरा अंत्येष्टि संस्कार।

दौड़े मणि खोजने बाहर
सरपट एक मुँहा कृष्ण
बिना पीछे मुड़े
अपने बंद नयन।

भाई के शब्दों ने पहुंचाई ठेस
हृदय हुआ विदीर्ण
उन्होंने कहा, भले ही, ठीक
मगर सुनकर सुन्न हुए मेरे कर्ण।

अंधेरे में लगा मेरा पत्थर
अपने सही स्थान
ताल-पेड़ के नीचे गुजरते समय
जैसे ताड़ गिरा किसी की गर्दन।

जो भी होगा, बता देगा मुझे
आंखों देखी कोई भी कथा
क्या कहा जाए, भाग्य में
लिखा था यह अयथा।

द्वारिकापुर के असंख्य लोग
और मेरे सात पीढ़ियों के उर
घर करेगा यह संदेह
कृष्ण हैं मणि चोर।

करते थे बड़े भाई बलराम
मुझे प्राणों से ज्यादा प्यार
चोर, चोर, महाचोर
कहकर रहे थे मुझे पुकार।

मानव जीवन में आता समय
जब अनुभव करता असहाय
निराश्रित के भाग्य से
प्रकृति बनती सहाय।

भाई के कटु-कर्कश शब्दों को
याद करते जा रहे भगवान
अनथक, निराहार
विकल थे उनके प्राण।

अस्त हो रहे थे उस समय
धर्म देवता भास्कर
चलते जा रहे थे, याद करते
अपने भाई का धिक्कार।

चोर, तुम हो मणिचोर
अनवरत उनके कानों में गूँजा
उन शब्दों के याद आने से
फट रहा था उनका कलेजा।

सूर्यास्त होते ही गहराया अंधार
घने जंगल झाड़ सु
नाई दे रहा चहुंओर
टाएं टाएं टिहा का शोर।

ऊपर देखा गगन
कोटि-कोटि तारापुंज
कृष्ण पक्ष की कालिमा
फैली चारों दिग।

सताने लगा जंगली जानवरों का डर
घने झार जंगल लता
फांक देखते-देखते जा रहे हरि
रास्ते का नहीं अता-पता।


जाते-जाते डंगर खोल में
पहुंचे द्वारिकानाथ
चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़
जैसे ऊपर उठाए हाथ।

पहाड़ी चट्टानों से झरझर
बह रहा था झरना
आगे जाने का उपाय नहीं
और नहीं कोई योजना।

पहाड़ियों के संधि-स्थल में
दिखी बड़ी गुफा
कृष्ण ने सोचा, बिताऊँ
रात इस स्थान।

गुफा के भीतर आए प्रभु
बिताने वह रात
प्रारब्ध में लिखा ऐसा दुर्भाग्य
और दुर्दशा की बात।

दिखाई दी, उस गुफा में बनी
हुई एक लंबी सुरंग
कृष्ण के मन में उठा उद्वेग
घुसाए उसमें अपने अंग।


पत्थरों की दीवार पकड़
बढ़ रहे सुरंग, सहते चुभन
रास्ता लग रहा था अंतहीन
क्या यह मायावी भुवन !

बीते अनगिनत
रात दिन
आशा थी जरूर
मिलेगी सफलता एक दिन।

सुरंग बीतते समय
हो रही थी भोर
कलरव करने लगे
कौवा, कोयल, कुंभाटिया,कबूतर।

उजाले में कृष्ण ने देखा
फूलों का विशाल उपवन
उपवन से बाहर निकलने का
करने लगे जतन।

फूलों की अपूर्व शोभा देख
हर्षित हुआ उनका मन
तरह-तरह के खिले फूल
मग मग महकन।

दक्षिण दिशा से मँझरी पवन का
झोंका बह रहा हूर हूर
फूलों पर चोंच गाकर
चिड़िया पीने लगी रस जी भर।

बीचो-बीच कदंब का पेड़
फैली हुई जिसकी शाखाएं
फर फर उड़ते लाल जर जर
कोमल किसलय ।

चारों दिशाओं में चार तालाब
दूर से दिखते धवल
दर्पण जैसा साफ पानी
खिल रहे थे जिसमें कमल।

चारों तरफ की बनी पावड़ी
तुलसी चौराहे से भरे चारों कोण
लग रहा था उपवन मानो
स्वर्ग का नंदनवन।

उड़ते रंग-बिरंगे
तितली, मधुमक्खी, भ्रमर
फूलों पर बैठकर चूसते रस
मानो वे उनके प्रेमी अमर।

नहीं भरा था उनका मन
देखते जा रहे इधर-उधर
कहां से आया, क्यों आया
नहीं कोई उसकी खोज-खबर।

नजदीक से सुनाई देने लगी
कुछ धाँगड़ियों की स्वर-लहरी
धड़क उठी छाती, देखकर
स्नान कर लौटती राजकुमारी।

कदंब पेड़ पर चढ़कर
ओढ़ लिए डालों के पत्ते-पत्ती
फाँक से दिखाई पड़ी
कोई चंद्रमुखी नवयुवती।

उनकी आपसी बातें सुनने लगे
छिपकर चक्रधारी
केशनी, मालती, नीला, कलावती
खिलते फूलों जैसी कुँवारी।

धीरा, धएसान,धनमती,पान
हेमा, मायावती, शोभा
एक से बढ़कर एक सुंदरियाँ
नवयुवा, नवयुवा ।

बीच-बीच में स्वर्ग की अप्सरा जैसी
राजकुमारी जांबवती
वह राजकुमार होगा सौभाग्यशाली
मिलेगी जिसे यह उजलमती।

चांद जैसा सुंदर चेहरा
धूप में और द्युतिमना
जो भी हो, मिले न मिले
मन में अवश्य होगी कामना।

भौंहें मटकाते कहती गोरी
अधरों पर मंद-मंद मुस्कुराहट
कामदेव के तीर से क्या उचित
धाँगड़ी वयस में होना आहत।

गहरे काले घुंघराले बाल
दो हाथों का होगा अंतराल
ऐसी सुंदरी देखकर
योगी का भी टूट जाए मनोबल।

आसमानी रेशमी वस्त्रों में
देह शोभायमान जैसे रवि
ऐसी सुंदरी का वर्णन करने में
शब्द नहीं पा रहा कवि।

मन में योजना बनाने लगे किशन
सोते-सोते लहलहाती डाल
उसी समय कदंब के नीचे
आ पहुंचा सुंदरियों का दल।

बड़े प्यार से लगी खेलने
पेड़ के नीचे बैठकर सुंदरियाँ
‘छिलो लाई,खेले बाई’
हम सारी सहेलियां।

कृष्ण ने देखी राजकुमारी के गले में
मोतियों की सुंदर माल
तुरंत सुमंतक मणि का
उनके मन में आया ख्याल।

हृदय की बढ़ने लगी धड़कन
सोचने लगे मन ही मन
चुप रहने से नहीं होगा काम
स्नान बाद सभी जाएगी राजभवन।

पेड़ से अचानक कूदकर
राजकुमारी को पकड़ा कसकर
उसके गले से छीन ली
मणि झपटकर।

संगी-सहेलियां तुरंत
भागी इधर-उधर
छिल गए घुटने कोहनी
रोने लगी जोर-जोर।

उसकी देह,सिर,गाल और वक्ष को
हाथ से सहलाने लगे कृष्ण
जिस तरह पेड़ पर चढ़ती लता
राजकुमारी चिपकी कृष्ण के तन।

धाँगड़ा-धाँगड़ी के देहों का मिलन
आनंदित दोनों परस्पर
राजकुमारी के गाल पर देकर चुंबन
कृष्ण के किया प्रेम का इजहार।

हाँफते-हाँफते राजा के आगे
कहने लगी सखीगण,
राजकुमारी का कोई कर रहा अपहरण
मालूम नहीं हमें, वह है कौन ?

कब से आकर कदंब पेड़ पर
छुपा हुआ था वह नटखट
अचानक पेड़ से कूदकर
राजकुमारी को ले गया झट।

राजकुमारी के अपहरण की खबर
सुनकर नाराज हुए जांबवान राजा
किसने अपनी मां का पिया है दूध!
किसके पास है दो कलेजा !!

धरती, स्वर्ग, पाताल में
किसके पास है इतना दम
जांबवान राजा के पुत्री का अपहरण
उसे अवश्य बुला रहा है यम ।

क्रोधित मन लेकर धनुशर
निकल पड़ा वह बाहर
देखकर दृश्य मन हुआ शांत
सिहरने लगा उसका शरीर।

लगा जैसे किसी ने किया हो
जादू-टोना-मंत्र
पता नहीं, कब खिसक पड़े
उसकी देह से धनुशर।

सीता माता के साथ घूम रहे जैसे
श्रीराम वन बिहारी
वैसा लगा किसी राजकुमार के संग
फुलवारी में घूम रही राजकुमारी।

जैसे शची इंद्र विचरण
कर रहे नंदनकानन
जैसे शिव पार्वती हर उद्यान में
कर रहे भ्रमण।

बेटी के लिए ऐसा दूल्हा
ही था मुझे दरकार
गुस्सा और खुशी दोनों
कूद रहे उसके उदर।

कट जाएगी नाक, धूमिल होगा अभिमान
अगर किसी ने किया मेरा बेटी का अपहरण
बल शक्ति होने के बाद भी हीनमान
दुनिया करेगी मेरा अपमान।

अरे स्त्री चोर !
जांबवान दौड़ा करते हुए घोर गर्जन
तेरी इतनी हिम्मत !
जाम्ब राजा की पुत्री का खुलेआम अपहरण !

चुपके से घुसा मेरे राज्य में
चोर चुहाड़ काफिर
जाम्ब नहीं, यम हूं तेरा
जान लेने में माहिर।

जय श्रीराम, जय श्रीराम
पुकारने लगा जांबवान
कृष्ण को नीचे गिराकर
बैठा उस पर पर्वत समान ।

कृष्ण करने लगे आह,उफ़
नहीं रहा उनमें बल
जमीन पर लेटे-लेटे
करने लगे युद्ध विकल।

मणि खोज में निकले हरि ने
कहा था स्पष्ट मन
जिंदा रहा तो लौटूंगा सात दिन भीतर
सुनो, द्वारिका जन।

बीत जाएं सात दिन अगर
समझना कृष्ण गए हैं मर
पूरा करना मेरा अंतिम संस्कार
बिना किए और इंतजार।

दसवें दिन दशा घाट पर
रानियों ने की चूड़ी भग्न
सबसे बड़े पुत्र प्रद्युम्न का
घाट पर हुआ सिर-मुंडन।

पत्तल के दो कटोरों में दी
भात-पानी की अंजलि
कहने लगा पिताजी स्वर्ग में पाना
दे रहा हूं श्रद्धांजलि।

बड़े बेटे का भात-पानी
जैसे छूआ कृष्ण के अधर
लौटी चेतना, फेंका जोर से
जाम्ब राजा को अति दूर ।

छिटक पड़ा कीचड़ के ढेर
फूल बगीचे से दूर
तुरंत उठकर संभाले
पहले अपने धनुशर।

कहने लगे, संभाल अपने को
यादकर अपने इष्ट देवता
एक ही तीर में जाओगे फेंक
नहीं मिलेगा अता-पता।

धनु खींचकर लगाया तीर
कोप मूर्ति बनकर
कृष्ण ने सोचा, कब तक
चलेगी यह लड़ाई आखिर?

कट जाएगा सिर
अगर चलाता हूँ सुदर्शन चक्र
केवल खाम ख्यालिया लड़ाई
हाथ नहीं अस्त्र।

रिश्ते और व्यवहार में
अब वह मेरा ससुर
ऐसे गुरुजन को अगर मारता हूं मैं
तो होगा मेरा कसूर।

विचार करते-करते अचानक
प्रभु को आया ध्यान
त्रेता युग के कोदंड धनु का
मन में किया सुमिरन।

पलक झपकते ही आंखों के आगे
हाजिर हुआ धनु शर
युद्ध के लिए तैयार कृष्ण
धनु को कर नमस्कार।

क्रोधित राजा जांबवान ने
मारा पहला तीर
एक तरफ झुककर बचाया सिर
प्रभु चक्रधर।

कोदंड तानकर पहले कृष्ण ने
मनभेद बाण पर किया प्रहार
राजा जांबवान के बाएं हाथ में
धँसा वह जाकर तीर।

हाथ से तीर निकाल
जांबवान हुआ अचंभित
लौट आई स्मृति
भगवान श्रीराम से संबंधित।

त्रेता युग में राम का मंत्री
मैं वही जांबवान
मनभेद बाण से
लौट आया मेरा ज्ञान।

रुको भगवान, रोको लड़ाई
बताओ तुम हो कौन?
राम के सिवाय कोई
चला नहीं सकता यह बाण।

तुरंत वापस गए जांबवान
पकड़े प्रभु के पाद
आप कौन हो? ले रहे मेरी परीक्षा
बताओ मुझे, छोड़कर विस्माद।

सेवक के अपराधों को
प्रभु करते माफ
जीवन आकुल हो रहा मेरा
कहो मुझे साफ-साफ।

प्रभु बताओ, बोला जांबवान
सिर जमीन पर पीटते बार-बार
कृष्ण के दोनों पाँव
धुल गए जाम्ब के अश्रुधार।

जाम्ब राजा की भक्ति-प्रीति
पहचान गए कृष्ण मुरारी
मायाधर माया से हो गए
राम कोदंडधारी।

कोटि कामदेवों से भी सुंदर
ललाट पर तिलक चंदन
गले में दो रुद्राक्ष माला
कंधे पर नौ सूत्री उपनयन।

अपनी आंखों के सामने देख
त्रेता युग का श्री राम रूप
जांबवान का हृदय
भर गया प्रेमानंद स्वरूप।

प्रभु बोले, धरती माता पर
बढ़ा पाप का भार
उसे हल्का करने के लिए
मैंने लिया कृष्ण अवतार।

पापी दर्पों का वध करने अवश्य
धर्म संस्थापनार्थ लिया अवतार
खो गई थी सुमंतक मणि
उसकी तलाश में निकला बाहर।

जांबवती के गले में देख मणि
निकाली मैंने जबरदस्ती
उस समय तुम्हारी बेटी
हुई मेरी और आकर्षित।

जाम्बवती के लिए नहीं,
आया मैं मणि खोज में
युगों-युगों तक तुम्हारा ऋण
नहीं चुका पाऊंगा मैं।

कैसे तुम्हें मिली यह मणि
जिसे रखा अपनी जतन
विदा दो अब मुझे
घर जाने का उत्सुक मन।

सुनो प्रभु, आपके प्रश्न का उत्तर
कहने लगा जांबवान राजा
शिकार के दौरान मिली मणि
फहराकर कीर्ति-ध्वजा।

क्षुधा आकुलता में खोज रहा था पानी
दिखाई दिया एक झरने की धार
पानी भीतर चमकती
अलौकिक रंगदार।

जांबवती ने उस मणि को
पहना अपनी गर्दन
मेरी पुत्री और मणि को
आपने किया ग्रहण।

प्रभु! अपनी बाहों में किया आलिंगन
अब उसे करो ग्रहण
करता हूँ, पुत्री और मणि का समर्पण
और मुझे दो अपने चरणों में शरण।

प्रभु के हाथ में थमा दिया
जांबवती का हाथ
दयासागर कृष्ण ने किया पाणि-ग्रहण
प्रभु द्वारिकानाथ।

कृष्ण विहीन द्वारिका पुर में
फैली दुख ज्वाल
रह-रह सुनाई देता बलराम का क्रंदन
कौन करता देखभाल ?

सभी प्रजा का मन अप्रसन्न
तरस रहे कृष्ण के दर्शन
संभाल रहे राजसभा हलधर
मारकर अपना मन।

उसी समय आए कृष्ण
साथ लिए जाम्बवती
खबर फैली चहुंओर
कृष्ण लाए साथ में रानी।

दौड़कर आए हलधर
कसकर किया आलिंगन
हे हरि! तुम्हें देखे बिना
अंधे हो रहे थे नयन।

क्रोध में आकर कह दिया बहुत कुछ
फिर हुआ मुझे पश्चाताप
और नहीं डाटूँगा तुम्हें कभी
आज लेता हूँ संकल्प।

कहां थे तुम, किस राजकुमारी को
लाए हो अपने साथ
सभी का मन होगा हर्षित
बता दो, द्वारिका नाथ।

कमर से बाहर निकाल
बलराम के हाथों में सौंपी मणि
इसमें किसका है दोष
सुनो भाई, सभी प्रजाजन ।

मणि को लेकर घुड़सवार
प्रसन्नजीत भागा किसी जंगल
वहाँ झरने के पास,नवगुंजर का हुआ शिकार
उसकी मणि गिरी पानी भीतर।

पातालपुर में जाम्बवान राजा
कर रहे थे शिकार
मिली मणि उसे
जो बनी राजकुमारी के गले का हार।

पुत्री और मणि को देकर
जांबवान राजा ने मुझे बनाया वर
ले आया उन्हें साथ
बसाऊँगा अपना घर-संसार।

यह सुनकर बलराम ने
शंकराजीत को बुलाया राजसभा
बोले, लो अपनी मणि
दोष न देना फिर कभी।

शंकराजीत की इकलौती पुत्री
नाम शंकरावती
कृष्ण लौटने की खबर सुन
खड़ी थी अग्रपंक्ति।

मणि भी लो, मेरी पुत्री भी लो
हे प्रभु भगवान
शंकराजीत को क्षमा कर
प्रभु, दो अपनी प्रेम पहचान।


19.

सुमति बोली, सुनो जरा
मानोगे तो कहूँ एक बात
ऐसे कितने दिन भूखे रहेंगे
पेट पर रखकर बाट।

कैसे बचेंगे, नहीं मिलेगी भीख
भुगत रहे दुकाल
कितने दिनों से चूल्हा नहीं जला
हांडी में मकड़जाल।

मिलता तो खाते, नहीं रहते तो भूखे
टूटे चावल और दाल
भूखे पेट में कूदते चूहे
सिगड़ी में नहीं ज्वाल।


सात जगह टांके लगाकर
पहनते कपड़े दो बार लपेट
अगर खींचा तो फट जाएगा
संभाल कर चलती इधर-उधर।

एक महीने से घर में नहीं तेल
उलझ गए बाल
आंखें भीतर धँसी-धँसी
पोपले-पोपले गाल।

अगर ऐसा दारिद्र्य
करता रहा हमारा अनुसरण
चार अंगुली धँसेगा पेट
नहीं बचेगा हमारा जीवन।

सखा हमारे बने हैं
द्वारिका राजा
जाकर मिलोगे तो
देंगे कुछ दिनों का खाँजा ।

जो सोच समझ कर देंगे, तुम्हारे मित्र
बांधकर लाना पोटली
मिलजुल कर खाएंगे हम
जाओ, कर रही विनती।

मित्र के आगे
मगर नहीं फैलाऊँगा हाथ
गरीब का मतलब यह नहीं
अपनी प्रतिष्ठा लगाऊंगा दाँव।

सखा हमारा राजा
और मैं कंगाल
लोग उड़ाएंगे मजाक मेरा
राजा का सखा तंग-हाल।

वहां जाकर दिहाड़ी खर्च
मांगूंगा किस शर्म
राज दरबार में होंगे मंत्री
जाऊंगा वहां किस दम।

ऐसे शर्म की बात सुमति
कह मत,कह मत
अगर शरीर में रहेगी जान
मिलेगी भीख पर्याप्त।

सुमति बोली, मेहमान बन
जाओ तुम एक बार
सखा को बताने की जरूरत नहीं
अपने आप देंगे उन्मुक्त हाथ।

ढेंकी में रखे हैं मैंने
दो मुट्ठी तंदुल
बांध लेती हूं गठरी
खाएंगे तुम्हारे बंधु।

सुमति के वचन सुन
सुदामा हुए तैयार
थोड़े तले चावलों की पोटली
बांधी अपनी कमर।

मक्खन, दही, मट्ठा नहीं
नहीं घी, शक्कर
कैसे दूंगा उन्हें ?
सुदामा के ललाट पर उभरी चिंता-लकीर।

भूल गए होंगे शायद सखा
बचपन की स्मृति-धरोहर
साथ खेलते, खाते-पीते
चराते जंगल में जानवर ।

गोपियों के खुले घर देखकर
चुराते थे दही मक्खन
मुझे खिला कर खाते खुद
फिर सुनाते अपने वचन।

बचपन के खेलों के दिन
आंखों के सामने आते हैं उभर
कानों में गूंज उठती है
‘सखा-सखा’ की पुकार।

मोहन बंशीधारी सखा को
सजाता झार-जंगल के फूल
सखा की ललाट लगती सुंदर
मयूर झाल को चूल।

झुमके नूपुर बजाकर करता
त्रिभंगी नृत्य सखा
चांद जैसे चेहरे पर मंद-मंद हंसी
आगे बढ़ता एका-एका।

हाथों में चांदी के कंगन
अँगुलियों में सुंदर मुद्रिका
दुनिया की सारी कलाओं से
भगवान ने बनाई यह कृतिका।

जैसा रूप, वैसे गुण
नाम जिसका दैतारी भगवंत
एक-एक कर आठ असुरों का
अपने हाथों से किया अंत।

कालिंदी झील में उत्पात मचा रहा
सर्पराज काली
गर्वभंजन, गर्वगंजन कर
सिर पर नाचे वनमाली।

सात दिन,सात रात वर्षा
इंद्र ने किया कोप
तर्जनी उंगली पर उठाया पर्वत
और बचाया गोप।

गोपी-प्रेम, मां बाप का स्नेह
क्या भूल गए किशन?
वृंदावन में कदंब के नीचे
सखाओं का मिलन ?

जब से गया मेरा सखा मथुरा
आया नहीं अपनी टोली
उसके जाने के दिन से
गोपपुर लगता खाली।

देखकर क्या वह पाएगा पहचान
अब तो वह राजा है आखिर !
नहीं पहचानने पर भी
लौट आऊंगा केवल देखकर।

अतीत को याद करते
सुदामा जा रहे थे अपनी बाट
द्वारिका नगर में आते ही
देखा राजमहल का ठाठ।

द्वार पर पहुंचकर
बोले सुदामा, हे प्रहरी
कृपया राजा के पास
सुनाना मेरी गुहारी।


गोपपुर से आया सुदामा
राजा के बचपन का सखा
दर्शन पाने को आतुर
बाहर कर रहा प्रतीक्षा।

प्रहरी बोला, भाग काफिर
मनहूस,भिखारी,भेषज
राजा को मित्र बताने का दुस्साहस
शर्म नहीं आई, निर्लज्ज।

कहाँ घोड़े का मूत्र,कहाँ नारियल पानी
कहाँ काँच, कहाँ मणि-माणिक
तुम्हारे हिम्मत की देनी होगी दाद
बुला रहे अपनी मौत नजदीक।

राज सिंहासन पर विराजमान
प्रभु चक्रपाणि
आठों अंग हुए पुलकित
आए सुदामा जानि।

कृष्ण के चेहरे पर
खिली मुस्कान
आठ रानियों को दी आवाज
आओ, करें सुदामा का सम्मान।

मेरा प्रिय सखा सुदामा
खड़ा है सिँहद्वार
प्यासा जाता कुएं के पास
यहां कुआं आया मेरे द्वार।

रानियों के साथ महल से
बाहर निकले देव हरि
प्रभु के हाथों में सोने का पिंडा
रुकमणी के हाथों में ‘झरी’।

पिंडा नीचे रख प्रभु ने
मिलाई छाती से छाती
जब हम पढ़ते थे जंगल में
तुम थे राजा, मैं हाथी।

प्रभात की इस शुभ बेला में
मिला है मुझे आशीर्वाद
धन्य हुआ द्वारिका भुवन
जहां पड़े सुदामा के पाँव।

बड़े दिनों से दोस्त ने
कभी नहीं किया याद
मेरी सखी सुमति के
कैसे हैं हाल-चाल ?

सोने के पिंडे पर सखा के पाँव
रखे द्वारिकानाथ
झरी के पानी से धोए पाँव
रुकमणी ने अपने हाथ।

सभी रानियों ने बरसाए फूल
करते जोर से हुलहूली
उसके शरीर पर फेंका इत्र
धूप,लोहबान, कपूर गोली।

राज सिंहासन पर बैठकर सखा के
आगे खुद खड़े हुए कृष्ण
मंद-मंद हंसते-हंसते बोले
अपने मधुर वचन।

बड़े दिनों के बाद सखी ने भेजा
कुछ देकर तुम्हें मेरे पास
चतुर दोस्त, क्यों छुपा रहे हो
उसे अपनी काँख ?

सखी सुमति के भेजे द्रव्य पर
मेरा पूरा अधिकार
दो, सखा, दो मुझे
काँख से निकालो बाहर।

शर्म से सिकुड़ कर सुदामा बोले
जिद्दी मित्र मुरारी
सुमति ने भेजे भूँजे तंदुल
बांधे उसे गठरी।

दो, मुझे दो, जिसे भेजी मेरी सखी
बोले किशन
मेरे सामान पर क्यों
तुम्हारा इतना प्रलोभन ?

सुदामा से कृष्ण ने
खींची गठरी अपने बल
सभी के आगे प्रसन्न मन
खाए भूँजे चावल।

अत्यंत प्रेम से सुदामा के तंदुल
खा रहे थे भगवान
खाकर कृष्ण तंदुल
दे रहे अपनी प्रेम पहचान।

सखा कृष्ण के सामने एक दिन
सुदामा ने की फरियाद
राज सुख भोगते-भोगते
अब घर आ रहा है याद।

विदा दो, मित्र, विदा दो
अब जाऊंगा घर
बहुत दिन हो गए सुमति
कर रही होगी मेरा इंतजार।

कृष्ण बोले, जाओ मित्र
सखी को कहना मेरा नमस्कार
भेजे थे जो भूँजे तंदुल
सदैव रहेगा यादगार।

अमृत से भी ज्यादा सुस्वाद
तंदुल भेजे मेरे खातिर
जैसा ही करता हूं याद
मुंह से टपकती लार।

सखी सुमति और सुदामा का
मुझ पर चढ़ा ऋण
युगों तक याद रखेगा जमाना
कृष्ण ने खाया सुदामा का अन्न।

दे नहीं पाया मैं कुछ
खाकर तेंदुलकण
मैंने नहीं देखा कभी
द्वारिका में ऐसा धन।

लेकर विदा सुदामा
आए द्वारिका से गोपपुर
सखा-सखी का स्नेह
लगा शक्कर जैसा मधुर।

अंधे की तरह ढूंढा चारों ओर
नहीं मिला अपना घर
ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं
देखा इधर-उधर।

यहां थी मेरी टूटी कुटिया
रात में गिनता चांद तारा
सहता हाड़कंपाती शीत
वैशाख का लू-खरा।

बरसात का पानी गिरता दरदर
केंचुओं से भर जाता घर
बिजली तूफान से डर
कोने में सिकुड़ने लगता परिवार।

किसने चलाया काला जादू
लोप हुआ मेरा घर
महल के ऊपर महल
जैसे कोई राजागार।

दरवाजा खोल बोली सुमति
अजी, पधारो अपने घर
तुम्हारे जाने के दिन से
लोगों ने बनाया यह राज-गृह।

जितना खाने से भी
नहीं खत्म होता धन
सुख से कटेगा अब
हमारा जीवन।

विस्माद स्वर में बोले सुदामा
क्या किया तुमने, सुमति?
अर्थ नहीं, यह अनर्थ
बुलाई पाप-विपत्ति।

ज्यादा पानी से होती खराब फसल
वैसे ही मनुष्य को नष्ट करता अति धन
देता मेरा सखा, तब भी नहीं लेता
खुद को करता सचेत सावधान।

पानी को रोकने के लिए बाँधा बांध
फिर भी मेरे खेत में प्लावन !
सखा ने नहीं दी अपनी प्रेम-पहचान
नहीं तो, सुदामा करेगा विस्मरण।

जानता था सखा, था मेरे यह मन
तुम चालाक चतुर
सुदामा से नहीं बच सकते
भले ही, रहो मुझसे अति दूर ।

सोचा शायद, देकर धन
रखोगे मुझे संतुष्ट
जानता हूं तुम्हें, मायाधर
भूल नहीं सकता अपना इष्ट।

द्वापर युग का अंतिम चरण
छोड़ जाओगे हमें, किशन ?
सखा सुदामा को चकमा देकर
दे रहे अपनी प्रेम पहचान।


20.

राधा कृष्ण की नवरंग लीला
विभु प्रकृति के संग
रानी प्रकृति के असली अंगों को
कवि ने चित्रित किया अपने रंग.

पोती पुराणों के माध्यम से
जा रहा था राधा के पास
दयासागर, तुम्हारी कृपा बिना
क्या ले पाऊंगा साँस?

परम पुरुष परमेश्वर
श्री कृष्ण भगवान
उसे पाने का रास्ता
करो मुझे प्रदान।

कर घोर निंदा अपमान
विपद आपदा बाधा
पागल जैसा उद्विग्न मन से
अर्पित हुई राधा।

जिस रास्ते पर चलकर आपने
पाई परमात्मा
कृपया मुझे बताओ वह विधि
करता कवि इतनी प्रार्थना।

गोपलीला संपूर्ण कर गए द्वारिका
कुंज बिहारी कन्हाई
समाप्त हुए अठारह दिन
महाभारत की लड़ाई।

राधा भाग को सोचते-सोचते
हरि हो रहे बेचैन
नहीं व्यक्त कर पा रहे
वे अपना मन।

दिखती अग्नि ज्वाला
जलता जब वन
उद्विग्न मन की
किसे दिखती हुतासन।

कृष्ण का अशांत मन
नजर आया जनारण्य
द्वारिका में शांति यज्ञ करने का
उन्हें लिया निर्णय।

अशांत मन वाले कृष्ण
बैठेंगे बन यज्ञ कर्ता
नारद मुनि गए त्रिभुवन
देने सबको न्यौता।

मुख में हरि नाम, ललाट पर चंदन
गले में तुलसी माल
गेरुआ वस्त्र, एक हाथ में वीणा
दूसरे हाथ में रामताल।

मन विमान में बैठकर
उड़ रहे चौदह भुवन
शरारती नारद मुनि
जा रहे गगन।

वृंदावन की पगडंडी पर
बैठी राधा यमुना किनार
दाहिने गाल पर हाथ टिकाकर
बाईं ओर किए नजर।

बहती अश्रुधार
गालों के दोनों किनार
फटे-मैले कपड़ों के भीतर
झाँक रहा अस्थि-पंजर।

सिर पर उलझे-उलझे केशधन
पास में मिट्टी के बर्तन
देखकर पिघला नारद का मन
उतरे नीचे वृंदावन।

चिड़ियों का कलरव नहीं
सुनाई दे रही झींगुरों की आहट
यमुना नदी की शुष्क धार
लता तक नहीं दिखी उधर।

मुरझा गए कदंब वृक्ष
डालियाँ टूटती कर्र-कर्र
सारे जीव-जंतु भूख प्यास से
हो रहे मौत के शिकार।

फागुन में बहती गरम पवन
धूप ताप नहीं होता सहन
वृंदावन में पड़ा अकाल
वृक्षों का श्रीहीन हाल।

कृष्ण विहीन धन-द्रव्य
हत शिरी गोप उत्कट
तभी व्याकुल राधा के आगे
नारद हुए प्रकट ।

नारद को देखकर राधा ने
कई बार किया प्रणाम
नारद की भर आई आंखें
मन में उठा रहा कोहराम।

जिस वृंदावन में बारहमास
बहती मंजरी सुगंधित वायु
यमुना की अजस्र धारा
सूख गई इस आयु।

नाना फल फूलों की महकन
चिरगुणों का मधुर गान
कदंब के नीचे रासलीला
फल-फूलों से लदे विटप महान।

भुवन मोहिनी राधिका
कृष्ण को प्राणों से भी प्यारी
पागलों जैसे बिखरे बाल
सूखकर दिखने लगी बूढ़ी न्यारी।

धन्य देव, धन्य तुम
स्वर्ग फूल को फेंका धूल
मन को जानने के लिए
नारद बोले वचन सुकोमल।

राई विनोदिनी! क्यों हो गई
तुम्हारी स्वर्ण देव सूनी?
दिखाई दे रही जैसे पगली
क्यों तजा रूप मोहिनी?

किसने कर दिया ऐसा भेष
न चेहरे पर मुस्कान, न मन खुश
राधा बोली, हे मुनिवर !
क्या है तुमसे अगोचर ?

वही हूं मैं राधा
मगर नहीं रही कान्हू की प्रीति
राधा की श्रद्धा खरोंच
द्वारिका चले गए कन्हैई।

किसके लिए पहनूँ परिधान
खो गया मेरा अभिमान
सता रही है उसकी याद
कर दूँ अपना जीवन बर्बाद।

दिखता है सपने, पर नहीं आते नजर
जागने पर कैसे सुख मिले मगर?
मरने पर होगी जब आंखें बंद
तभी वह होगा मेरे नजरबंद।

मिट्टी का पिंड मिलेगा मिट्टी
जिंदा रह सहूँ मातम
राधा के रक्त-मांस में
ओत-प्रोत हरिनाम ।

फांसी लगाकर अगर करूँ आत्महत्या
कान्हा भी मेरे साथ जाएगा मर
गो-हत्या मृत्यु तुल्य
गाय द्वारा हत्या का पापघोर।

बताओ मुनि कोई उपाय
कैसे करूं जीवन अंत
रानी सत्यभामा, जामवंती, रुकमणी
मुझ से अठारह गुना बेहतर।

अष्ट रत्नों से सुसज्जित
करती कान्हूँ के मन को आकर्षित
स्वर्ण पलंग पर शय्या-सेज
इत्र की खुशबू तेज।

कर्पूर, लोहबान, चंदन संग
लेपित होंगे कान्हूँ के अंग
मुंह में होगा मधुर पान
एक से बढ़कर एक सुंदरी महान।

बांधी होगी अपने प्रेमपाश
राधा यहाँ मर रही निराश
किसके लिए लगाऊँ फूल-गजरा
‘जालमली’ की तरह मेरा माजरा।

हे नारद! मेरा हो गया उन्हें विस्मरण
दुनिया में शायद नहीं है भगवान
पहला कोर जैसा रुचिकर
रहता वैसा पहला प्रेम अमर।

पहले भेजी हरि ने मेरे पास
खोज-खबर लेने दुति
डांट-फटकारकर निकाला बाहर
फिर आए हरि घर भीतर।

घर से निकाला उन्हें धिक्कार
इसलिए दे रहे दंड इस प्रकार ?
एक बार गए चंद्रा के पास
मैंने किया उन्हें निराश।

रूठकर करने लगे अभिमान
अनेक बार दिखाया जाजुरमान
कठोर शब्दों से दिया मैंने अभिशाप
अब हो रहा मुझे पश्चाताप।

क्या इसलिए किया मेरा त्याग ?
साड़ी पल्लू से पोंछी आंख
भले ही, उन्होंने किया मुझे दूर
मगर हम दोनों में कोई नहीं अंतर।

छम छम बाजे नुपूर छंद
हाथों में कंगन, बाहों में बाजूबंद
कदंब के नीचे छांदित चरण
वहां बँधा राधा का जीवन।

हे मुनि! मुझे आपसे है आस
ले जाओ मुझे कान्हूँ के पास
मन भर देने देखूंगी एक बार
याद करते-करते जाऊंगी घर।

देख पगली राधा का रूप
नाक भौ सिकोड़ेगा कान्हा
रहूंगी उनसे दूर दूर
दूर से देखूंगी रूप सुंदर,आह!

नारद बोले, सुनो राधा मैया
द्वारिका से मैं दौड़ा आया
हरि करेंगे कल हवन
देने आया तुम्हें निमंत्रण।

गोप को देने आमंत्रण
मना कर रही रानी रुकमणी
फिर भी कल जाएंगें गोपाल दल
नंद राजा, रानी, मधुमंगल।

जाएंगे बिना आमंत्रण
गोप वाले मथुरा वन
उनके साथ होगी राधा
कन्हैई दर्शन से मिटेगी बाधा।

सुनकर हुए राजा प्रसन्न
जैसा मिला कोई खोया धन
नारद हो गए अंतर्धान
बैठी रही राधा अपने स्थान।

पूरी रात गोप के ग्वालों ने
झपकी नहीं एक पलक
सामान-पोटली बांधकर
हो रहे धक-धक।

सुबह का तारा उगते ही
करने लगे चहल-पहल
ग्वालों के मन में उत्साह-उमंग
नहीं सकते शब्दों में ढ़ाल।

खीर,राबड़ी, दूध, दही
ले जा रहे मटके भर-भर
साथ में राजा-रानी, बुझी राधा
गोप से निकले बाहर।

हंसते-हंसते बातचीत करते
पार करते जा रहे हरियाली
हमें देख कर दौड़ आएंगे
काला कान्हूँ वनमाली।

कोई बोला, गोद में बिठाकर
खिलाऊँगा खीर
फिर कोई बोला, नचाऊँगा उसे
मटकाकर कमर।

राधा बोली, रहो सभी पीछे
मैं रहूंगी आगे स्थान
उसकी एक झलक देखने के लिए
तड़प रहा मेरा मन।

गोपपुर वासी पहुंचे
देखते-देखते द्वारिका नगरी
सिंह द्वार पर भाला लेकर
खड़े सुरक्षा प्रहरी।

द्वारपाल बोला, गोपवासियो!
क्या मिला तुम्हें निमंत्रण?
सिर हिलाते बोली राधा
नहीं मिला हमें आमंत्रण।

बोला प्रहरी, पटरानी
रुकमणी ने दिए आदेश कठोर
गोपवासी आने पर
धक्का देकर निकालें बाहर।

ग्वाले बोले, हमारे कृष्ण
हमें क्यों चाहिए निमंत्रण
बिन बुलाए आ सकते हैं हम
हम उनके हैं सगे-संबंधी, मित्रगण।

राधा बोली, हे द्वारपाल!
जाकर कृष्ण को कहो सीधा
नंद राजा, रानी, गोप गोपाल
साथ में आई हैं राधा ।

अंतपुर में रुक्मणी को पता चला
आए हैं ग्वाल-ग्वालन
तमतमा कर दौड़ी आई
जैसे कोई काली नागिन।


चिल्लाई रुकमणी, कहां है राधिका
वह गली की ग्वालन
मेरे प्रभु को फाँसा उसने
फेंक उन पर सम्मोहन।

राधा बोली, हे पाटदैई
मैं हूं वह राधिका
मेरे कन्हैई को देखने
मैं आई हूं द्वारिका ।

दाँत भींचते बोली रुकमणी
ओह! तुम हो गोपीसयानी
तुमने सीखे जादू मंत्र
आज मिलेगा मूल कंतर।

पुकारते आधी रात
कहते, राधा-राधा
रात भर दौड़ती वृंदावन
लफंगी, बजारु, व्यभिचारिणी, बंजारन।

दुति को देकर अपने संदेश
इधर-उधर भागती छद्म वेश
ग्वालन ही इज्जत कहां ?
गांव में दही बेचते जहां-तहां।

आज तुम्हारा आया काल
उधेड़ दूंगी पूरी खाल
सौतन हिंसा कदली रसा
भोगोगी अपनी कर्म दशा।

बोली राधा, हे पटरानी
क्या सुनाऊं तुम्हें कहानी
मारते-मारते मार दो मुझे मगर
एक बार दिखला दो कन्हैया मेरी नजर।

रुकमणी बोली, रुक बावली
क्यों हो रही उतावली
द्वारपाल घोड़े के चाबुक से
मार दनादन
कन्हैई रास, कन्हैई आस
भूल जाए दीवानापन।

रानी का हुकुम मान चाबुक से
पीटने लगा द्वारपाल
झींगे की तरह चटक गई राधा
जमीन पर लुढ़कती गोल-गोल।

आकुल मन से पुकारी
कन्हैई, बचाओ राधा के प्राण
जीवन जाने से पहले
कान्हा, दे दो मुझे दर्शन।

जो राधा सह नहीं पाती
मालती फूलों का भार
आज राधा की उधड़ी खाल
तेज चाबुक के प्रहार।

गोपवासियों को विपदा से
बचाए थे बेणुपानी
तुम्हारे होने के बावजूद
राधा हुई हीनमानी।

भाव विनोदिया, हे राधामाधव
एक बार दे दो दर्शन
तुम्हारा चेहरा देखकर
समाप्त हो मेरा जीवन।

यज्ञशाला में कर्ता बन
बैठे थे किशन
सुनकर राधा का विकल क्रंदन
नहीं कर पाए और सहन।

बरस रही उनके देह पर
चाबुक की मार
नाक,कान, सिर फटकार
बहने लगी रक्तधार।

थरथर्राते कांपते-कांपते
उठे दामोदर
बलराम बोले, कान्हूँ
बस थोड़ा-सा इंतजार।

यज्ञ अनुष्ठान नहीं हुआ खत्म
इतना क्यों उत्ताप ?
यज्ञ खंडित होने पर लगेगा दोष
फिर होगा पश्चाताप।

बोले कृष्ण, देखो बड़े भैया
मेरे देह पर चाबुक की मार
कितनी जगह फटी चमड़ी
कैसे सहन करूं और !

बलराम बोले, बड़े हो नटखट
तुम कन्हैई
किसने तुम्हें मारा-पीटा
नहीं दिखाई दिए कहीं।

आओ दिखाता हूं तुम्हें
भागे किशन लेकर आड
सिंहद्वार पर पटरानी ने
बंद किए थे किवाड़।

रुक्मणी ने देखा, प्रभु की देह से
बरसरा रहा रक्त सरासर
आंसू बहा-बहाकर
रो रहे चक्रधर ।

रुकमणी बोली, बताओ प्रभु
किसने की ऐसी दशा
किसने की ऐसी हिमाकत
चौदह भुवन में कौन है ऐसा ।

रुकमणी! किसे दूँ मैं दोष
तुमने की मेरी ऐसी हालत
ऊपर से दिखाती प्रेम-प्यार
भीतर मन में खोट।

अचरज से बोली रुकमणी
क्या नींद में रहे हो बड़बड़ा ?
पत्नी का धर्म पति-सेवा
पति को मैं मारूंगी, भला?

सूर्य रश्मियों में भी दिखता अंधेरा
तब तो रुकमणी तुम हो अंधी
हिंसा,अहंकार,गर्व गरिमा
धन प्रतिष्ठा में केवल बँधी।

राधा-कृष्ण का रंगावतार
एक पेड़, दो डाल
दो नथुने, एक नाक
दो नदी, दो नाल।

भिन्न नहीं राधा-कृष्ण
नहीं कर सकते उन्हें भंग
जीवन भर उनकी आत्माओं का
बना रहेगा संग।

फल-फूलों से भरा वृंदावन
अतुलनीय ठोर
राधाकृष्ण की युगलमूर्ति
करती वहाँ रास-विहार।

पटरानी, तुम सोचती
कृष्ण तुम्हारा वर
छाया संग खेलती मेरे
मुझसे हो अतिदूर।

हिंसा,अहंकार,गर्व,गरिमा
प्रतिष्ठा, धन जिसकी आश
पूजा-विधि करने पर भी
नहीं रहता मैं उनके पास।

रास्ता दो मुझे, रुकमणी
हो गया हूं विकल
दरवाजा खोल निकले हरि
रुक्मणी को एक तरफ धकेल।

बेसुध पड़ी थी विनोदिनी
चाबुक की मार से सिंहद्वार
कन्हैइ, दो मुझे दर्शन
आर्त भाव से रही पुकार।

अधमरी राधा के आगे
जाकर खड़े हुए मायाधर
राधा, उठो, जागो
मैं तुम्हारा गिरधर।

आओ मेरी बाहों में राधा
प्राण हो रहे आकुल
अंग से अंग मिलेंगे
तभी होऊँगा शांत बिल्कुल।

तेजी से उठकर देखी राधा
कौन है चक्रधर
पाट पीतांबर अष्टरत्न
आवरण उसके शरीर।

झलकता राजमुकुट का तेज
पहने योद्धा परिधान
चकित होकर बोली राधिका
तुम हो कौन ?

कृष्ण बोले, ओ राधा
क्या नहीं मैं तुम्हारा कृष्ण ?
राधा का कृष्ण, कृष्ण की राधा
दो जिस्म, एक जान।

मेरे कृष्ण के नहीं कोई लक्षण
नहीं राधा के कृष्णा
राधाकृष्ण नहीं पहनते
अपनी दे पर गहना।

राधा के कृष्ण नवरंगिया
जंगल फूल उनका वेश
अष्ट-रत्नों का आवरण
नहीं उसके शरीर लेश्।

गले में पेड़ों के गुँजों की माला
मयूरपंख का चूल
तीन कच्छे पहने त्रिभंग मुद्रा में
नृत्य करते कदंब मूल।

देखते तिरछी नजर
बांसुरी से मोहते मन
आई मैं भागी-भागी
मिलने वैसे किशन।

ऐसे किशन की नहीं जरूरत
लौट जाए अपने घर
पहुंच कर अपने कर्म कपाल
चले जाऊंगी गोपपुर।

जैसे ही जाने के लिए राधा ने बढ़ाए कदम
माया डाली मायाधर
कृष्ण कन्हैई त्रिभंगी मुद्रा का
रूप धरे नए नटवर।

घुँघराले बाल, बांके चूल में खोंसा
चमकदार मयूर झालर
गले में गुंजों की माला
और जंगली फूलों की हार।

कलाई में चांदी की चूड़ियां
और बाहों पर बाजूबंद
कमर में कसी तीन लंगोट
कूल्हे पर चांदी की करधन।

झूमका नूपुर पाद छंदी
बंसीधारी मोहन
बजाते ही राधा के शरीर
दौड़ आई सिहरन।

जैसे खींचता लोहे को चुंबक
वैसे कृष्ण ने खींची राधा
नहीं समझ पाई राधा
वृंदावन है या द्वारिका ?

नागधुन पर जैसे
फन उठाता नाग
वैसे राधा एकाग्र मन
दौड़ी आई उस जगह।

कृष्ण कन्हैया ने किया आलिंगन
चिपकाया अपने वक्ष-स्थल
समा गई उसकी आत्मा
जैसे मेघों में चमकती चपल।

सूर्योदय के तेज में जैसे
खिलता सुबह का तारा
नदी जैसे मिलती समुद्र
हो जाती अगोचरा।

धीरे-धीरे कृष्ण के वक्ष से
सरकता गया राधा का बदन
त्रिभंगी चरणों में रखकर सिर
राधा ने त्यागा अपना जीवन।

कृष्ण ने जब उसे उठाया ऊपर
देखा, राधा गई थी मर।

राधेकृष्ण,राधेकृष्ण,राधेकृष्ण भाव
इसके सिवा माया संसार में नहीं कोई लाभ।


21.

द्वापर से कलयुग आने में
बचा था कुछ वक्त
काईं की तरह फैलेगा इस संसार
कोई व्यक्ति था प्रतीक्षारत ।

अन्याय,अनीति, असत,कपट
हिंसा अहंकार का खेल
गहराने लगा था अंधकार
अस्त नहीं हुआ था बेल।

आकाश,माटी,पानी,पवन
चारों दिशा में प्रकृति
जैसे हैं, वैसे रहेंगे
मनुष्य होंगे अदूति।

फैलेगा गर्व,घमंड जालसाजी
लंद-फंद, चोरी जारी
लोग होंगे धोखेबाज भ्रष्टाचारी
ईर्ष्यालु, अहंकारी।

याद कर व्यग्र थे हरि
करने को प्रस्थान
इस मायाजाल से मुक्ति पाना
दुस्तर, महाकठिन।

कुटुम-जंजाल, जाल-महाजाल
तड़पाएगा कलबल
चाहने पर भी नहीं चलेगा
किसी का बुद्धि बल ।

देखते-देखते परिवार
बढ़ गए अनगिनत
जितना बड़ा बाँस, उतना खाली
नहीं कर पाते अनुभूत ।

राधा-भाव के लिए रंगावतार
गर्भ में लिया उसे सोख
भारत का भार हल्का करने
मारे सारे दोषी लोग ।

उनके पुत्र नाती-पड़नाती
मचाते थे उत्पात
उनके रहते क्या धर्म
रह पाएगा जीवित ?

भीतर ही भीतर सताने लगी
उन्हें घोरचिंता
राजभोग और आठ रानी
लगने लगी तीता।

जो पेड़ उगाया अपने हाथों
कैसे जाएं काटा
भले ही, किसी के हाथों जाते मर
देश में नहीं वीरों का सन्नाटा।

नहीं मिल रहा था थलकूल
क्या करें उपाय
सोच-सोच कर मन मैला
नहीं छूटेगा दागी अध्याय।

किस घाट का पीएँ पानी
डूबे चिंता सागर
सोचते-सोचते उचटी नींद
रात के चारों प्रहर।

सोचते-सोचते देवहरि के
मन में आया विचार
एक दूसरे को मार काटकर
कैसे सभी जाएं मर ?

कौएँ करने लगे कांव-कांव
नहीं झपकी आंखें किसी पल
पूर्व दिशा में होगा सूरज
मंदार फूल की तरह लाल ।

स्नान ध्यान से निवृत्त होकर
राजगद्दी बैठे प्रभु चक्रधर
द्वारपाल को बुलाकर बोले
प्रहरी! मेरा एक काम कर ।

द्वारिका नगर की गली-गली में
जाकर पीटो ढिंढोरा
कहना कृष्ण ने देखा सपना
आ रहा कोकुआ ।

घर से बाहर नहीं निकले कोई
आ रहा इस नगर
जाओ, द्वारिका वासियों को
पहुंचाओ यह खबर।

कृष्ण का हुकुम मान
द्वारपाल ने पीटा ढिंढोर
सुनो,सुनो! आ रहा कोकुआ
हमारे द्वारिका नगर।


जीवन का जिसे है भय
नहीं जाएगा कहीं बाहर
कोकुआ के भय से
प्रभु भी रहे हैं डर।

तीन लोक में नहीं कोई उसे सकता मार
पर्वत जैसा बलवान
ककड़ी की तरह खाएगा
मनुष्य के समूहान।

सभी रहे अपने परिवार संग
एक साथ, एक ही स्थान
सुना रहा कृष्ण का हुकुम
सुन लो खोलकर कान ।

द्वारपाल का संदेश सुन
सभी को लगने लगा भय
क्या कोकुआ खा जाएगा
हमारे सारे मनुष्य।

इधर-उधर बैठकर पाँच-सात
कहने लगे कानों-कान
कोकुआ होगा कितना बलवान
उससे डरते कृष्ण भगवान।

क्या बनाएं योजना
भाग जाए कहीं ओर
हर समय सीने में धुकधुकी
कोकुआ से लगता डर ।

दिन भर सड़के सूनी
घरों के दरवाजे बंद
पूरी निस्तब्ध रात
डरते हर किसी शब्द ।

एक दिन देवकी ने पूछा
बेटा, कृष्ण! बता एक बात
कोकोआ कैसा है जीव
जिससे डरते लोग दिन-रात।

कृष्ण बोले,माँ, सुना मैंने
नहीं देखा अपने नयन
एक कोस मुंह, पाँच कोस पेट
मनुष्यों का करता भक्षण।

जो मिलेगा, खाएगा उसे
करेगा गांव साफ बिल्कुल
राक्षसों से लड़ा भी जाए
पर कोकुआ से मुश्किल।

ज्वर व्याधि, यम का डर
नहीं पहुंचा द्वारिका
द्वापर बीता, आई कली
दे रहा दस्तक।

कोकुआ से बचाने की
नहीं मुझ में ताकत
द्वापर में लेता संभाल
अब हुआ अशक्त ।

कोकुआ के आगे कुछ नहीं
कृष्ण या हलधर
सुनकर देवकी को मन में
सताने लगा डर ।

घोर रात्रि द्वारिकापुर में
नहीं कोई खुरखार
झिई झिई झिई झींकारी
रात भर करते झींगुर ।

उल्लू करते किरली
बैठ सूखे पेड़ों की डाल
मगर बाहर बूढ़ा कूलिहा
कर रहा हूर्ल-हूर्ल ।

कोई नींद में भमक पड़ा
कोकुआ कोकुआ कहकर
हे बाप, हे माँ बचाओ मुझे
खा जाएगा चबाकर।

ढिकीस ढाकस ढड़न ढाड़न
खोजने लगे लाठी छुरी
धमक पड़ी सात पीढ़ी वहाँ
करने लगे किर्ली हूरी।

देख-देख-देख, मार-मार-मार
चिल्लाए आधी नींद
लाठी लेकर करते धक्का-मुक्की
बाहर निकले ग्वाल वृंद ।

कहां है ? कहां है ?, यहाँ है ? यहाँ है?
देखो, नहीं भाग कर जाए कहीं
इधर जाओ, उधर जाओ
चारों ओर से घेर लो वहीं।

जाएगा किधर ? छुपेगा कहाँ ?
मारकर ही जाएंगे घर
सात पुश्तों को डराया उसने
देखते है कितना ताकतवर !

पीछे-पीछे हरि बलराम
जहां रहे एक ही सुर
भीड़ में भाग रहे ग्वाले
बिना देखे इधर-उधर।

सभी चिल्लाए यथाशक्ति
घुमा-घुमाकर लाठी दंड
दौड़े यमुना नदी तक
जैसे गायों के झुंड ।

राधा-कृष्ण की रासलीला
होती जिस कदंब तल
दौड़ते दौड़ते पहुंचे वहां
यादवों के दल।

शांब ने दिखाया वह कोकुआ
दौडे आ रहा इधर
दांत भींच केंदू लाठी
घुमाने लगा जोर-जोर।

लाठी टकराई कदंब झाड
आघात से फटी छाल
माया करने लगे मायाधर
श्री कृष्ण वनमाल।

छाल फटकर धीरे-धीरे
बहने लगी रसधार
समय के साथ तेजी से
बढ़ने लगी बाहर।

सभी बोले, कैसे निकल रहा
कदंब से इतना रस ?
बलराम बोले, कन्हैई
बताओ क्या कर रहे महसूस ?

कृष्ण बोले, पता नहीं भाई
बचपन में भरता यहाँ मेला
सोलह सहस्र गोपियों के संग
करता था मैं रासलीला।


फूल वेश में बंसी बजा कर
बैठता कदंब डाल
पता नहीं, निकलेगा रस
नहीं देखा उस काल।

तेज सात्यकी बोला तभी
रुको देखते हैं चखकर
महक रही है सुवास
नहीं सूंघा कभी अपने नाक द्वार।

चखकर काँख बजाते बोला,
खांड जैसा मधुर रस
अमृत से भी ज्यादा बढ़ कर
चखो इसका कस ।

सात्यकी के कहने पर पिए रस
कृष्ण के पुत्र सब
बापदादा के समय नहीं मिला
ऐसा अपूर्व द्रव्य।

प्रसन्न मन पिया उन्होंने
अपनी अंजुली भर-भरकर
देखकर उनके देखा-देखी
कुछ पिए हलधर।

सर्वविदित यह कदंब रस से
होता घोर नशा
नशे-नशे में वे भूल गए
कोकुआ पर अपना गुस्सा।

लड़खड़ाते बडबडाते
करने लगे ऊंच-नीच
सात्यकी ने दिखाया
वहाँ अपना घुड़ नाच।

मैं गया था महाभारत युद्ध
मैं हूं बड़ा वीर
बड़े-बड़े कुरुवीरों का
काट दिया था सिर।

शांब बोला, बड़बोले सात्यकी
हट जाओ उधर
भूरिश्रवा तुम्हें दबाकर
काटने वाला था सिर ।

अगर अर्जुन में नहीं
काटे होते उसके हाथ
सात्यकी, मत बखर शेखी
प्राण पखेरू उड़ गए होते उसके साथ।

तिलमिलाकर सात्यकी ने
बरसाई लाठी शांब के तन
एक ही प्रहार में
निकल गर उसके प्राण ।

कृष्ण पुत्रों ने देखकर
सात्यकी का उद्दंडपन
चारों ओर से लाठी मार
निकाले उसके प्राण।

आपस में लड़ते-झगड़ते
बढ़ रहे थे नाक की सीध
सामने आया सांतरा वन
रास्ते सारे अपरिचित।

मारते पीटते तोड़ने लगे
सांतरा पेड़ों की डाल
सांतरा जंगल में यदुवंश का
पूर्ण हुआ काल ।

तलवार,भाले,तीर
घुसे एक दूसरे के शरीर
सांतरा वन में मरे सभी
बचा नहीं कोई और ।

धीरे-धीरे उठकर देखने लगे कृष्ण
मरे पड़े थे तब इधर-उधर
मन ही मन सोच रहे थे
भारत का भार गया उतर ।

दूर से देखा,रोते-रोते
आ रहा था प्रद्युम्न
तुरंत प्रभु ने छोड़ा
अपना चक्र सुदर्शन ।

ऐसा वीर बचेगा अगर
फैलेगा पिल पांकला
जाओ, सुदर्शन काटो सिर
यह ही है उचित वेला ।

देखा कहीं कोई छिटपुट नहीं
धीरे-धीरे कदम क्लांत
घुसे खुद घने जंगल
लिए अपना मन अशांत।

नशा फटने पर
उठ कर आए रेवती के बलराम
देखा सभी मरे पड़े थे
सातों वंश हुए तमाम ।

मन में उठा झंझावात
खोजने लगे कहाँ है कृष्ण ?
न पाकर दुखी बलराम
करने लगे घोर क्रंदन ।

कहां चले गए भाई कृष्ण
इस समय अकेला कर
मरना था तो दोनों भाई
क्यों नहीं गए एक साथ मर।

तेरे बिना भाई
कैसे रहूंगा मैं जीवित यहाँ
क्या दोष देखकर
अकेले चले गए तुम कहाँ ।

एक गोद में पले बढ़े हम
खाकर दाल भात
नाम मेरा हुआ हलधर
तुम कहलाए द्वारिकानाथ।

रोते-रोते कंधे से नंगल
उतार फेंका जमीन
बोले, कलयुग में यदुकुल
नंगल की होगी आराधन।
मैं हलधर किसानों का बल
अस्त्र मेरा नंगल
जमीन जोतकर सृष्टि पालन
उगाकर सोने की फसल।

किसान की पत्नी, गृहलक्ष्मी
नंगल डेढ़ ससुर
मान रखेगी,छूने पर नहाएगी
चलेगी एक हाथ दूर।

दिखाई दो द्वारिका नाथ
पुकार रहे हलधर
एकमुँहा कहाँ चले गए
सुनरहे मेरे अशांत स्वर।

क्षीर समुद्र पद्मासन में
ध्यान में बैठे भगवान
नाक से निकले दो काले नाग
फैलाकर अपना फन।

योगबल से त्यागी देह प्रभु ने
सागर गर्भ में हो कर लीन
बीते युग-युग, बीतते गए
रात और दिन ।

जुहार जुहार हरि बलराम
प्रभु शंकर्षण
मिट्टी जोतकर उगाया अन्न
अपने कर्म धर्मपन ।

जानते हैं युगों युगों में
तुम लेते अवतार
रुद्र देवता तुम्हारी महिमा
लेखन-शक्ति कहां अपार ?

विषम अंधेरे में जंगल भीतर
जा रहे थे हरि
गिरते,उठते,बैठते,रेंगते
करते लहरा-लहरी ।

उबड़-खाबड़ ऊपर-नीचे
कांटो भरे वन
दुनिया के जंजाल में
खुद फतेह भगवन।

फैले प्राणघातक बड़े-बड़े
मकड़ी के जाल
मधुमक्खी हो या मक्खी
समा जाती काल।

घनघोर कालिंदी वन का
न आदि, न अंत
दक्षिण में मुँह उठाकर खड़ा
कालेवर पर्वत ।

पर्वत तल से निकल कर झरना
बहता कलकल
मनुष्य का नामोनिशान
नहीं वहां बिल्कुल।

लताएँ गूँथी इस पेड़ से उस पेड़
बनकर सियाली झूला
थक हारकर सोए प्रभु
झूलते-झूलते झूला।

द्वारिकापुर के अपने गोत्री
कुटुंब का किया स्मरण
टूटे हृदय से करने लगे रुदन
जैसे बह रहे हो झरण।

जाल की तरह बडे कुटुंब का
अपने हाथों किया समापन
इस संसार में कोई नहीं होगा
मेरे जैसा अभागा, हीनमान ।

ऊपर से लगता मधुर
भीतर से पत्थर दिल
बाहों में लेकर किया बड़ा
मैंने मारे अपने पुत्र-नाति दल।

किसे दिखाओ अपना मुंह
कैसे लौटूंगा अपने घर
खबर पाते ही मेरी बहूएँ
करेगी जोर-जोर चित्कार।

देख-देखकर लाया था बहुएं
अप्सरा जैसी सुंदर-सुंदर
मैंने कर दिया उन्हें
रांड-बांड गंजा सिर।

रो-रोकर हुए दुखी
मैंने मारा मेरा परिवार
उचित होता सभी मर जाते एक साथ
क्यों जी रहा मैं छिप-छिपकर ?

बड़े परिवार के बड़े दुख
जानता था मैं यह परिणाम
धन, प्रतिष्ठा, रूप-रंग के
फंस गया था जंजाल काम ।

गोपपुर में कान्हावतार
माँ यशोदा के प्रांगण
नन्द यशोदा के आँखों का तारा
गोप-गोपियों का प्रेम-भाजन।

दही, मट्ठा,दूध
गुड,मक्खन, राबड़ी,खीर
खाए थे सारे द्रव्य
भाव से थे भरपूर।

प्रेम की प्रतीक राधा-वि नोदिनी
ललिता,विशाखा,दुति
वृंदावन के सोलह कुंजों में
बिखेरी प्रेम कृति।

कदंब पेड़ के नीचे ऊपर
फूलों में भी प्रेम भाव
मोहन बंशी के सुरों में भाव
गाय बछड़ों के रंभाते राव ।

यमुना नदी के पानी में प्यार
मेरे प्रेम से बंधे अनंत अंश
स्त्री-प्रेम, धन राजनीति ने
डुबाया मेरा वंश ।

धीरे-धीरे बढ़ गया
मेरा स्वार्थपन
आगत निगत ज्ञान
हो गया मुझे विसमरण।

मैंने बोया ऐसा पेड़
कौन भुगतेगा उसका फल
मर जाती है देह
जीव भुगतता कर्मफल ।

अपने आप को जो देख पाता
जीवन उसका महान
जिंदा जीव भोगता भोग
मरने पर मिलता बैकुंठ स्थान।

ऐसे समय में जंगल-जंगल
घूम रहा था शबर जारा
उसके पीछे उसकी शबरन
नाम था उसका हारा।

सिर पर खोंसे गिद्ध पंख
देह पर व्याघ्रचर्म, गले में प्रवाल माल
हाथों में रंगीन कंगन
कानों में खपरी लता के कुंतल।

बाँस की प्रत्यंचा चढ़ा
धामेन लकड़ी का धनु लेकर
धीरे-धीरे दबे पाँवों
खोज रहा था शिकार ।

रोते-रोते आँखें सूजी
भयानक विचार आए मन
पैर पर पैर रखकर बंद नयन
विश्राम कर रहे भगवन ।

सारा शरीर छुपा था
पत्तों की अड़ुआल
दूर से दिखते हिरनी के कान
जैसे दोनों पादतल लाल।

देखकर शबर ने तुरंत
तरकश से निकाला तीर
प्रत्यंचा चढ़ाकर खींचा
जोर से तूणीर ।

तेजी से गया तीर
भेदने प्रभु के पाद
हुए चकित किसने किया
यह कर्म निर्विवाद ?

तुरंत आया नजदीक
मारकर धनुष से तीर
आँखों से आगे साक्षात
प्रभु शंख चक्रधर ।

पहचानते ही शबर हुआ
साष्टांग दंडवत भूतल
बोला, प्रभु अनजान में
फँसा मैं पाप-जाल।

जिन चरणों की सेवा नहीं
कर पाते ब्रह्म इन्द्र शिव
जिनके चरण रज से
तर जाते पापी जीव ।

मैंने किया घोर पाप
पाँव में मारा तीर
सौ जन्मों तक भगवान मुझे
नरक का कीड़ा कर।

पाँव से निकाल लेता हूँ तीर
दिखाओ मुझे एक क्षण
जानता हूँ जंगली औषध
लाकर करता हूँ लेपन ।

जारा शबर की चिंता देखकर
बोले हरि, मन आकुल
अपने कर्मों का मैं
भोग रहा हूँ फल।

अष्टावक्र मुनि का शाप
हुआ फलीभूत, हे शबर!
इसी वजह तुमने
मारा तीर मेरे पैर।

तुम्हारा नहीं कुछ दोष
यह है मेरा कर्म
भोग रहा हूँ फल
दुख दे रहा धर्म ।

जो होना था, हो गया
हस्तिनापुर जाकर करो मेरा अंतिम काम
मिलना पांडवों के तीसरे भाई से
अर्जुन है जिसका नाम।

बुला लाओ यहाँ अर्जुन
मत कहना कृष्ण को लगा तीर
अवश्य तुम्हारे आने तक
हे शबर, करूंगा मैं इंतजार।

कहना, आए है कृष्ण
कालिंदी कूल के वन
नहीं आओगे अगर तुम
होंगे नहीं दर्शन, इस जीवन।

कृष्ण का आदेश शिरोधार्य मान
जारा चला हस्तिनापुर
दरबार में बैठे थे पांचों भाई
बोला सिर नवाकर,हुजूर !

आए है भगवान कृष्ण
कालिंदी अरण्य प्रदेश
मैं जारा शबर
देने आया आपको संदेश।

तीसरे पांडव अर्जुन को
लाना तुम बुलाकर
कहना, आएगा तुरंत
करूंगा मैं इंतजार।

अर्जुन का नाम
लिखा मेरे हृदय पटल
नहीं आया तो और कभी
नहीं मिलूँगा इस धरातल।
युधिष्ठर बोले, सहदेव
बताओ देखकर अपना हाथ
क्या हुआ,क्यों बुला रहे कृष्ण
अर्जुन को अकस्मात् ।

प्रत्युत्तर में बोले सहदेव
विगत रात यदुवंश
कोकुआभय से पीकर कदंब रस
हो गए सभी ध्वंस ।

कृष्ण जाकर सोए वन
सियाली झूले के ऊपर
बिंधे हुए प्रभु
जारा शबर के तीर।

जाना चाहते हो,जाओ अर्जुन
मगर रहना दो हाथ दूर
सावधान! छूना मत
प्रभु का शरीर।

युधिष्ठर बोले,अर्जुन
कान लागकर सुन
किसी भी हाल में
मत छूना उनका बदन।

पीछे-पीछे वीर अर्जुन
आगे-आगे जारा
गपशप करते पूछते प्रश्न
पार किए जंगल सारा।

देखो,अर्जुन ! सियाली झूले में
सो रहे वनमाली
चाँद जैसे चेहरे पर
छा रही कालिमा काली।

प्रभु करने लगे विलाप
अर्जुन को आता देख
इतना दुख झेलने के लिए
विधाता ने लिखे थे लेख ।

अनेक जन्मों के पापों की
भुगत रहा कर्म दशा
अटक गई मेरी कमर
उठाकर मुझे बैठा।

बोले अर्जुन, हे नटखट
नटवर मायाधर
मत करो भ्रमित मुझे
कह अपने वचन मधुर।

कोटि ब्रह्मांडों के कर्त्ता
न आदि, न अंत
उनके ऊपर आई विपदा
यह कैसी रीत ?
चौदह भुवन जिसके गर्भ
योगेश्वर निराकार
कैसे छूऊँगा प्रभु
मैं मनुष्य जार ।

कृष्ण बोले, पार्थ
तुम इतने निर्दय !
तुम्हारी सहायता करने में
नहीं रखी मैंने कोई थेय।

तुम मेरे पाँच प्राण
तू ही जीवन धन
बन सारथी मैंने
तुम्हें दिया रथीपन ।

इस अखिल जगत ने जो नहीं देखा
वह दिखाया मैंने तुम्हें
जो है कृष्ण, वहीं अर्जुन
मगर बदल गए अब तुम।

आओ अर्जुन,मेरे प्राणधन
मुझे बिठाओ उठाकर
तुम्हारे स्पर्श से लगेगा अच्छा
शबर खींचेगा शर।

अर्जुन बोले, हे प्रभु
करता हूँ कोटि-कोटि नमस्कार
छूने से मना किया मुझे
बड़े भैय्या युधिष्ठर ।

तुम्हारा काम हो गया अर्जुन
क्या है अब मेरी जरूरत
ऐसे समय मुझे किया पराया
जैसे मैं ढेला किसी खेत ।

तुम्हारे धनुष से खींच मुझे
क्षीण होगा क्लांत
भूख दुख में सूखे आधे प्राण
क्षण भर लगेगा शांत।

पीछे जाकर खड़ा अर्जुन
सोचने लगा मन-मन
धनुष छुआने से क्या दोष
हाथ छूना ही तो मना।

हे दयामय हरि !
कैसे रोकूँ, मैं तुम्हारा शुभचिंतक
जगत जानता पांडवों के
बने थे तुम सहायक।

जिनकी कृपया से हमने
तीनों लोक जीता
दूसरे कृष्ण है अर्जुन
कहती मुझे गीता ।
कृष्ण के अपने बलबूते
संभाला महाभारत समर
वह भगवान पुकारते मुझे
इतने आर्त स्वर।

फट जाए छाती, फूट जाए आंखें
बहरे हो जाए कान
अर्जुन ने देखा ऐसे गिड़गिड़ाते
श्री कृष्ण भगवान।

लगे मुझे गौ हत्या का दोष
जितना भी हो बड़ा अपराध
चाहे हो जाओ भस्मीभूत
भले ही युधिष्ठर दे शाप।

खींचने लगा डालकर गाँडीव धनु
कृष्ण की गर्दन
अर्जुन का चेहरा देखकर
हँसने लगे किशन।

इसी दौरान जारा शबर ने
पाँव से खींचा शर
स्वर्ग से बरसे फूल
समाप्त हुआ द्वापर।

देखते-देखते अर्जुन की शक्ति
खींच ले गए हरि
प्रेम पहचान देकर प्राण
भवसिंधु से गए तर ।

Blogs By Dinesh Kumar Mali

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