प्रसिद्ध कवयित्री डॉ. सरिता शर्मा के गीतों का सलिल प्रवाह
दिनेश कुमार माली
डॉ. सरिता शर्मा का नाम हिंदी साहित्य जगत में अपने किसी परिचय का मोहताज नहीं है। तीन दशकों से अनवरत हिंदी कवि सम्मेलनों में अपने सशक्त उपस्थिति दर्ज करने वाली भिलाई शहर में जन्मी, पढ़ी-लिखी, अत्यंत लोकप्रिय मंचीय कवयित्री डॉ.सरिता शर्मा ‘छायावादोत्तर हिंदी साहित्य में गीति-काव्य’ विषय पर पीएचडी की उपाधि से सुशोभित है। आपके तीन गीत-संग्रह ‘पीर के सातों समंदर’, ‘नदी गुनगुनाती रही’, ‘हुए आकाश तुम’; एक ग़ज़ल-संग्रह ‘चांद, मुहब्बत और मैं’, एक मुक्तक-संग्रह ‘तेरी मीरा जरूर हो जाऊं’ प्रकाशित हुए हैं और साथ ही साथ, ‘चांद सोता रहा’ और ‘गीत बंजारन के’ नामक दो ऑडियो सीडी भी रिलीज हुई हैं।
आपको उत्तर प्रदेश सरकार का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘यश भारती’, मथुरा का ‘ब्रज कोकिला सम्मान’, फर्रुखाबाद का ‘महादेवी वर्मा पुरस्कार’, उन्नाव का ‘सुमन सम्मान’, मध्य प्रदेश, खरगाँव का ‘नर्मदा सम्मान’ एवं कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध लेखन और गायन हेतु वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन समेत अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। कन्या भ्रूण हत्या के संदर्भ में लिखा गया उनका गीत ‘बेटी’ राष्ट्रीय स्तर पर बहुचर्चित हुआ, जो इस प्रकार हैं:-
मैया! जनम से पहले मत मार,
बाबुल! जनम से पहले मत मार।
चाहे मुझको प्यार न देना,
चाहे तनिक दुलार न देना
कर पाओ तो इतना करना,
जनम से पहले मार न देना
मैं बेटी हूँ, मुझको भी है
जीने का अधिकार।
मेरा दोष बताओ मुझको,
क्यों बेबात सताओ मुझको
मैं भी अंश तुम्हारा ही हूँ,
तजकर फेंक न जाओ मुझको
जीने का जो हक़ दे दो तुम,
देख लूँ ये संसार।
थोड़ी नज़र बदल कर देखो,
संग समय के चलकर देखो
बेटी से भी नाम चलेगा,
ठहरो ज़रा संभल कर देखो
चौथेपन की लाठी बन कर
दूँगी दृढ़ आधार।
मैं जब आँगन में डोलूँगी,
मिसरी सी बोली बोलूँगी
सेवा, कस्र्णा, त्याग तपस्या,
के नूतन द्वारे खोलूँगी
दोनों कुल के मान की ख़ातिर
तन-मन दूँगी वार।
आपने अमेरिका, इंग्लैंड, बहरीन, यूनाइटेड अरब अमीरात और कनाडा में हिंदी कवि सम्मेलनों में एक सशक्त उद्घोषिका की भूमिका निभाने के साथ-साथ अपने सुरीले गीतों के माध्यम से हिंदी के परचम को अखिल विश्व में फैलाया है। उत्तर प्रदेश सरकार में राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त कर चुकी कवयित्री को सुनना मीरा की वंश-परंपरा से साक्षात्कार करने जैसा है। जहां आपकी कविताओं में प्रेम, करुणा और सात्विक शृंगार के दर्शन होते हैं, वहीं अन्य कविताओं में सामाजिक दिशा-बोध का दायित्व भी साफ झलकता है। ‘लाल किला कवि सम्मेलन’ से दर्जनों बार आपको कविता पढ़ने का अवसर मिला, वही दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो, एनडीटीवी, सबटीवी, आज तक, एबीपी न्यूज़, न्यूज़ नेशन, न्यूज़ 24, ईटीवी, बिग मैजिक और अन्य बहुत सारी चैनलों पर आपके कार्यक्रम लगातार प्रसारित होते रहते हैं। आपकी कविताओं में रोमांटिसिज़्म की एक पवित्र छबि उभर कर सामने आती है।
विगत वर्ष हमारे देश के प्रख्यात पत्रकार गौरव अवस्थी जी के मार्गदर्शन में रायबरेली में आयोजित महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान के तहत रजत महोत्सव में पद्मश्री हलधरनाग और पद्मश्री मालिनी अवस्थी को सम्मानित किए जाने के अवसर पर हलधर नाग के हिन्दी अनुवादक के तौर पर मुझे और अंगुल निवासी प्रोफेसर शांतनु सर को उस आयोजन में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिसमें सरिता जी कवि-सम्मेलन की मंच संचालिका थी और अध्यक्ष थे हलधर नाग। टीवी और सोशियल मीडिया पर छाई हुई सरिता शर्मा जी के वहाँ प्रत्यक्ष दर्शन हुए। मीरा को अपना आदर्श मानने वाली और उन्हीं के किंवदंती जीवन में खोई रहने वाली कवयित्री के चेहरे पर आलौकिक कान्ति झलक रही थी।उनकी वाणी का माधुर्य, गांभीर्य, उत्कृष्ट शब्द-संयोजन, प्रत्युत्पन्न मति और ओज दर्शकों को मंत्र-मुग्ध कर देता था। ‘मीरा’ पर उनके द्वारा लिखे गए प्रसिद्ध छंद आज कवि-सम्मेलनों की शान बने हुए हैं:-
स्याम के नाम कौं थाम के प्रीत के, धाम में नाम कमा गई मीरा।
जीवन के इकतारे के तार पै, एक ही नाम रमा गई मीरा।
जोगी जपी औ' तपी सबके कर, प्रीति की रीति थमा गई मीरा।
प्रान समाये जो स्याम उन्हीं में, सरीर समेत समा गई मीरा।
धूरि भरी गलियान फिरी सुख, वैभव बीच पली भई मीरा।
साज समाज के रोके स्र्की नहीं, प्रीत के पंथ चली भई मीरा।
रार्ग विराग के बीच रही अनुराग के सांचे ढ़ली भई मीरा।
मोहन मोहन गावत गावत मोहन की मुरली भई मीरा।
जोरि लियौ मनमोहन सौं मन, मीरा भई मधुरा मुरली सी।
झांझ मंजीरा बजावत गावत, प्रेम पराग पगी पगली सी ।
स्याम के रंग रंगी सी लगै कछु प्रेम के ढ़ंग में डोलै ढ़ली सी।
देह खिली कचनार कली सी औ, बोली भई मिसिरी की डली सी।
वह तो कहती हैं, मैं ' सरिता ' हूं, समंदर से मिलने के लिए बेचैन हूँ।कन्या कुमारी के तट पर अपने आपको नदी मानकर समुद्र से मिलने की अधीर ख्वाहिश को अपने गीत में लिखती हैं :
मिले अवरोध कितने ही , मुझे रुकना नहीं आता
किसी पत्थर के कदमों में मुझे झुकना नहीं आता
नुकीले पत्थरों को मैं , सुघर शिवलिंग बनाती हूं
अकेली राह चलती हूं , मैं छल-छल गुनगुनाती हूं
उनके गीत, मुक्तक, गजल और उद्बोधन श्रोताओं के मन को सीधे स्पर्श कर रहा था और वे विभावी, अनुभावी और संचारी भावों के तुंग से गुजरते हुए रसानंद की मुक्त अवस्था में पहुंच रहे थे, जो प्रेक्षागृह में गूँज रही उनकी करतल ध्वनियों से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था। तालियों की दीर्घ गड़गड़ाहट वाले उनके सर्वाधिक लोकप्रिय मुक्तक हैं:-
“ प्राण को प्रीत से संवारो तो
तुम अहंकार मन का मारो तो
श्याम वैकुंठ छोड आयेंगे
द्रोपदी की तरह पुकारो तो।
“ सारी दुनिया से दूर हो जाऊं
तेरी आखों का नूर हो जाऊं ।
तेरी राधा बनूं, बनूं न बनूं
तेरी मीरा जरूर हो जाऊं ।।
“ अब तो हद से गुजर के देखेंगे
कुछ नया काम कर के देखेंगे
जिसकी बाहों में जी नहीं पाये,
उसकी बाहों में मर के देखेंगे।
“ सूखे पनघट की गागरी हूँ मैं
फिर भी कितनी भरी भरी हूँ मैं
तेरे घर की मैं चांदनी न सही
तेरे आँगन की देहरी हूँ मैं
डॉ सरिता शर्मा के गीतों के प्रस्तुतीकरण का ढंग,उनके चेहरे पर उभरती सौम्य भाव-भंगिमा, आत्म-विश्वास और स्वर के आरोह-अवरोह से मैं इस कद्र प्रभावित हुआ कि हमारी कंपनी एमसीएल में राजभाषा पखवाड़ा के उपलक्ष में आयोजित कवि सम्मेलन हेतु अध्यक्ष-प्रबंध-निदेशक श्री ओम प्रकाश सिंह साहब के सामने मैंने उनका नाम प्रस्तावित किया। और उनके नाम पर सहर्ष स्वीकृति मिल गई और वह अपने चयनित कवियों को लेकर 28 सितंबर 2023 को एमसीएल मुख्यालय पहुँच गई और उस कवि-सम्मेलन को हमेशा के लिए अमर बना दिया। ऐसा अद्वितीय आयोजन शायद ही एमसीएल के इतिहास में पहले कभी हुआ होगा, जिसमें वीर, शृंगार, हास्य और कारुण सभी रसों का सम्मिश्रण एक साथ देखा गया हो।
ऐसे सारस्वत व्यक्तित्व वाली अंतरराष्ट्रीय ख्याति-लब्ध इस समय हिंदी की व्यस्ततम कवयित्री डॉ. सरिता शर्मा का अप्रत्याशित आगमन भिलाई से अंगुल की धरती पर हो, भले अपने निजी कार्यों से क्यों न हो, ऐसा अवसर हमारे लिए न केवल ईश्वर प्रदत्त होते हैं, बल्कि उनके सान्निध्य के पलों को ऐतिहासिक बनाने की प्रक्रिया में अंगुल के बुद्धिजीवी और साहित्यकार कभी भी उन्हें सम्मानित करने और उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर चर्चा करने का मौका नहीं गँवा सकते हैं। हुआ भी कुछ ऐसा ही। उनके अंगुल आगमन पर स्थानीय संवाद साहित्य घर, भारत विकास परिषद, अंगुल जिला साहित्य संसद की तरफ से उनका प्रशांति होटल में आयोजित एक निजी समारोह में भाव-प्रवण भव्य सम्मान किया गया। इस अवसर पर डॉ. सरिता शर्मा ने अपने जीवन की साहित्यिक यात्रा पर प्रकाश डालते हुए अपनी कुछ चुनिंदा कविताएं एवं मुक्तक सुनाएं। भक्त कवयित्री मीराबाई और छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा से प्रभावित इस कवयित्री की कविताओं के प्रमुख स्वर प्रेम और करुणा हैं और उनकी कविताओं में नारी- जीवन के संघर्ष, वेदना, त्याग की पराकाष्ठा और मंजिल तक पहुँचने की कठोर साधना झलकती है। उनके अनुसार पीड़ा के समुद्र-मंथन से ही कविता उपजती है और एक सच्चा कवि बनने के लिए अपने भीतर से प्रेरणा ग्रहण चाहिए, न कि बाहरी कवियों को देखकर उनका अंधा अनुकरण करने की चेष्टा। अलग हटकर लेखन करना ही उन्हें आधुनिक युग के संघर्षरत कवियों में स्थापित कर सकता है। यह आयोजन अंगुल शाखा के संवाद साहित्य घर के अध्यक्ष प्रोफेसर शांतनु कुमार की अध्यक्षता में हुआ। सहित्यनुरागियों में अंगुल जिला साहित्य संसद के सचिव राधाकांत मोहंती, भारत विकास परिषद के सचिव विजय कुमार मोदी के अतिरिक्त जिले के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों में बजरंग अग्रवाल, असीत पटनायक, रामकृष्ण त्रिपाठी, प्रियम्वदा पाणी, संघमित्रा प्रधान और शीतल माली थी। मैंने इस आयोजन के स्वागत-भाषण में उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला।जिले की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं की ओर से उन्हें शाल ओढाकर और पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित किया गया। फिर उनके संक्षिप्त कविता-पाठ के बाद उपस्थित साहित्यानुरागियों ने उनके जीवन, साहित्य, कविता आदि के बारे में कई प्रश्न भी पूछें, जिसे लिपिबद्ध करने का मैंने एक क्षुद्र प्रयास किया है, जो आपके हाथों में हैं।
(“नि:स्वार्थ समर्पण को कमजोरी मत समझो/ मन के रिश्ते को कच्ची डोरी मत समझो/ तुम पढ़ न सके ये कमी तुम्हारी अपनी है/ मेरे मन की किताब को कोरी मत समझो” स्त्री-विमर्श का पर्याय डॉ. सरिता शर्मा की पंक्तियों को दोहराकर भारत बिकास परिषद के अध्यक्ष विजय कुमार मोदी उनके प्रति अपनी श्रद्धा-सम्मान प्रकट करने के बाद उनसे संवाद करते हैं।)
विजय कुमार मोदी : आपने अपने अंतर्निहित काव्य-सत्ता को कब अनुभव किया और कैसे ?
कवयित्री सरिता शर्मा :- इसके बारे में मुझे सही ढंग से याद तो नहीं है, लेकिन इतना जानता हूँ कि बचपन से ही मैं डायरी लिखा करती थी। मेरे घर का माहौल न तो साहित्यिक था और न ही मैं किसी अमीर घर की लड़की थी। जब मैं छोटी कक्षाओं में थी, तो अपनी कॉपी के पीछे कुछ-न-कुछ लिखा करती थी। लेकिन एक बार घर में किसी सामान का पैकेट आया था, जिस पर महादेवी वर्मा की कविता की पंक्तियां ‘मैं नीर भरी दुख की बदली!..... उमड़ी कल थी, मिट आज चली!’ लिखी हुई थी, मुझे लगा कि मैं भी तो वैसी ही बदली हूँ। और मैं भी उनकी तरह अपने सुख-दुख, भावावेगों, मनोभावों को कविता में सीधे यानि अभिधा में व्यक्त न कर लक्षणा और व्यंजना में व्यक्त करती थी। जैसे अगर मैं खुश हूं तो लिखती थी कि चंद्रमा की रोशनी मनभावन है, आज का मौसम सुहाना है, उपवन में फूल खिल रहे हैं आदि।
मैं बताना चाहूंगी कि मैं बचपन से ही बहुत ज्यादा अंतर्मुखी रही हूँ, इसलिए अपने मन की बात किसी और को न बताकर डायरी में लिख लेती थी और अगर कोई पढ़ भी दें तो लक्षणा और व्यंजना में लिखा हुआ किसी की समझ में नहीं आता था। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई, वैसे-वैसे मैं कविता के ज्यादा नजदीक होती गई। परवर्ती जीवन में कुछ ऐसे पल आए कि कविता मेरे जीवन का सहारा बन गई।
विजय कुमार मोदी: आपकी अब तक कितनी पुस्तक प्रकाशित हुई है ?
कवयित्री सरिता शर्मा :- मैं नहीं चाहूंगी कि इस सवाल को मेरे साक्षात्कार का हिस्सा माना जाए। (फिर भी मैंने उनकी बातों का साहित्यिक मूल्य समझते हुए पाठकों के समक्ष रखना उचित समझा) पुस्तक प्रकाशित करने के मामले में मैं काफी लापरवाह रही हूं। आज तक सात गीत-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जो मेरे लेखन का ज्यादा से ज्यादा पांच फीसदी हिस्सा होगा। फिलहाल मेरे पास प्रकाशन योग्य सामग्री इतनी ज्यादा है कि 70 से भी ज्यादा कविता-संग्रह प्रकाशित हो सकते हैं। विदेश यात्रा के दौरान मेरी किताबें और सीडी बिकने की वजह से मेरा ध्यान प्रकाशन की ओर गया, क्योंकि वहां डॉलर-पाउंड में किताबें बिकने से कुछ अच्छी आमदनी हो जाती थी और ऐसे में आप जानते ही है कि हिंदी प्रकाशन का माहौल इतना अच्छा नहीं रह गया है। ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी की लाइब्रेरी की सदस्या होने के कारण मुझे पढ़ने के लिए काफी किताबें ऐसे भी मिल जाती है। मैं पढ़ने की बहुत ज्यादा शौकीन हूं। यद्यपि मैंने विश्व-साहित्य भी बहुत कुछ पढ़ा है, लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि जब तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, निराला जैसे उद्भट कवियों ने सब-कुछ तो लिख दिया है। अब हमारे लिए बचा ही क्या है ? नूतनता और मौलिकता के नाम पर हम पुरानी विषय-वस्तु की पुनरावृत्ति कर रहे हैं।
बजरंग अग्रवाल:- आपकी दिनचर्या क्या है ?
कवयित्री सरिता शर्मा :- मैं जब मोटिवेटेड मूड में रहती हूं तो मेरी दिनचर्या कुछ होती है और जब भी डी-मोटिवेटेड होती हूं तब कुछ और। जब शृंखलाबद्ध कवि-सम्मेलन चल रहे होते हैं तो मेरी दिनचर्या का कोई ठिकाना नहीं रहता है। कब उठाना है ? कब सोना है ? कब खाना है ? आदि—का बिल्कुल ध्यान नहीं रहता है। और ऐसे अक्सर सुबह 6:30 बजे उठती हूं, मॉर्निंग वाक करती हूँ, प्राणायाम करती हूँ और फिर दैनिक कार्यक्रमों से निवृत्त होकर मोबाइल के नोटपैड पर लिखने बैठ जाती हूँ क्योंकि यह मुझे आसान लगता है और मैं इसकी अभ्यस्त भी हो गई हूँ। कुछेक पंक्तियाँ लिख देती हूँ। पहले डायरी में लिखा करती थी। संप्रति नोएडा के एक फ्लैट में रहती हूं और मेरी बेटी पास में गुड़गांव में रहती है। वह भी एक अच्छी कवयित्री है। मोबाइल पर उससे बातचीत करती रहती हूँ। घर के पास एक मंदिर है। मंदिर कमेटी वालों से बात करती हूं। दिनभर के लिए कुछ खाने का सामान, सब्जी वगैरह खरीदती हूँ। ऐसे देखा जाए तो मैं अपने आप को अनसोशियल मानती हूँ। लोगों से ज्यादा मिलना-जुलना मुझे पसंद नहीं है, मगर गांव की महिलाओं से मिलना-जुलना मुझे अच्छा लगता है। उन्हें देखने से मेरे मन में कविता अपने आप पैदा होने लगती है।
बजरंग अग्रवाल: आपका पसंदीदा भोजन क्या है ?
कवयित्री सरिता शर्मा :-: आपको कहना चाहूंगी कि मैं भिलाई (छत्तीसगढ़) की रहने वाले हूं। दाल-भात खाना मुझे सर्वाधिक पसंद है और ऐसे भी मैं शुद्ध शाकाहारी हूं। लहसुन तक नहीं खाती हूँ। गोल-गप्पे (जिसे आप पुचका कहते हैं) मुझे खाना बहुत पसंद है।
प्रियंवदा पाणी: क्या आपकी कविताओं के विषय निस्संगता/ अकेलेपन से आते हैं या भीड़ में रहने से ?
कवयित्री सरिता शर्मा :-: मेरे हिसाब से कविताओं के विषयों का भीड़ या अकेलेपन से कोई लेना-देना नहीं है। केवल आपका दृष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए। मैं चौदह साल से अकेली ही रह रही हूं, मगर अकेलेपन को एंजॉय करती हूं। मेरा मानना है कि अगर आप अकेले रहते हैं तो भी सदैव आपको पॉजिटिव रहना चाहिए, प्रसन्नचित्त और स्वस्थ भी।
प्रियंवदा पाणी:- आधुनिक नारी-विमर्श के बारे में आपकी क्या राय है?
कवयित्री सरिता शर्मा :- मेरा मानना है कि कोई महिला ‘प्रधानमंत्री’, ‘फौजी’ या ‘रिक्शा चालक’ ही क्यों न बने, पहले तो उसे पुरुष की भांति वहाँ तक पहुँचने के लिए सारे संघर्ष करने ही पड़ते हैं, मगर उसकी स्त्री होना भी उसके लिए किसी दूसरे संघर्ष से कम नहीं है। आज भी हमारे समाज में कन्या पैदा होने पर खुशी नहीं मनाई जाती है। पुरुष वर्चस्ववादी समाज में स्त्री आज भी उपभोग की वस्तु है। मैं निस्संकोच कहना चाहूंगी, यहाँ मेरी बहने बैठी है, बचपन में उनके साथ उनके घर वालों की ओर से ही अवश्य कुछ-न-कुछ गलत जरूर हुआ होगा। जब मैं छह साल की थी, मेरे साथ ऐसा ही हुआ। बारह साल में पबर्टी पीरियड शुरू हो जाते हैं, महीने में पाँच दिन नरक भोगना पड़ता है,मीनोपाज के समय तो इमोशनल डिप्रेशन का शिकार होना पड़ता है, और इस वजह से शरीर में दर्द होता है, मगर कोई उठकर हॉट पैक लाकर नहीं देता है और न ही कोई हाथ-पैर दबाता है। हमारे देश में आज भी 70 साल की उम्र की महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं और उन्हें पल-पल पर टीजींग का शिकार होना पड़ता है, अभद्र भाषा सुननी पड़ती है। इतना होने के बावजूद भी, मैं पाश्चात्य नारीवाद से बिल्कुल सहमत नहीं हूं जो ‘माय बॉडी,माय राइट’ जैसे स्लोगनों के प्रचार के माध्यम से स्त्री-स्वतंत्रता के आंदोलन को पूरी तरह अधिक दिग्भ्रमित कर रहे हैं। खेद है कि 80 प्रतिशत महिलाएं खुद कविताएं नहीं लिखतीं। वह दूसरों की रचनाओं को कंठ और प्रस्तुति देती हैं। कला, साहित्य और संस्कृति की बुरी स्थिति है।
राधकांत मोहंती:- आज आठ जनवरी को कुमार विश्वास का प्रोग्राम संबलपुर में हो रहा है। उनके बारे में आपकी क्या राय है ?
कवयित्री सरिता शर्मा :- कुमार विश्वास मुझे दीदी मानते है। वह बहुत टैलेंटेड है, गोल्ड मेडलिस्ट है और उसकी स्मृति-मेधाशक्ति बहुत तेज है। एक बार वह जो पढ़ लेते हैं, हमेशा के लिए उन्हें याद रहता हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन में मनीष सिसोदिया, केजरीवाल, कुमार विश्वास के साथ मैं खुद भी शामिल थी। जंतर-मंतर पर उस समय रवीश कुमार एनडीटीवी के लिए रिपोर्टिंग करते थे। मेरी कविता ‘अन्ना जी तुम लड़ो लड़ाई, देश तुम्हारे साथ है’ बहुचर्चित हुई थी। देखते-देखते कुमार देश के एक परिचित चेहरा बन गए। एक बात और, उनके व्यक्तित्व में वे सारे गुण है, जिससे एक सेलिब्रेटी कवि होने के साथ-साथ आधुनिक राजनीति में अपना स्थान सहजता से बना सकते हैं। (फिर हंसते हुए) हमारे भीतर वे गुण नहीं है, इस वजह से आज भी हम अपनी उसी जगह पर है।
प्रो.शांतनु सर : आपकी कविताओं के प्रमुख स्वर क्या है ?
कवयित्री सरिता शर्मा :- मेरा व्यक्तित्व प्रेम और करुणा से भरा हुआ है। यह करुणा या प्रेम केवल मेरे लिए ही नहीं हैं, बल्कि अखिल विश्व के किसी भी प्राणी के आहत होने पर मेरा मन प्रेम और करुणा से भर उठता है। ऐसे वैश्विक करुणा और प्रेम की पक्षधर हूं।
शांतनु सर : अगर आप सरिता शर्मा जैसी कवियत्री नहीं होती तो आप क्या होना पसंद करती ?
कवयित्री सरिता शर्मा :- मेरे पास कवयित्री होने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था, फिर भी मैं इतना कहना चाहूंगी कि अगर मैं कवयित्री नहीं होती तो शास्त्रीय संगीत सीखती और मेरे एलिवेटेड मूड में सुख, शांति और सुकून से अपना जीवन यापन करती।
अरुण कुमार साहू :- आप हिंदी के प्रसिद्ध कवियों में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, सुमित्रानंदन पंत, सुभद्रा कुमारी चौहान (जिनके बारे में हम ओड़िशा में पढ़ते हैं ) मैं किन कवियों से आप ज्यादा प्रभावित है और क्यों ?
कवयित्री सरिता शर्मा :- भक्ति-काल के कवियों में कबीर और मीराबाई से बेहद प्रभावित हूं। कबीर का फक्कड़पन मुझे भाता है और मीरा का नि:शर्त प्रेम मुझे उन्हें अपना आदर्श मानने के लिए विवश करता है। रीतिकाल के कवियों में घनानंद मुझे अच्छे लगते हैं, जबकि छायावादी कवियों में महादेवी वर्मा और निराला। महादेवी वर्मा की रहस्यमयी वेदना और निराला के अंतरमन की गहराई मुझे आकर्षित करती है।
संघमित्रा:- कवयित्री बनते समय आपने कभी यह सोचा था कि आप अंतरराष्ट्रीय स्तर तक अपना परचम फहराओगी ? एक सामान्य उपलब्धि तक अधिकांश नारियाँ पहुंच जाती है, फिर वहां से और ऊंचाई तक पहुंचने के लिए आपको कितना अतिरिक्त संघर्ष करना पड़ा होगा ? मैं खुद एक पेंटर हूं और क्या मैं अपने इच्छित मुकाम तक पहुँच सकती हूं?
कवयित्री सरिता शर्मा :- ईश्वर की मुझ पर विशेष अनुकंपा है और मेरी बेटी की मृत्यु के बाद कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि मैं अवसाद के गहरे अंधे कुएं में गिर गई। किसी से मेरा कोई जुड़ाव नहीं रहा और न ही किसी में विशेष दिलचस्पी। उस समय कविता मुझे उस अंधेरे कूप से बाहर निकलने वाली रस्सी के रूप में नजर आई और धीरे-धीरे कविता-लेखन से मेरा पुनर्जन्म होता गया। फिर से मुझे मेरे जीवन में रोशनी दिखाई देने लगी। कविता और मेरी छोटी बेटी मेरे जीवन का सहारा बन गई। मैंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छाप छोड़ने के लिए अपनी तरफ से कोई प्रयास नहीं किया। यह आयास नहीं था, बल्कि सब अनायास होता चला गया। यह दूसरी बात है कि मेरे भीतर पेशन बहुत था, जुनून था, पागलपन था और भीड़ से हटकर कविता लिखने की अदम्य चाह। मैंने अपने भीतर उतरकर कविताएं लिखी। इस वजह से हिंदी साहित्य में मेरी बहुत जल्दी ही विशिष्ट पहचान बन गई। वह सब वाग्देवी की कृपा से हुआ है। और रही आपके शीर्षस्थ पेंटर बनने की तमन्ना, तो मैं कहना चाहूँगी कि आप भीड़ से हटकर और पूरे पागलपन के साथ काम कीजिए। अवश्य,सफलता आपके कदम चूमेगी।
रामकृष्ण त्रिपाठी : - आप नए रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहोगी?
कवयित्री सरिता शर्मा:- मैं इतना ही कहना चाहूंगी कि किसी को भी झूठा दिलासा मत दीजिए। पढ़िए, लिखिए और अपने भीतर झाँकिए । आप कुमार विश्वास या सरिता शर्मा को देखकर कवि या कवयित्री बनने का ठान मत लीजिए। जब तक आपके भीतर से कोई आवाज आपको प्रेरणा नहीं देती है, तब तक आपको कविता लिखने की कोई जरूरत नहीं है। आपके भीतर की बेचैनी,छटपटाहट, आकुलता और व्यग्रता ही आपके कवि होने का मार्ग प्रशस्त करती है। कविता लिखने से सरल कुछ नहीं और सही मायने में उससे कठिन भी कुछ नहीं। मौलिकता के साथ रचनाधर्मिता से जुड़े रहें क्योंकि. भले इतराए जलकुंभी कमल तो हो नहीं जाती, गजल सी चीज कहने से गजल तो हो नहीं जाती।
(अंत मे, भारत विकास परिषद, अंगुल शाखा के अध्यक्ष विजय कुमार मोदी जी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ कवयित्री डॉ. सरिता शर्मा के सम्मान-समारोह और साक्षात्कार का आयोजन समाप्त हुआ। इस आलेख पर आपकी प्रतिक्रिया का मुझे बेसब्री से इंतजार रहेगा।)
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