चर्या-चरित
दो नदियों के बीच बसा हुआ एक छोटा-सा शहर, जहां एक बार आगमन होता है बंजारों के किसी दल का। जहां तक मुझे याद पड़ता है, वे लोग यहां कम से कम डेढ़ साल तक रुके होंगे।
मेरी उम्र उस समय थी चार-पांच साल और बचपन से ही कटक के प्रति मेरे मन में एक विशेष लगाव था। उस समय कटक गांव और शहर का आधा-आधा मिला-जुला रूप था। कचहरी से कंटेनमेंट रोड, कॉलेज चौक से रेलवे स्टेशन, माता मठ से मणिसाहू चौक, मस्जिद से मारवाड़ी पाड़ा, लाल बाग से मंगलाबाग, मछली बाजार से माल गोदाम, तुलसीपुर से तेलंगा पीठ, जाऊंलियापटी से जेब्रा, राज बगीचे से रानी घाट, चांदनी चौक से चाऊंलियागंज - कुछ सरकारी कार्यालयों और कल कारखानों वाला तत्कालीन कटक शहर बनने की दहलीज पर दस्तक दे रहा था।
कौएं की कांव-कांव से शुरू होता था सुबह का चाय-नाश्ता तथा शाम को रोटी और चांद के बीच इकरारनामा बनाने वाली तारों भरी कटक की उन रातों में मुझे याद आने लगता है चांद जैसा उसका उज्जवल चेहरा।
जब-जब कटक में सांझ होती है, मंदिरों में दीए जलने लगते हैं, शंख और घंटियों की आवाज सुनाई देने लगती है,तब-तब स्टेशन के किनारे कोयले की सिगड़ियों से निकलने वाला धुआं आसमान में ऊपर उठने लगता है।रात जब गहराने लगती है तब उन कंगनों की रुनझुन आवाज आंखों को निद्रा के आगोश में ले लेती है। उस समय कटक भिन्न-भिन्न आशाएँ और आकांक्षाएं को लिए एक अलभूग चित्र के रूप में नजर आने लगता था।
उसका वह दिन मुझे अच्छी तरह याद है-एकदम निष्पाप, निष्प्रदीप और निर्वाण वाला दिन।
सड़क के किनारे प्रकाश-स्तंभ पर सीढ़ी चढ़कर एक प्रहरी चतुष्कोणीय बक्से का छोटा-सा दरवाजा खोल कर रखकर चला जाता था तेल की डिबरी। एक दीये की तरह उसकी रोशनी चारों तरफ फैल जाती थी और दिन बीतते ही चारों पहर।
बिजली नहीं हुआ करती थी उस समय। क्या शाम, क्या रात।
रेलवे स्टेशन का कोलाहल, आती-जाती रेलगाड़ियों की सीटियों की आवाज, पक्के पिच रास्ते से कच्चे रास्ते की ओर जाने वाली बग्गियों के घोड़ों के खुरों की आवाज साफ सुनाई देती थी। प्लेटफॉर्म से उतरने वाले पैसेंजरों का स्वागत करते थे कोचवान। रात के समय मस्तानों की जगह नजर आने लगते थे शराबी और हिंजड़ों के दल। वे बहुत उत्पाती थे, मगर उग्रवादी नहीं, बल्कि उनका सान्निध्य अंधेरे में ऊष्मा प्रदान करने वाला लगता था।
उस समय कटक के शराबी केवल इतना ही करते थे कि वे आगंतुकों को रोककर उनका हालचाल पूछते थे। हिंजड़ों की मधुर आवाज पथिकों के लिए संगीत बन जाता है।
‘परदेशी पथिक, जरा रुक जाओ रात में’- नहीं तो ‘रास्ता छोड़ो, सुहटनागर,जोब्रा जाऊंगा मैं मेला देखने’ आदि।
मोटर विहीन उन दिनों के सुनसान कटक में घोड़ा गाड़ी चला करती थी।
बावन बाजार बाजा बजाते थे तो तिरेपन गलियां ताल ठोकती थी। हरिनाम के कीर्तन में झूमते तरह-तरह के लोगों के दल वाले कटक में आज जैसा न तो प्रदूषण था और न ही कोई शोरगुल। तत्कालीन इस छोटे-से शहर में माइक की कर्कश आवाज कम, मगर हारमोनियम से निकली मधुर स्वरलहरी का तरंगदैधर्य ज्यादा होता था। लगभग हर मध्यमवर्गीय परिवार में लड़कियों को संगीत सिखाने के लिए म्यूजिक टीचर सादर आमंत्रित हुआ करते थे। कॉलेज चौक के ‘वीर उत्कल’ या स्टेशन बाजार की ‘बुलवायानी’(पागल स्त्री)-पता नहीं, कब उसका देहावसान हो गया, वे मेरे बचपन के दो जाने-पहचाने चरित्र थे। हां, वास्तव में कटक चुंबकीय आकर्षण का क्षेत्र था जाने-पहचाने उन चरित्रों के लिए। यही कारण है मैं कटक को ‘कटक’ नाम से नहीं पुकारता हूं। मैं कहता हूं- ‘कटाक्ष’।
उस समय कटक में जूथप-जूथ यायावर, तरह-तरह के जादूगर, नंग-धड़ंग फकीर, नागा साधु, शांत स्वभाव वाले शरणार्थी, इसके अलावा पौष मास के व्यापारी, उदाहरण के तौर पर सर्दी के कपड़े बेचने वाले नेपाली- यही नहीं, अलग-अलग दूरदराज प्रांतों से, पता नहीं कहां-कहां से, घुमक्कड़ लोगों का तांता लग जाता था वहां, अपने बाल-बच्चों समेत। राजस्थान के पहाड़ी इलाकों से या बुंदेलखंड की बंजर धरती से, पता नहीं, कहां से आते थे वे लोग कटक ? कहते थे हम बंजारा है। इन बंजारों के लड़के साफा पहनते थे तो लड़कियां घाघरा-चोली, जो कटक के युवा-युवतियों के लिए किसी जादूगर के पहनावे से कम प्रतीत नहीं होती थी।
सन 1962 में चीन आक्रमण के समय कटक में पदार्पण हुआ था एक ऐसे बंजारे दल का। इस व्यूह में भाई बहन की एक जोड़ी थी, जो मेरे बचपन की एक मधुर स्मृति बनकर रह गई। भाई की उम्र रही होगी सात या आठ साल। भाषा और संस्कृति में वैविध्यता के बावजूद भी हमउम्र होने के कारण हम दोनों गहरे मित्र बन गए थे। उसकी बहन हम दोनों से चार-पांच साल बड़ी थी, श्यामल वर्ण, सुंदर नाक-नक्श वाली युवती। बंजारों के इस दल में वे लोग आ गए थे इस शहर में, अपने पुरखों और अपनी धरती के पहाड़-जंगल छोड़कर। रहते-रहते रह गए थे एक साल और कुछ महीने।
उस समय हम किराए के मकान में रहते थे, कॉलेज चौक से बॉम्बे होटल होते हुए जोब्रा की तरफ जाने वाले रास्ते के बाईं ओर, जहां उन दिनों होम पाइप वाली कंपनी खुली थी, ठीक उसके दाईं तरफ हमारे किराए का मकान था। आस-पास में पटरासाही से समाधि पटना, मेहतर बस्ती के मांझी साही, भीमा आइसफैक्टरी से बूढ़ी मंगला विद्यापीठ, होम पाइप कंपनी से चमड़े के गोदाम, बॉम्बे होटल से माल-गोदाम, पोस्ट ऑफिस से स्टेशन बाजार, मंदिर के मैदान से धर्मशाला, तालदड़ा कैनाल से महानदी तक की परिधि हमारे अधीन होती थी, मेरी और मेरे बंजारा बंधु की। राजा और मंत्री के पुत्रों की तरह हम दोनों इस इलाके में भ्रमण करते थे। कभी-कभी तो महानदी के रेलवे पुल तक पहुंच जाते थे, नदी के किनारे होते हुए। दोपहर को वहाँ जामुन खाते थे और शाम को लौटा आते थे कॉलेज चौक के दशहरा मंडप के पास लगे मूंगफली के ठेलों पर। हरेक माल छह आना दो पैसों में मिलता था उस समय के विचित्र कटक में। रंगीन शाम को हम चले जाते थे काठजोड़ी के किनारे स्थित सतीचौरा के पास अथवा सुनसान खान नगर के बिजली के नीचे।
जैसे ही कांच की तरह चमकीली ओस बिन्दुओं में कटक की सुनहरी शाम समाप्त होती थी, हम परस्पर एक दूसरे से हाथ मिला कर घर लौट आते थे। मैं चला जाता था अपने किराए वाले मकान में और वह चला जाता था अपने शामियाना वाले तंबू के खेमे में।
हर शाम जब हम घर पर लौटते थे तो अपने भाई की प्रतीक्षा करती हुई उसकी बहिन मुझे भी देखा करती थी। हम दोनों को एक साथ देख कर कुछ नहीं कहती थी, बल्कि हंसती रहती थी। अकेले मेरे घर लौटने से पहले मुस्कुराता हुआ एक प्यारा-सा चुंबन मेरे गालों पर उपहार स्वरूप मिलता था। मैं चला जाता था... मगर मेरे लौटते समय भाई बहन की दो जोड़ा आंखें मुझे अलविदा भरी नजरों से देखती थी।
डेढ़ साल तक अनवरत मेरी नियति ऐसी ही बनी रही मेरे शैशव काल में। पीले रंग के जिस भवन के किसी कमरे में हम किराए पर रहते थे, उसका मालिक मारवाड़ी था, नाम शायद था कल्याण राय। उनका पचास कमरों वाला पीले रंग का यह भव्य भवन मुझे छोटा भारत वर्ष की तरह लगने लगता था। अलग-अलग टुकड़ियों में वहाँ रहा करते थे विभिन्न वर्ग के लोग- ओड़िया,बांग्ला,तेलुगु गुजराती,मारवाड़ी,मुसलमान, ईसाई और कॉलेज में पढ़ने वाले कुछ छात्र। अलग-अलग जिलों से आकर वहां रहने वाले छात्रों के किराए वाले घर पर साइन बोर्ड पर लिखा हुआ था ‘नेशनल मेस’। इस मेस के पास में थी एक दुकान- आलू-प्याज, आटा-चावल,दाल-घी, तेल-नमक, मिश्री-चीनी आदि परचूनी सामानों वाली।
घर के सामने था एक विशालकाय बरगद, जो किसी युग से अपनी जड़े वहाँ जमाए रखा था। वह बरगद एक आश्रयस्थली था, गंधिया बूढ़ा की लात मारने वाली गाय से लेकर लक्ष्मी बहरा की लंगड़ी बकरी तक का।
इधर-उधर की अनेक स्मृतियों का शीर्षक लिए उन दिनों का कटक अपनी किशोरावस्था में था। धूसर रंग की धूप से लेकर गेरुए रंग की गोधूलि तक किशोर को यहाँ निरुद्विष्ट कर देता था। सुनहरी संध्या की सफेद चूने से पोते हुए मंदिर की कलश पर जब छाया गिरती तो चिड़ियों का कलरव कैशोर के मन को भटका देता, जाने-पहचाने चौखट पर। पाँच सौ पचास कोस की दुपहरी में मिलने वाली शाम को लेकर, ऐसे ही मेरे प्रिय कैशोर के मन में बीज बो दिए थे। वे बंजारे भाई-बहन कहां से आकर कहां चले गए, आंधी-तूफान की तरह, मुझे याद नहीं आ रहा है। मगर मैं उन दोनों को कभी-कभी याद करता हूं, अपने बचपन के शून्य-पल को याद करते हुए।
यह स्मृति चारण नहीं है, बल्कि किशोरावस्था के कुछ दंशन है, दूर चले जाने वाले दोनों चरित्रों का यह चर्या चारण है।
सुबह होते ही अपने-अपने तंबुओं से निकलकर कटक की विभिन्न गलियों की तरफ जाने लगती थी बंजारों की औरतें। वे शहद, मिट्टी की मूर्तियां, तांबे के ताबीज और स्टील के कुछ बर्तन बेचने जाती थी वहां। बदले में पुराने कपड़े, शर्ट-पैंट, साड़ी-लूंगी आदि ले लेती थी। दही बेचने वाले की तरह शहद बेचने वाली स्त्री का चलायमान चरित्र भी खोता जा रहा था इस कटक शहर में। मैंने दही वाली का मधुर संगीत सुना, एक दिन ऑपेरा में।
‘देई जा दहीवाली दही... छइली चांदमुही’ इत्यादि।
मगर शहद वाली की कहानी आंधी तूफान में खो गई। ‘चारण चर्या’ के कुछ हिस्सों में शहद वाली की मृदु-मूर्च्छना दर्शाई गई है।
भाई को छोड़कर बहन सुबह-सुबह शहद वाली औरतों के साथ चली जाती थी। बारह-एक बजे मधु बेचकर अपने खेमे में लौटती थी। घर आते समय वह खरीद कर ले आती थी दस-बारह रोटियाँ और तीन प्लेट मटन फ्राय, कॉलेज चौक के पास वाली होटल ‘अंबर’ से। सुबह स्कूल की छुट्टी होने के बाद मुझे घर पहुंचते-पहुंचते ग्यारह-बारह बज जाते थे। हर दिन दो बजने से पहले मेरे बचपन का बंजारा मित्र मुझे उनके तंबू में ले जाता था। वहां हम तीनों बैठकर मध्याह्न भोजन का आनंद लेते थे। डेढ़ साल तक मैं ऐसे ही उन लोगों का अतिथि बना रहा। एक बार बुखार के कारण चार-पांच दिन नहीं जा पाया था वहां। दुखी मन से मेरा दोस्त लौट जाता था मेरे हाल चाल पूछने के बाद। बाद में मुझे पता चला कि उसकी बहन ने मेरे ठीक होने के लिए उन दिनों बिल्कुल खाना तक नहीं खाया। उन दिनों शहद बेचने के लिए भी बाहर नहीं निकली। जब मैं पूरी तरह ठीक हो गया तो इस स्कूल से लौट कर उनके तंबू में छुप गया था। भाई- बहन दोनों मोम की मूर्तियों की तरह चुप्पी धारण किए हुए बैठे थे, मुझे देखते ही वह दोनों खुशी से उछल पड़े। उस दिन की वह खुशी, वह हंसी, वह आनंद मेरे बचपन के संसार का सबसे सुंदर आत्मीयता भरा पल था।
चालीस-पचास साल पहले कटक अतिथियों के लिए छोटा शहर था। यहाँ अंकुरित हो रहे थे भाईचारा और बस्ती-बिरादरी के बीज, परायों को अपना बनाने की निस्वार्थ परंपरा, संगत और संस्कृति। कहां-कहां से अतिथियों का आगमन होता रहता था। घर में जो भी मिलता, चूड़ामूड़ी,चाय,चकलीपीठा, आरिसा,काकरा,मालपुआ,मिठाई,मटन-मछली, खीर-पुड़ी और भात,भरता,भुजिया, राई,पोस्ता,संतला,दालमा,सब्जी और बाहर में बड़ा,घुघुनी,प्याजी,पकौड़ा,आलूचाप, चनाचूर,दहीबड़ा,आलूदम तक-फिर गुजराती सेव,गांठिया से लेकर मालवार का डोसा,सिंघाड़ा,हलवा,उपमा,बिहारी चपाती,पंजाबी पराठा और कलकत्तिया मिठाई तक- कौन-कौनसा खाद्य उस समय नहीं मिलते थे अतिथि-सत्कार के लिए! मठ मंदिर के प्रसाद के साथ बंगाली खाना बहुत अच्छा लगता था। मुसलमानों के व्यंजन, ईसाइयों के केक तथा अन्य अलक्षित और अलिखित पकवान कटक के संयुक्त परिवार की जीवन-शैली में जुड़ चुके थे। आदर्श हिन्दू भोजनालयों में सस्ते में स्वादिष्ट खाना सुलभ हो जाता था, वैसे ही कुछ धर्मशाला में मुफ्त भोजन की भी व्यवस्था थी। उन दिनों कटक कभी कंजूस नहीं था अतिथि- सरकार के लिए।
मगर जो अनवच्छिन्न आतिथ्य मुझे मिला कटक में-डेढ़ साल तक-दिन में दोपहर तक- वह किसी कटकी परिवार की कृपा या करुणा से नहीं, बल्कि मिला था वंश-परिचयहीन बंजारा भाई-बहन की जोड़ी से। जिसकी चर्चा अतुलनीय है।
शहद बेचकर बहिन की मेहनत मजदूरी से रोज खरीदा जाता था भोजन, रोटी और मटन का। उसका भाई नियमित आकर मुझे बुलाकर ले जाता था। किराए के घर की लोहे की रेलिंग के ऊपर दरवाजे की फांक में से फांदकर मैं रोज दो बजे से पहले छुपकर आ जाता था। तंबू के भीतर, उसकी बहन मेरा इंतजार करती थी और मां सोती रहती थी- उस समय हम तीनों स्वादिष्ट खाना खा लेते थे।
एक दिन नहीं, एक महीना नहीं, एक साल नहीं, डेढ़ साल तक यह सिलसिला चलता रहा। केवल स्वादिष्ट खाना ही नहीं, बल्कि उनकी स्वच्छंद सौहार्द्रता सावलील समय के स्पर्श से भरपूर थी।
उन बंजारा भाई-बहिनों का नाम तो मुझे याद नहीं। मगर याद है उस शहद की खुशबू की माया-ममता। बचपन की सुवासित स्मृतियाँ। रक्त के स्वाक्षर वाले संबंध की आत्मीयता से भरा वह संबंध कम नहीं था मेरे लिए।
सहजता से गुजरने वाला समय सूखा देता हैं सुख को, उसके स्रोत में। खत्म हो जाता है वह स्रोत, मगर रह जाती है स्नेह भरी यादें सदैव के लिए।
दिन की थकान मिटाने के लिए शाम से लेकर आधी रात तक मजलिस चलती थी। तिनके, पत्तियां, डालियाँ इकट्ठी करके आग लगाई जाती थी उसमें। आग बुझने तक चलता था नृत्य का दौर। अलग-अलग वाद्ययंत्र की ताल पर बंजारों के गानों में मधुरता महसूस होती थी, उतनी ही ज्यादा उनकी भी विव्रत व्यथा भी । आग के चारों तरफ घेरे में कमर मटकाते हुए जब बंजारों की बहूएं और बालिकाएं नाचती थी तो अतृप्त अंतसत्ता आंदोलित हो उठती थी।
कोमल क्रंदन की पंखुड़ियों में पिसी हुई कविताओं की तरह, भले ही कुछ भी समझ में नहीं आता था, मगर स्वत: स्फूर्त स्वगत भाषा के स्वर अपने आप स्नायु-तंत्र में छा जाते थे। अनुमान लगाया जा सकता है उनके स्वरों में सुदूर प्रेम की पीड़ा का, यायावर यौवन की यात्रा का और मरूभूमि के मेघो की माया का। मेरे बचपन के दिन-महीने उस उत्तप्त उद्दीपन से उच्छवासित हो रहे थे। अनजाने प्रतीक, अनजाने शब्दों के टुकड़े, उनका मधुर स्वर--सब स्पंदन बन रहे थे मेरे अंतस्थल में। छलक रहे थे छटपटाते हुए वे छंद। वे छंद मेरे बचपन की नासमझी,अस्त-व्यस्तता और हठीलेपन की कविताओं वाले समय को संबोधित कर रहे थे।
बेनी बांधने लगा था वर्षा ऋतु शायद। उस समय का कटक बारिश के घुटने भर पानी से गर्दन तक डूब जाता था। छत और छाते के ऊपर गिरने लगता था वर्षा का पागलपन। कहां-कहां से ढेरों ओले गिरना शुरू हो गए थे। कटक कुबड़े की तरह दिखने लगा था। सब्जी की दुकानों से लेकर फल-फूलों की दुकानों तक-- चारों तरफ संकीर्ण सड़कों पर पानी और कीचड़ भर जाता था। रास्तों में ताडपत्र की छतरियों के नीचे आम आदमी का जत्था, ऐसा लगता था मानो उस दिन कटक ने बरसात की झड़ी के विरुद्ध जीवन की हठ के सामने जेहाद की घोषणा कर दी हो। अब उन मामूली मनुष्य का जड़ से उन्मूलन हो गया है। ओले अब मिट्टी में विलय हो गए हैं। ‘बाईमुंडी’ की किंवदंती का काम शायद कब्र ने ले लिया है पथरीले बांध के नीचे, ठेकेदारों की ठगी के नीचे दबकर।
उस तरह बारिश की झड़ी कब फरार हो गई, पता ही नहीं चला। उस साल कटक में मूसलाधार बारिश के कारण बंजारा दल अपने ‘घर वापसी’ के लिए तैयार हो रहे थे।
उस भाई बहन की जोड़ी के साथ मेरे सुदीर्घ संबंध ने बंजारा दल में मुझे प्रिय ‘बच्चा बाबू’ में परिणित कर चुका था। भाव का कभी अभाव नहीं था वहां, उन भिन्न भाषी बंजारों के पास। उनके कटक छोड़ने के दिन मैं दोपहर से पहले पहुंच गया था। अचानक बदल गई मेरी डेढ वर्ष की दुनिया। सारे तंबू खोले जा चुके थे। सारे साजो सामान पोटलिया में बांधे जा चुके थे, जो उनकी गतिशील दुनिया के सामान्य संचित सामान थे। यह शहर छोड़कर वे लोग चले जाएंगे किसी समतल या वादियों वाली भूमि की तरफ।
चिरकाल में इन अनजाने पथिकों को कौन पूछ पाएगा-- कहां हैं उनके प्रथम कदंब के गहन कानन वन? कहां हैं उनके श्यामल मेघों के मानचित्र में उस तरफ बालूचर पार करके उनके शेष गाँव ?
अंतिम दिन का खाना वैसे ही रखा गया था हम तीनों के सामने। एक गिलास पानी पीने के अलावा वह बंजारन कुछ भी नहीं खाई थी, मगर उसने अपने भाई और मुझे जबरदस्ती आधी-आधी रोटी खिला दी। मगर बहुत मनुहार करने पर भी हम दोनों दोस्त मटन का एक टुकड़ा तक नहीं खा पाए थे। शायद बाहर के आंधी-तूफान में भीग रही थी हमारे भीतर की जलन।
रात में ट्रेन आने के लिए आधी घड़ी बची थी। कटक स्टेशन के प्लेटफार्म पर अपनी-अपनी पोटली बांधी हुई थी बंजारा वाहिनी। भाई-बहन की जोड़ी के साथ उस दिन मेरी मुलाकात थी नितांत निशब्द। कोई भी किसी की आंखों से आंखें नहीं मिला पा रहा था। अंत में, उसकी बहिन ने मेरी हथेली को जोर से पकड़ लिया उसकी पापुली में भींचते हुए। उसकी आंखों में आंसू.... भाई के चेहरे पर मानो बरफ के ओले गिर गए हो और मेरे भीतर भाप।
ट्रेन रातों-रात मेरे डेढ़ साल के निष्पाप अतीत का अपहरण करके चली गई। विवशता वश विदाई वेदना सहन करना क्या इतना आसान था?
पता नहीं क्यों, उस दिन उन लोगों से गले मिलकर रोते समय मेरे आंखों में आंसू की एक बूंद नहीं थी। रेलपटरी पर ट्रेन धीरे-धीरे चलने से लेकर दौड़ने लगी तो दरवाजे पर खड़ा होकर हाथ हिला रहा था मेरा दोस्त, मैंने भी हाथ ऊपर उठाया, मगर बिल्कुल भी हिला नहीं पा रहा था। ट्रेन की खिड़की से मुझे दिखाई दे रही थी एक विकल चेहरे की दो आकुल आतुर आंखें- घूर्णन करते घने अंधेरे का एक निबिड संबंध अधलिखे पते में बदलता जा रहा था।
स्टेशन से उस दिन चुपचाप मुंह लटकाकर वापस आते समय मैंने अपने भीतर किसी आकस्मिक अपमृत्यु पर रोने वाले का शोर अनुभव किया। वह था मेरे ‘नील नक्षत्र’ के निर्जनतम निर्वाक निर्वाण का पल।
इस घटना के कई सालों बाद मेरे किशोरावस्था के उपरांत कटक की ओर दो-तीन बंजारा दल आए थे, मगर वे दोनों भाई-बहन, जितना खोजने पर भी, मुझे कहीं नजर नहीं आए।
यह एक अनजाना अद्वितीय संबंध था- जो मुझे उपहार में दे गया शून्यता के स्वर को लिपिबद्ध करने का अवसर, दुख को एक सुंदर फूल बनाने का सत्य। इस ‘चारुण चर्या’ को मैं समर्पित करता हूं उस दिन की उस बंजारन बालिका के सपनों भरी स्मृतियों को।
गिरिजाकुमार बलियार सिंह
गिरिजाकुमार बलियार सिंह जी की कविताएं
Published On 19-03-2019
1.उर्वशी
जहां होता है सारे सम्बन्धों का हरा-भरा सूर्यास्त
नीले-नीले नक्षत्रों की नामावली का निश्चिहन निशांत
वहाँ तुम्हारा, हे स्वर्णपद्मा! होता है प्रेम-प्रभात
बिना गिराए नयनों से स्वर्गिक शिशिरपात
स्वर्ग जहां तुम्हारा व्यवस्थित व्यथाहीन वर्गक्षेत्र
चित्रित भूखंड,चंद्र वहाँ, नहीं चतुर्दशी
‘प्रति रात: रति रात!’ पूर्णिमा भी वहाँ पंद्रह प्रकार
इन्द्र के इलाके में तीव्र तूफान: तुम्हीं तो हो उर्वशी !
फूल है,घास नहीं! मेघ है,मिट्टी नहीं
अमृत अवश्य है,आँसू नहीं! स्वर्ग-मृत्यु नहीं
फिर इस मृत्यु के लिए, क्यों प्रार्थना इन अधरों पर?
मृत्यु के इस मृगवन में, क्यों चाहत कामुक ऋतु की?
अनंत यौवना, आई क्यों अभिशाप लिए इस पार ?
पुरुष में पुरुरवा,असक्षम जाने को पवन के उस पार।
2.रंभा
इस तरफ चाँद की जमीं, इस तरफ इंद्र का इलाका
आज मुझे आश्रय दो इस जमीं पर मैं स्वप्न-संभवा।
हार्दिक इच्छा, काश मैं बन पाती सुवर्ण-बलाका
संध्या के इस सरोवर में विचरती मैं रूपसी रंभा॥
ज्यादा आत्मीय लगता है मुझे
स्वर्ग के पारिजात से मर्त्य का यह कमल
ज्यादा अच्छी लगती है मुझे
यहाँ कोयल की कूक
मलय पर्वत की ठंडी पवन
कुछ हो या न हो,
मगर निकलती हृदय की हूक
और याद नहीं आती मुझे
मर्मदाह नल-कुबर की
रावण का रमण,बीज-पात या ऋषि-रोमांच
सजी-धजी अभिशप्त शिला मैं,
जैसे सस्र संवत्सर
कुछ भी मुझे याद नहीं आती!
तुम्हारी मुद्राएँ, बहुरूपिया नाच
काश मैं भूल पाती मेरा दुर्भाग्य,
मेरा खंडित मन
अप्सरा मैं एक बार
फिर से लेती नारी-जन्म
3.मेनका
विस्मित हूँ मैं विश्वामित्र !
देखकर स्वर्ग के सिंहासन की डालियों को छूती
उतरती किसकी कंचन काया, कोहरे के उस पार ?
मथने लगता मेरा मर्म किसी मधुर नृत्यताल पर ?
क्या मेनका की माया से महक उठी मैली धरती ?
मालिनी नदी के मोड पर एक दिन मायावी ने मोह लिया मन
पता नहीं,वह कब की बात ? बीते कितने क्षण
सितारों भरी रात में चमक रहा था चाँद
मिट्टी और पवन से मिल मन कर रहा था जल-निनाद
हे अक्षी! पलक झपकाओ! कान तुम भूल जाओ अधरों का ओंकार
नासिका में नाना महक, त्वचा को चूमते चैताली-स्वर
मेरी बेटी की माँ हो तुम,मांगोगी अगर प्रेम पुनर्वार
पुष्कर तीर्थ में तब,पुण्य नहीं,पाप की होगी टंकार।
पुण्य से यह पाप प्रिय! मोक्ष से मीठी यह माया
स्वर्ग में अगर सपनों को चाह, तो मर्त्य में प्रेम-प्रछाया ।
4.ईश्वरी
हे ईश्वरी,कहा था मांगने को उस दिन तीन वर
उस दिन तुम्हारे नाजुक होठों पर थी हल्की-स्मित
अर्पित करना चाहता था अष्ट-सिद्धियाँ,अणिमा और
तृष्णा से लेकर सितारों से टिमटिमाती चाँदनी रात
प्रथम वर- तुमसे मांगा था, एक अद्वितीय नारी
प्रत्येक कदमताल पर जिसके मुक्ता भी होते वारी
दूसरे वर में मैंने मांगा था, कल्याण हो उसका
और तीसरा वर- प्रौढ़ा न हो कभी प्रेमिका
पता नहीं इस याचना में, हे ईश्वरी! हुआ कुछ अपराध ?
सुशोभित स्तन-युगल से गिरी तुम्हारी मुक्ता-माल
निशब्द वापस उठा लिया! प्रेम में मेरे था कोई प्रमाद ?
फिर पूजा-थाली समेत फेंके क्यों प्रार्थना के फूल ?
हे ईश्वरी ! नहीं मांगता ईर्ष्या के ये तीनों वर
बल्कि दो अभिशाप मुझे , बन जाऊँ मैं प्रस्तर!
5.अनश्वरी
हे नश्वरी,पकड़ लो,निकांचन नारियल वन
चिड़ियों की चोंच का चंपू चैताली कराती पहचान
पत्ते जहां सब फर्द बनते,करते केवल कोमल कंपन
अंगार बन नहीं पाता अस्त-चाँद का अंधेरापन।
प्रेम होता है, हे पुष्पवती! जहां सपनों के स्पंदन
वर्षों से विरह की वैशाख में नहीं काटते बसंत
भीगा दो मुझे तुम्हारे मिलन के मान सरोवर
जहां गदा-युद्ध में,भूल जाऊंगा मैं–सारे गुप्त क्षत।
भस्म-पलंग पर बिछा दो पुष्प-शय्या
विसर्जन हो अस्थियों के नीचे अकथित अजस्र अभीप्सा
हे नश्वरी,तुम्हारी तरह ऐसी अनश्वरी भी ?
आज भी यहाँ,तुम्हारे लिए ईश्वरी की ईर्ष्या !
हे अनन्या अनश्वरी, अगर आंसुओं में लोटता हमारा प्रणय
ले जाओ मुझे नाग नर्क में, जहां देगा पाप अपना परिचय
1.दो पंक्तियो का दुःख
मैं गाँव की गत गोधूलि का
दिवा-स्वप्न हूँ मैं
अकारण बदनाम
अपने पागलपन से ।
पर तुम हमेशा
शाम की तरह अधूरी,
और मैं भी आधा
सह रहे हम
अपना-अपना एकाकीपन॥
मैं मधुर माया
के मोह में वाया
प्रेम के लिए
जलती एक चिता
मेरी हठधर्मिता
एक अलग-सी आग
खौलते नमकीन आंसुओं में राग।
तुम तरल
सरल रेखा हो
एकाकी हो
और मैं भी
बिन बरसात बादल की तरह
अनमना-सा ?
मैं निर्यमाण
सौगंध रात की
मौनावती के चेहरे की
मैं अतिकृष्णकेशी
को याद क्यों करता हूँ?
फिर भी चुपचाप हो तुम
शोकगीत की तरह
और मैं
समाधि-लेख की तरह
अलग-अलग
दो पंक्तियों के
दुख हैं हम दोनों।
2.दुबघास
दूबघास का फूल
फूल हूँ मैं
दुःखी, अतिदीन
देख नहीं पाया
वह भोर
तुम्हारी मेरी डोर
प्रेम का प्रतिदिन ।
क्रंदन करती कुछ
शिशिर बूंदें
तुम्हारे गाँव की गोपा
और आम्रपल्ली में
मैं अवाक् गतिहीन ।
बार-बार मैंने
पथरीले विदीर्ण
रास्तों को स्पर्श किए बिना
तुम पर किए
कटाक्ष अंतहीन ।
सुनो गुहारी!
हे घासफूल !
निर्वासन-महीने को
भूलकर याद हैं
दो जिस्मों के
दुपहर वाली
वह दुर्घटना ।
हमारे यहाँ
चीरे चर्म
आलट (?) के आस-पास
मायामंदिर
श्री मंदिर
सपनों की छाया तक ।
तुम भी यहाँ
बोए कल की
सरसों नहीं हो
श्रद्धाबालू
वनदेवी की
मन अर्पित कर दूँ
जिंदा रहने तक ?
3.सरसों का फूल
लंबे हो जाते हैं दुःख यहाँ
देवदार-पेड़ों की तरह
सुख के सरसों के फूल वहाँ
झड़ जाते हैं पौष के पतझड़ की तरह।
सूखे पत्रों के महरग मुल्क में
महक तुम्हारी मदमस्त करती है मुझे
पता नहीं, जंबुद्वीप जाने के लिए वहाँ
मिलेगी भी कोई तरणी
ठहरूँगा तुम्हारी अटवी में वहाँ
लिए आश्रय की आशा वैतरणी!
4.ऐसा एक सपना
शंख नदी की श्रद्धा-बालू में
सीपी बनने का मेरा सपना
अभी तक अव्यक्त,
स्वाक्षर
भले हो या न हो
स्वाति की
पीली होती मगर
वह रात
और उस रात की रक्तिम-चिता को
देखकर चमकता है चाँद
सपना टूट जाता है
वह पहर बीतने के बाद भी ।
5. हे मेघ,हे तारा
मैं जहाँ हूँ,
तुम वहाँ नहीं हो
हे मेघ!
मैं तुम्हारी व्यथा भरी
बारिश के रोमांच में
भीग रहा हूँ।
मैं वहाँ नहीं हूँ,
जो तुम्हारा उद्गम स्थल है
हे तारा!
मैं तुम्हारे एक टुकड़े उजाले
के अंधेरे में अधमरा हूँ।
6. एकला तारा का इकतारा
1)
एकला तारा के एक तारा
वनवासी से बंजारा!
हे भूलभुलैया!
ठीक रहेगा ?
प्रेम में
तेरा गीत
अगर मैं गाऊँ ?
तुझे दूर होकर
जी पाऊँ ?
जब दिशाएँ दिखती न हो,
दिन सारा !
2)
एकला तारा के एकतारा
जहन्नारा से रोशननारा!
है बहुत खराब
प्यार करना
अच्छा हुआ
तुम होकर भी?
मुझे पराया कर सकी तू
दिन-रात सारा
वही सायोनारा!
7. वे सब रातें :: ये सब तारें
साँझ-तारे का
दिखना
सच में, यह कैसा
सपना
मुझसे मांगता है
सपनों के लिए
नयनतारे से भी ज्यादा नीलापन!
वे सब रातें
ये सब तारे
जलाते रहेंगे मुझे
आजीवन
चित्रमेघ में
चोरबालू के घर में
चंद्रमा की चंचलता में !
2.
यह रात रुदाली-रुदाली
यह रात रुपहली-रुपहली
कैसी दयनीय दीपावली
आसमानी तारे में
उदास प्रिया!
ओह, मेरी अमावसी
दूसरी कोई नहीं वह
लटपटाती
अमावसी कन्या
प्रतिपदा के बाद
द्वितीयार्ध की
अदिति अद्वितीया!
8. रुबायत
1)
चिरकुंवारी के चित्रकूट में
छप्पन छत्र-भंग
अभिसारिका के अक्षकूट में
अनेक अस्तरंग!
चमेली में चुम्बी
चम्पा में चीनी
षोडशी अगर
होती पड़ोसन
सुबह मांगता
एक कप चाय
और शाम को संग!
2)
अनुरागिनी के अनुमोदन से
अनुकंपित है अंग-अंग
अभिमानिनी के अधरों पर
आलाप के अनुसंग!
चंदचपला,
छद्मवेशिनी,
वयसिनी यदि
होती विदेशिनी
रात भरती
पान-पत्तों में
भोर आसमान के रंग!
9.यहाँ तुम्हारे लिए
खजूर-वन से लौटती धूप
विचरती घास के मैदानों में
जहाँ बढ़ रहे बोनसाई
छोटी-छोटी छायाओं को चूम!
अति दुखद
कंटक-पथ
बालू की झुर्रियों पर
पत्थरों के भ्रंश
मानचित्र की मरीचिका
मापती रेगिस्तान
करने को मूर्छित मुझे
इस मतवाले मौसम में!
2.
गोधूलि वेला में
गलियों में, गुवालों में
उड़ते लोध्र कण
तुम्हारे लिए
अगर जी लेता है ‘जाईफूल’
तो कभी मर नहीं सकता
‘मरुआफूल’!
अतरुण होने पर भी
बारिश के दिनों में
पागल हो जाता
पहाड़ी झरना
रेगिस्तान की मधुशय्या
कैक्टस की एक कली
मेरी आवाज बन
देती है अंतिम चुंबन
तुम्हारे होठों पर!
10. स्वप्नांत
1.
पद्म पंखुड़ियों के जर्रे-जर्रे में
पलास का प्लस्तर
‘जवा’ के जुलूस में जलता जबर्दस्त
ययाति पुत्र का जर!
छुईमुई का स्पर्श
हर कांटे पर
फूलों का फतवा
रुमाल के रेखाचित्र में
‘रंगनी’ का रफू
नहीं, मैं नहीं गर्वी
ओ रक्त करवी!
धूलघर की तुम्हारी चारदीवारी में
रहूँगा सदा।
2॰
तुम खोजती हो घर
मैं खोजता हूँ बाग
हमें मिलती नहीं जमीन
हमारे कैमरे के काँच झरोखे में
आसमान अटता है बहुत कम!
गोलाकार ग्रह
गढ़ते है गारद
पत्तों पर गिरता है
पानी-पारद
बुझी आग के
निद्रालु नगर में
सपने थम जाते हैं सभी
देख,
अंतिम रात को
खुले केशों में
बड़े बेशर्म वेश में।
11- सहृदयता
1)
हृदय कोई खो देता है
दूसरा हृदय पाने के लिए
हृदय बिन
हृदयहीन
हंस सकती है कभी?
रोती अगर वह
खोकर अपनी अंगुठी
कहीं किधर
तो उसकी अश्रुधार
लगती लज्जादायी
उसके हंसमुख
चेहरे पर
2)
हाथ में आया
हृदय कोई खो देता है
तो हाथ पर हाथ धरे
बैठने से क्या फायदा?
फिर हृदय है कहाँ?
कितनी दूज की
रातें बीती
राजघरों में होकर
शय्याशायी
हृदय स्वयं।
12. हृदय खोता है तो खोने दो
हजारों-हजारों
हाट-बाजारों में
हृदय कहाँ खोता है?
मन मुड़ने से
मथुरा नगर
नहीं तो
वज्रपात ब्रज में।
द्वारका के दिनों को
डसता द्वापर
समय के साथ
सभी पराए
कहाँ हैं प्रभास ?
सभी प्रवासी
भ्रथखण्ड में भजता हूँ।
हे पथिक प्रिया !
पुरी का यह पथ
भरा न सका पदरज॥
2)
पिछली रात का ‘गीत-गोविंद’
पढ़ोगी पद्मावती ?
सब जगह सुबह
साक्षी गोपाल
सब जगह साँझ
सती-सती?
ग्रामदेवी के
गोधूली राग में
यही अस्तगामी
सूर्य आग में
मैं देखता तुम्हारा
पांडुरतम
पौष की परिणति
पथरीली आँखों के
पर्ल भी मुझे
अश्रुल करते अति।
3)
ये शोक-स्वर
सुनाई देते हृदय के
स्पंदन बन
हृदय खोता है, तो खोने दो
खोजते क्यों हो उसे?
यहाँ भूख है
तो वहाँ खेत है
मैं पागल
तुम्हारी पंखुड़ियों
के पीछे
हो न हो
महुआ के
करुण काँटों वाले फूल,
आओ
मेरे गले की
फांसी खूँटे पर
लटक जाओ
न मरने तक।
13. हंसराली झील
1)
हृदय होता है
हंसराली झील
उनचास नि:शब्दों की
बहती पवन
बरसती बरफ
जमता पानी
आह, राजकुमारी!
निन्यानवें रानी
दिन बीत जाते हैं
दरहीन-ए-दरद
धो पाता है क्या धूमाल
गोधूलि के गोस्पद ?
2)
हृदय होता है
हंसराली झील
वहाँ संन्यासी
प्रेमास्पद प्रवासी।
इस किनारे बिछाता
फाल्गुन यदि फांस
उस किनारे होता
चैत्रमास उदास।
छाया छोड़ जाती
साँझ की सरहद
आग से क्या हो पाती
साँसे निरापद?
3)
हृदय होता है
हंसराली झील
ढल जाता दिन
रुक जाती आधी रात
कोहरा को कहते
शिशिर बिन्दू
कुलू-कुलू
जल-बिन्दू में
जलती चिता
जुलू-जुलू
काक ज्योत्स्ना को
रुलाते कमल
तूफानों के आगे
झुकते वयस दल।
14. अन्यथा
1)
इस शाम का
आकाश इंद्रनील
अंधेरा
अद्भुत अनाबिल।
इसलिए यह
शाम जितनी मनोहर
यह अंधेरा
उतना ही मल्हार।
सबसे बढ़कर यह
संयोग सवालील
मगर अतिथि
अज्ञात कुलशील।
2)
इस शाम की
सम्मति जितनी स्मित
अंधेरा उतना ही
प्रकीर्णित ।
इसलिए यह शाम
जितनी प्रिय
अंधेरा उतना ही
अतुलनीय
सबसे ऊपर यह
समय जितना सम्मोहित
अतिथि उतना ही
अल्प अपरिचित!
3.
इस संध्या की
जितनी स्पर्शकातरता
अंधेरे की उतनी ही
अस्तराग व्यथा
इसलिए यह संध्या
जितनी प्रिय
आंधेरा उतना ही
अकलनीय
सबसे बढ़कर यह
संशय सारकथा
जबकि अतिथि
अनाहूत अन्यथा ।
15. भटियारी
प्रत्येक
गोधूलि गिनती है
‘गंगाचिल’ का गाँव
क्यों नहीं लौटी
युगों से
नंदावती का नाव!
नाविक विहीन
वह नाव
फिर भी तेरह नदियां
क्यों कर रही
प्रतीक्षा उस नाविक की ?
पाल को करते
जुहार
आंधी-तूफान-बयार
चंद्रभागा में
मैं हतभागा
हे मांझी,
मेरी तरफ झाँको तो जरा!
18. यहाँ
1)
दो नदियों के नगर में
उलझे तुम्हारे मेरे दिन
मछली-कांटे में फंसी
असूचित
सोन-मछली के
सपनों की
आशान्वित सुबह की तरह
फिर भी लंबी प्रतीक्षा में मेरा
अन्वेषण अर्थहीन
यहाँ तुम्हारे अववाहिका में
मैं हूँ अर्वाचीन ।
2)
दिन प्रेलपित कर देती है
दोपहर
दिग्वलय –धार
दिनलिपि से लिखोगे तुम
लिखो,लाल गुलाब की गार
आंक दो,
इन आँखों में आकाश
उगने को है
आज अवकाश
कौन जानता है
कल चौथी का चाँद
एक इंच उठ न पाए
अदिन मेघ के अधीन मैं
यहाँ पर, यहाँ पर।
3)
उज्जयिनी के उत्तर मेघ
यहाँ होते हैं उदास
दुख-सुख की दोनों नदियां
क्या दो बूंद आँसू नहीं हैं?
पटकती एक नदी
पत्थर पर अपना माथा
बालू पर दूसरी
गढ़ती अपनी उपकथा
लेकिन इस गढचंडी को
हम दोनों क्या देख पाते?
यहाँ अवाचीर तारा
हजारों वर्ष में उगता कभी ।
17. राग-वैराग
1)
अंतिम दिन की प्रार्थना भूलकर
पहले शय्या-त्याग
नीली निद्रा को कृष्ण न करती
अगर यह अस्तराग!
अंतिम शैया में
फूल जितना दो
अंतिम शय्या पर
फल कितने भी डालो
फिर भी अंतिम आशा
कितनी अपूरणीय!
आँखों के नीचे
किसने आँके
इतने अंगार दाग!
2)
अंतिम शाम के स्मृति-विस्मरण में
पहला शिशिरपात
तुषारवाला की तृष्णा न होती
अगर होता अंशुघात!
प्रेम के राख़
मिले या न मिले
हृदय की ओर आग
करबद्ध
प्रताडित प्रत्येक पतंगों को
प्रदीप का प्रणिपात!
3)
अंतिम रात के सपने भूलकर
पहला मद्यपान
अंधकार को ऊष्म नहीं करती
अगर होता अग्नि-स्नान!
नीर की एक बूंद
कहाँ इन नेत्रों में ?
नहीं चारों ओर
चारण-क्षेत्र
जिप्सी जमीन को जब्त करते
हमारे ये मुल्क सारे
18...अधूरा
1)
इस फूल पर कांटें
उस फूल पर मधु-बूंद
मधु से मन प्रफुल्लित
काँटों से रक्त-बूंद !
याद आती है
मधुर मधुबाला
सिमटती धूप
मेरी खाली खोज
मथुरा के माथे पर मेघ
गोपपुर की बाढ़!
2)
इस कान में मेरी छोटी बात
उस कान में स्वर्ण-फूल
पोषती फूलमती की पुष्प-प्रीति
तक्षक नाग के तुल्य!
सजे फूल बाजारों में
लक्षहीरा की हंसी हजारों में
केवल एक बूंद आँसू
भाँप लेता चेहरे का मूल्य!
3)
इस आँख अलीक तृष्णा
उस आँख में मधुकरा
.
वर्तमान से उबरने के लिए
कहाँ है आशा ?
कहाँ विश्वास ?
उर्वशी के अभिशाप से मैं
कितना दुखी! कितना अधूरा!
19 . एकपदी
प्रेम का मार्ग
शायद
भाग्य के बाईं तरफ है ।
आधे उगते
अरुंधति वाली
अंधेरी हमारी रात है।
इस रात को सहारा देता
कौनसा दीपतल ?
मैं जहां बुझ रहा हूँ
वहाँ, तुम रही हो जल।
हमारी कमाई
व्यथा या विदाई
शोक या समाधि,साथी?
रो रहे असंख्य
कैक्टस वहाँ
राख़ की पंखुड़ियाँ लिए।
20. वे दोनों हाथ
सात रंग की चूड़ियों को
चूमते
उन दोनो सुंदर हाथों ने
हाय रे! ललाट के रोमकूपों को
छोड़ दिया छूना तक!
अब आ रही है
बेनी-संहार की वेला
समय-असमय
अमावस की उद्विग्नता
सुनाई दे रही है
शपथ
वह करतल-ध्वनि
रक्त-स्नात
दोनों हाथ
भग्न चूड़ियों का
वज्राघात!
21 .प्राचीन प्रेम
पाता मिलन
मास में एक बार
खत्म नहीं होता विरह-संसार
सालों-साल
चम्पा जैसे गाल
गुलाबी होते
परपुरुष के
स्पर्श से !
लाल होता
फिर से
लजाता लास्य
प्यार के लिए
भूलकर भाष्य
बनाता यायावर
एक कमरे वाला घर
आँधी-तूफान में
कल जहां
गीत अधूरे थे
आज वहाँ
बातें पूरी होती हैं।
22. विहंगावलोकन
बगुले के पंखों की तरह दिन
और कौए के पंखों की तरह रातें
बीच में मोर चंद्रिका की तरह
सांझ-साथी।
बहुत दूर से
लौट रहा है बगुला
कौआ दिन गिनता
कोयलपुर के लिए
मन का मयूर-सिंहासन
मगर क्यों है इतना खाली?
2.
सुबह ‘शंखचिल’ की तरह
तैरने लगती है हल्की-धूप
फिर विकल होने लगती है ‘डाहुक’ के खेत में
दोपहर
‘गेंदालिया’ का
गोधूलि-गाँव
जोड़ता है मेरे नाम से
तुम्हारा नाम
वन-कपोती की बहू बनी या
चित्रग्रीव का चारागाह ?
3॰
पता नहीं कहाँ
कहीं कौए का क्रंदन
कहीं कोयल की कूक
दिन में दारुचीनी का द्वीप
चाँदनी रात में जुहू?
फिर जल रहे हैं
पक्षियों के पंख
पिंजरों की तरह
घर के ऊपर घर
तुम और मैं
एक मरूयात्रा में
मर रहे हैं.प्रतिपल !
23. सीने के अंदर
1)
छाया की तरह विचरता सीने के अंदर
थोड़ा-सा भी दर्द कहाँ
रूखा के लिए शिखा कहाँ
शोक प्रार्थना सीखकर!
मैं शिकारी
तुम मृगनयनी
इन नयनों में आँसू
सोने के झरने से
क्या कम है!
मेरे शब्दभेदी बाणों के
खून को जरा पोंछ तो दो।
2)
रात के अंधेरे में सीने में
उठती है ऐसी हूक
जो तोड़ देती है
कच्ची नींद को भी।
मैं घातक हूँ!
तुम मेरे प्रेम की नियति
प्रत्येक चोट अवश्य
मुझे झुका देती है
खुद-ब-खुद अस्त्र उठ जाता है
परिणाम के लिए
3)
छटपटाहट सीने के अंदर
टूटी नींद की आग
जलाती रहेगी मुझे
आमरण, बिन बुझे।
मैं शिल्पी!
तुम निष्प्राण शिला
लेकर छैनी से
नील निर्वाण
मोक्ष मिलना ही उद्देश्य मोहिनी
क्या मूर्ति, क्या महियान !
24. .आज की शाम
1)
आज की शाम
बिताएँगे कहाँ
कैफे में या कमरे में
या किसी क्लब के कोने के
सफेद उजाले के घेरे में!
कैसा लगेगा
वह गोलाकार घर
जहां पाँव जमीन पर
नहीं पड़ते
जहां आंखे नाचती है
वहाँ सत्ता से होगा
हमारा साष्टांग नमस्कार
किसी सुंदर स्नानागार में ?
2)
आज की शाम
शेफाली के गिरे फूलों के नाम
रात रुपहली होने से पहले
हो जाएंगे सुनहरे हम!
तुम एक फूल हो
और मैं पीला पत्ता
हम यहाँ होंगे
एक साथ एकत्र
आज दाहिनी प्रदक्षिणा में
रहो तुम मेरे वाम ।
3)
आज की शाम पंथशाला या
मधुशाला के नाम?
हमारी लाचारी या बंधन का
आरंभ तो है-अंत नहीं?
आज शाम की सामुद्रिकता
समेटेगा सीपियों को
सहलाएगा बालू को
काटेगा कल के कोहरे को
मगर सुबह की समुराई!
25. पद्पूर्ती
1. दो आँखों के अंधकार तो
एक-एक रात
एक से देखता हूँ अरुंधती
और दूसरे से स्वाति!
दोनों आँखों की दीर्घीका वह
जहां दूर से नजर आता मुझे
एक ध्रुवतारा
मांग रहा है मेरा स्वप्नविभोर
हृदय से हाथ फैला कर!
2.दोनों हाथों की हिरासत में हाय
एक जन्म जमा
और छह जन्म के लिए
प्रार्थिनी प्रियतमा!
दोनों हाथों की हार्दिकता में
सातों जन्म
न्यौछावर कर सकता हूँ
इन दोनों हाथों की दुहाई देते है
वे दोनों हाथों को क्षमा करते है!
3. दोनों पैरों की पंखुड़ियाँ लेकर
पल्लवित एक एक फूल
इस पद्पूर्ति के स्पंदन तुल्य!
उन दोनों पैरों के
अलता बूंद में
यहाँ मेरी रक्त-गोधूलि अवरुद्ध होती है
सजाता है सती के सप्त-स्वर्ग में
संजवती का अंगार!
26. .देशांतर
1)मत्स्यदेश में मिलन होगा या
विदेह देश में विच्छेद
हे स्वर्णमृग !
अभी तो
खत्म नहीं हुआ
प्रथम परिच्छेद!
मृगोद्यान में
मृत्यु-मृगया
मृदु-मर्म
द्रुत तुम्हारी दया
हाथों में
तुम्हारी शून्यता
और तीरों में
शब्द-भेद!
2)अश्वदेश से आषाढ़ आए या
श्रावण श्रावस्ती से
मन नहीं होता
निकलने को
इस बदनाम बस्ती से!
वनहंस के
वर्षा अभिसार में
मैं खुद खो गया
इस ओडिशा के
मेघाच्छादित मृत-शाम में
मगर तुम मत डरना।
3)ब्रह्मदेश में वर्ष बीते या
मद्र देश में महीने
यहाँ आर्यावर्त में हम
तोड़ेंगे उपवास!
गुफा-गुफा में
गुप्त गंगा
डल और डलार से
बुलाती नौका
अर्द्ध चंद्र का आलोक
समेटकर
भीगे सपनों में
तुम आओ!
4)कंधमाल में कली खिले या
चेरापूंजी में चेर
मण-मण मेघ में मानो मैं
मण फूलों से मापता सेर !
आह, कैसी अह्य (शुभ)
आंचलिकता
मिट्टी मानती
पानी पवन की बातें
आसमान में आग बुझे या न बुझे
भोर होने तक
तुम लौट आओ
5)कहीं पर प्रेम का प्रमिला राज्य
परगने में प्रताडना
यहाँ बाइस सीढियों पर
बुद्धि बन जाती अबोध
बालू बांधती है
जूड़ा या ज्वार ?
स्वर्ग का यहाँ से
दिखता है द्वार
और इस द्वार के दोनों तरफ हमारी
आशाएं व अंधकार ।
27.. हर जनम में
अमानत खोती है
अमेज़न यहाँ
किनारे हम
किशोरी किशोरी
मिसोरी के मुहाने
कहाँ मिसीसिपी नाम?
कितनी कहानियां
नजरों में दबी
कितने आँसू सूखी-नदी में
यहाँ
चूरमार
सरु सुर्मा
छुरीमार्का व छई
यहाँ अरब की
रात केवल
कोहरे में खींचती रेखा
अनेक आँखों का
अफ्रीका यहाँ
बहुत ज्यादा अंधकार।
कुवांरियाँ
सपने बुनती
कुलवधू फोड़ती माथा
इस उम्र की
बर्फ-बारिश में
वाष्पीय बहु-व्यथा।
यहाँ मिश्र की
ममी-मुद्रा
चाहती मौनावती
यहाँ मेरे पापों के
पिरामिडों के पास
पत्थर की मैं प्रजापति (तितली)।
क्लियोपाट्रा के
करुण कूच में
कालसर्प की केलि
मैं उस भीषण
प्रेम में
क्यों हुई नहीं नीली?
क्षीण ज्योत्स्ना में
प्रक्षालित क्षेत्र
क्षत चिह्न क्षमा
यहाँ प्रेम मरता है
प्रति जन्म में
प्रस्तर प्रियतमा!
28. ओड़िशा
1.
एक सरल सीमा से सटी
अनेक वक्र रेखाएँ
चित्रपट नहीं है यह,
पट्चित्र है वह
छिन्न होते मेरे स्मृति-लेख
समुद्र तट पर
बालू विद्रूप
दयानदी के द्वार पर
धौली-स्तूप
हाथीगुफा का रात्रि-स्वप्न
कभी किसी ने देखा ?
2.
पत्थर-घोड़ों के पक्षाघात से
पीड़ित यह पूर्वाशा
ओड़िशा उर्फ ओड्र देश
हर्फ हरती आशा !
लेशमात्र
कहीं कोमल घास नहीं
बूंद-बूंद पानी को तरसते
पितृपुरुष
और अंजली भर पांवों में पड़ती
मामूली मातृभाषा !
3.
हाय! मेरे गोकुल पूर्वोपकुल
धूल-धूसरित मफ़सल
गडजात गाँव,सघन वन,चारगाह
कितनी देवकियों के कारागाह!
मां महानदी हो
या यशोदा
काठजोड़ी के तट पर
बिछाकर भीगी पलकें
ओड़िशा की इस प्रसव-शाला में
पैदा करती
एक के बाद एक जारा !
4.
हे तालतमाल, तुम तलमाल
क्षुधा का क्षेत्रफल
जनपथ पर हक मांगता
जमीन-जंगल-जल!
बंदूकों की गश्त
गली-गली में
मथुरा मार्क
मुगलबंदी
दारुदुर्ग में माँग-पत्र देते
दलित दूर्वादल !
5.
आज दक्षिणी पश्चिमी हवाओं का
मृताहत मौसम की
उत्तरी-पूर्वी पागल पवन
मृत जड़ों का करती चुंबन !
दुखी दिखाई देते
दूर से देवधर
बुझी आंखों से झरता
भाप का झरना
कंधमाल के अंधकार में
मेरी भूमि भूर्जवन
6.
आज़ ओडिशा का आकाश से
घुटनों के बल झुकता जहां
हाय! हीराकुड बांध वाह
खटता दादन, बाढ़ पानी यहाँ
कबड्डी खेलती तरंगें यहां
‘कबड्डी’ कहते-कहते
उड़ जाती चीलें यहाँ से
चखकर चिलिका पानी
आज ओड़िशा-इतिहास अधूरा
भूखे भूगोल की भेंट से
7.
बनेगा आंसुओं का अंसुपा यहां ?
आशाओं पर अंशुघात ?
दोनों दिनमान दुखी
तुम्हारे मणि-माणिक्य की ओड़िशा में तो !
घी दीप की लौ हो तुम
छन-छन,
छम-छम
कन-कन
उलझे अतीत की
अथाह गहराई हो ।
8.
सात-साधबों की छोटी बहिन तू
सोने के फूलों की कली
क्या ‘ओडिशी’ नाचोगी ?
पूछने पर लज्जा से
जमीन में गड जा रही हो?
मैं तुम्हें पुकारुंगा –
"तअपोई,आ’
आज से तुम्हारा नाम होगा
‘ओडिशा’
बढ़ती जाओ बंगाल की खाड़ी के तट तक
बेपरवाह किसी रेतीले तूफान की तरह!
9.
टूटे-फूटे तुलसी चबूतरे पर
उतरती चंद्रिका
धान-क्यारियों के छोटे बुर्ज में
रहती कोई कृषक-पत्नी
मन महान
देह क्षुद्र
कब टूटेगा
हथकड़ियों का यह कडा ?
कब आदिवासियों के मैदान में
फांसी पर चढ़ेगी राजधानी ?
10.
जहां समाप्त होती है
सीमा की सुबह
वहाँ रक्त-गार की
संगीन मून से रंगीन होता है
अकेला ओडिशा !
हे! कांची की राजकुमारी
छोड़ दो यह छावनी
अगर कल तुम
पुरी में दिखाई नहीं दी
वहाँ ‘महेंद्र तनया’ के तट पर
होने वाली क्षति देखोगी ?
29. गीत गाने से
गुमनाम गोधूलि
गिन रही है
गांवों के गीतों का गूंजन
रानी मधुमक्खी का
यह दंशन तो
मेरे लिए मधु चुंबन ।
जब यह गीत गाता हूँ
तो नाचने लगते हैं नाग-साँप
एक पद पर पुण्य
दूसरे पद पर पाप
फिर भी बीच में बिछुड़ जाने से
है मन को अभिशाप ।
2.
महीने-महीने,सालों साल
गुजार दिए मैंने
बिना लड़े मेरे मित
फिर भी इस गोधूलि में
न कोई मिलन, न कोई विरह रत
अकारण तुम्हारी
हाय लेने के लिए
यह गेहूंआ गोधूलि
नहीं गा रही है गीत
अगर मैं गाऊँ ऐसे गीत
रेत में होगा रौद्र प्रतीत
और श्वेतपदम में शीत
3. कहाँ है लाल बसंती
गुंजयमान गाँव गलियों के गीत
दूर्वादल से घायल होती
पत्तियों की पदावली
मैं खोजूंगी कल
पुष्प-पौधों के मूल
आज मुझे कहो खुले दिल
मैं गीत गाऊँ तो क्यों मेरी भूल
बेदर्द प्रेम शूल
Blogs By Dinesh Kumar Mali